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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
प्र स॒म्राजं॑ चर्षणी॒नामिन्द्रं॑ स्तोता॒ नव्यं॑ गीर्भिः। नरं॑ नृ॒षाहं॒ मंहि॑ष्ठम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । स॒म्ऽराज॑म् । च॒र्ष॒णी॒नाम् । इन्द्र॑म् । स्तो॒त॒ । नव्य॑म् । गी॒ऽभि: ॥ नर॑म् । नऽसह॑म् । मंहि॑ष्ठम् ॥४४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सम्राजं चर्षणीनामिन्द्रं स्तोता नव्यं गीर्भिः। नरं नृषाहं मंहिष्ठम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सम्ऽराजम् । चर्षणीनाम् । इन्द्रम् । स्तोत । नव्यम् । गीऽभि: ॥ नरम् । नऽसहम् । मंहिष्ठम् ॥४४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
विषय - सम्राट्।
भावार्थ -
हे विद्वानों ! (चर्षणीनाम् सम्राजम्) समस्त मनुष्यों के सम्राट् (इन्द्र) ऐश्वर्यवान्, (नव्यं) स्तुति योग्य, (नरं) सबके नेता, (नृषाहं) सब मनुष्यो को अपने बल से विजय करने वाले, (मंहिष्ठं) सबसे महान् (गीर्भिः) वाणियों द्वारा (प्र स्तोत) उत्तम रीति से स्तुति करो या उसको (नृषाहं मं हिष्ठं नव्य इन्द्र) सब मनुष्यों को पराजय करने में समर्थ, स्तुत्य, महान् नेता को (चर्षणीनां सम्राजं प्रस्तोत) सब मनुष्यों के ऊपर सम्राट् रूप से प्रस्तुत करो उसको सम्राट् बनाओ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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