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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 61

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 61/ मन्त्र 6
    सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६१

    स रा॑जसि पुरुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे। इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रवस्या च॒ यन्त॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । रा॒ज॒सि॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । एक॑: । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒से॒ ॥ इन्द्र॑ । जैत्रा॑ । श्र॒व॒स्या॑ । च॒ । यन्त॑वे ॥६१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स राजसि पुरुष्टुतँ एको वृत्राणि जिघ्नसे। इन्द्र जैत्रा श्रवस्या च यन्तवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । राजसि । पुरुऽस्तुत । एक: । वृत्राणि । जिघ्नसे ॥ इन्द्र । जैत्रा । श्रवस्या । च । यन्तवे ॥६१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 61; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    (द्विबर्हसः) दो महान् शक्तियों वाले (यस्य) जिसका (बृहत् सहः) बड़ा भारी बल (वृषत्वना) अपने वर्षण सामर्थ्य से (रोदसी) द्यौ और पृथिवी (गिरीन् अज्रान्) वेगवान् मेघों और पर्वतों को (अपः स्वः) जलों समुद्र और आकाश को भी (दाधार) धारण करता है। (सः) वह तू (पुरुष्टुतः) बहुतसी प्रजाओं द्वारा स्तुति करने योग्य (एकः) अकेला ही (वृत्राणि) समस्त विघ्नों को (जिघ्नसे) विनाश करता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! तू ही (जैत्रा श्रवस्या) विजयशील यश-कीर्त्ति जनक ऐश्वर्यों को (यन्तवे) प्रदान करने में समर्थ है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोसूक्तयश्वसूक्तिनावृषी। इन्द्रो देवता। उष्णिहः। षडृचं सूक्तम्।

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