अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 60/ मन्त्र 3
मो षु ब्र॒ह्मेव॑ तन्द्र॒युर्भुवो॑ वाजानां पते। मत्स्वा॑ सु॒तस्य॒ गोम॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठमो इति॑ । सु । ब्र॒ह्माऽइ॑व । त॒न्द्र॒यु: । भुव॑: । वा॒जा॒ना॒म् । प॒ते॒ ॥ मत्स्व॑ । सु॒तस्य॑ । गोऽम॑त: ॥६०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षु ब्रह्मेव तन्द्रयुर्भुवो वाजानां पते। मत्स्वा सुतस्य गोमतः ॥
स्वर रहित पद पाठमो इति । सु । ब्रह्माऽइव । तन्द्रयु: । भुव: । वाजानाम् । पते ॥ मत्स्व । सुतस्य । गोऽमत: ॥६०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 60; मन्त्र » 3
विषय - ईश्वर और राजा का वर्णन
भावार्थ -
हे राजन् ! हे प्रभो ! (ब्रह्मा इव) यज्ञ में ब्रह्मा के समान और निष्ठा में ब्रह्मज्ञानी के समान हे (वाजानां पते) ऐश्वर्यों के स्वामिन्! तू (तन्द्रयुः) आलस्य युक्त (मा उ सु भुवः) कभी मत हो। (गोमतः सुतस्य) गौ आदि पशुओं से सम्पन्न ऐश्वर्य के द्वारा स्वयं (मत्स्व) तृप्त हो। अध्यात्म में—(गोमतः सुतस्य मत्स्व) इन्द्रियों के सासामर्थ्यों सहित उनसे उत्पन्न भीतरी आनन्द और ज्ञानरस से तू तृप्त हो। परमेश्वर पक्ष में—सूर्यादि लोकों सहित उत्पन्न संसार के बीच तू (मत्स्व) स्वयं पूर्णानन्द रूप हो और औरों को भी तृप्त कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः। ४-६ मधुच्छन्दा ऋषिः। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥
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