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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 60

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६०

    ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । हि । अ॒स्य॒ । सू॒नृता॑ । वि॒ऽर॒प्शी । गोऽम॑ती । म॒ही ॥ प॒क्वा । शाखा॑ । न । दा॒शुषे॑ ॥६०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । हि । अस्य । सूनृता । विऽरप्शी । गोऽमती । मही ॥ पक्वा । शाखा । न । दाशुषे ॥६०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 60; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (पक्वा शाखा न) पकी हुई शाखा जिस प्रकार मनुष्य को फूल फल देती और बैठने वाले को भली प्रकार आश्रय देती है उसी प्रकार (अस्य) इस इन्द्र ज्ञानवान् आचार्य के समान साक्षात् आत्मा के द्रष्टा, एवं सर्व जगत् के द्रष्टा परमेश्वर की (सूनृता) शुभ सत्य ज्ञान पूर्ण वाणी और उसके समान ही (सूनृता) उत्तम अन्न से परिपूर्ण (गोमती) पशु आदि से समृद्ध (मही) यही पृथ्वी, (विरप्शी) विविध पदार्थों को देने वाली (एव) ही होती है। ज्ञानवाणी ही (दाशुषे) परमेश्वर को आत्म समर्पण करने वाले अभ्यासी के लिये (पक्वा शाखा न) परिपक्व, पुनः पुनः अभ्यस्त शाखा वेद शाखा के समान ज्ञानप्रद और (शाखा = खे शेते) आश्रय वृक्ष के समान स्व अन्तराकाश में रमने वाली होती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः। ४-६ मधुच्छन्दा ऋषिः। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥

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