अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
उप॑ नः॒ सव॒ना ग॑हि॒ सोम॑स्य सोमपाः पिब। गो॒दा इद्रे॒वतो॒ मदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । न॒: । सव॑ना । आ । ग॒हि॒ । सोम॑स्य । सोम॒ऽपा॒: । पि॒ब॒ ॥ गो॒ऽदा: । इत् । रे॒वत॑: । मद॑: ॥५७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उप नः सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब। गोदा इद्रेवतो मदः ॥
स्वर रहित पद पाठउप । न: । सवना । आ । गहि । सोमस्य । सोमऽपा: । पिब ॥ गोऽदा: । इत् । रेवत: । मद: ॥५७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
विषय - ईश्वरस्तुति।
भावार्थ -
हे इन्द्र ! तू (नः) हमारे (सवना) उपासनाओं में (उप आगहि) प्राप्त हो और हमें (सवना उपागहि) ऐश्वर्य युक्त पदार्थ प्रदान करने के लिये प्राप्त हो। तू (सोमस्य) राष्ट्र एवं जगत् के बीच में (सोमपाः) समस्त ऐश्वर्य का पालक होकर उसका (पिब) पानकर, भोग कर। (रेवतः) ऐश्वर्यवान् आत्मा को (मदः) परम आनन्द प्रद होकर भी उसको (गोदाः) इन्द्रिय सामर्थ्य और उत्तम भूमि तथा पशु आदि का प्रदान करने हारा है।
अथवा—(रेवतः) तुझ ऐश्वर्यवान् का (मदः) परमानन्द भी (गो-दाः) वेद वाणी का ज्ञान करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। शेषाः पूर्वोक्ताः। षोडशचं सूक्तम्॥
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