अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 74/ मन्त्र 1
यच्चि॒द्धि स॑त्य सोमपा अनाश॒स्ता इ॑व॒ स्मसि॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । चि॒त् । हि । स॒त्य॒ । सो॒म॒ऽपा॒: । अ॒ना॒श॒स्ता:ऽइ॑व । स्मसि॑ ॥ आ । तु । न॒: । इ॒न्द्र॒ । शं॒स॒य॒ । गोषु॑ । अश्वे॑षु । शु॒भ्रिषु॑ । स॒हस्रे॑षु । तु॒वि॒ऽम॒घ॒ ॥७४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्चिद्धि सत्य सोमपा अनाशस्ता इव स्मसि। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । चित् । हि । सत्य । सोमऽपा: । अनाशस्ता:ऽइव । स्मसि ॥ आ । तु । न: । इन्द्र । शंसय । गोषु । अश्वेषु । शुभ्रिषु । सहस्रेषु । तुविऽमघ ॥७४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 74; मन्त्र » 1
विषय - राष्ट्र रक्षक राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे (सत्य) सत्यस्वरूप ! अविनाशिन् ! सज्जनों के प्रति सद्व्यवहार करने हारे ! एवं सत्यवादिन् ! हे (सोमपाः) समस्त उत्पन्न संसार के रक्षक परमेश्वर ! (यत् चित् हि) जिन जिन अवसरों में भी और जिन जिन कार्यों में भी हम (अनाशस्ताः इव स्मसि) उत्तम, गुण सामर्थ्यवान् एवं प्रशंसा के योग्य न हों, हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर ! हे (तुवीमघ) बहुत बड़े ऐश्वर्य वाले ! (नः) हमें उन उन (गोषु अश्वेषु) गो आदि पशु और अश्व आदि सेना के साधनों में और (सहस्त्रेषु) हज़ारों (शुभ्रिषु) शोभाजनक धनैश्वर्यों में भी उनका प्रदान करके (आशंसय) उत्तम प्रशंसा योग्य बना।
राजा के पक्ष में—हे राजन् ! जिन पदार्थों में हम प्रजाजन उत्तम न हो। उन उन गौ आदि ऐश्वर्यों में हमें उत्तम बना।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुनःशेप ऋषिः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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