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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 74

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 74/ मन्त्र 3
    सूक्त - शुनःशेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-७४

    नि ष्वा॑पया मिथू॒दृशा॑ स॒स्तामबु॑ध्यमाने। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । स्वा॒प॒य॒ । मि॒थु॒ऽदृशा॑ । स॒स्ताम् । अबु॑ध्यमाने॒ । इति॑ । आ । तु । न॒: । इ॒न्द्र॒ । शं॒स॒य॒ । गोषु॑ । अश्वे॑षु । शु॒भ्रिषु॑ । स॒हस्रे॑षु । तु॒वि॒ऽम॒घ॒ ॥७४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि ष्वापया मिथूदृशा सस्तामबुध्यमाने। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । स्वापय । मिथुऽदृशा । सस्ताम् । अबुध्यमाने । इति । आ । तु । न: । इन्द्र । शंसय । गोषु । अश्वेषु । शुभ्रिषु । सहस्रेषु । तुविऽमघ ॥७४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 74; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (इन्द्र) अविद्या निद्रादि दोषनिवारक ! तू (मिथूदृशा) विषयासक्ति से एक दूसरे को देखने वाले स्त्री पुरुषों को (निःस्वापय) सर्वथा अचेत कर दे। और वे दोनों (अवुध्यमाने) ज्ञानहीन होकर (सस्ताम्) सो जायं। अर्थात् इससे विपरीत विषयासक्ति से रहित तपस्वी व्रती पुरुषों को प्रबुद्ध कर और वे ज्ञानवान् होकर जागते रहें। (आ तू न० इत्यादि) पूर्ववत्। राजा के पक्ष में—हे राजन् ! (मिथूदृशा) परस्पर मिथुन या स्त्री पुरुषों के जोड़े होकर दीखने वाले गृहस्थ पति पत्नियों को रात्रिकाल में सुख से सोने दे। और ये (अबुध्यमाने) अचेत होकर (सस्ताम्) सुख से सोवें और तू रात्रिकाल में उनका पहरा दे, रक्षा कर। (आ तू न० इत्यादि) पूर्ववत्॥ अर्थात् तेरे राज्य में सब गृहस्थ सुख से जीवन बितावें। अथवा—(मिथूदृशौ) परस्पर हिंसा की दृष्टि से देखने वाले विरोधी लोगों को (निःस्वापय) सुलादे। वे लड़कर (अबुध्यमाने सस्ताम्) अचेत होकर सोएं, मरे पड़े रहें। और परस्पर प्रेम से रहने वाले जागृत रहें और ऐश्वर्य को प्राप्त करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुनःशेप ऋषिः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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