अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 89/ मन्त्र 9
उ॒त प्र॒हामति॑दीवा जयति कृ॒तमि॑व श्व॒घ्नी वि चि॑नोति का॒ले। यो दे॒वका॑मो॒ न धनं॑ रु॒णद्धि॒ समित्तं रा॒यः सृ॑जति स्व॒धाभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । प्र॒ऽहाम् । अति॑ऽदीवा । ज॒य॒ति॒ । कृ॒तम्ऽइ॑व । श्व॒घ्नी । वि । चि॒नो॒ति॒ । का॒ले ॥ य: । दे॒वऽका॑म: । न । धन॑म् । रु॒णध्दि॑ । सम् । इत् । तम् । रा॒य: । सृ॒ज॒ति॒ । स्व॒धाभि॑: ॥८९.९॥
स्वर रहित मन्त्र
उत प्रहामतिदीवा जयति कृतमिव श्वघ्नी वि चिनोति काले। यो देवकामो न धनं रुणद्धि समित्तं रायः सृजति स्वधाभिः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । प्रऽहाम् । अतिऽदीवा । जयति । कृतम्ऽइव । श्वघ्नी । वि । चिनोति । काले ॥ य: । देवऽकाम: । न । धनम् । रुणध्दि । सम् । इत् । तम् । राय: । सृजति । स्वधाभि: ॥८९.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 9
विषय - राजा परमेश्वर।
भावार्थ -
(उत) और (अतिदीवा) अति द्यूत का व्यसनी (श्वघ्नी) जूआखोर (काले) मौके पर जिस प्रकार (कृतम् इव) ‘कृत’ नाम अक्ष को (विचिनोति) विशेष रूप से संग्रह कर रखता है। और (प्रहाम्) अपने पासे पर आघात करने वाले अक्ष को जयाति जीत लेता है, उसी प्रकार (इन्द्रः) यह आत्मा भी (अतिदीवा) अति देदीप्त होकर (श्वघ्नी) कुते के समान विषय तृष्णालु इन्द्रिय और मन को मारकर उनको वश करके (काले) यथावसर (कृतम्) अपने किये कर्मफल और सदाचार को (विचिनोति) विशेषरूप से संग्रह कर लेता है और (प्रहाम्) विघ्नकारी उपद्रव को (जयति) विजय कर लेता है। (यः) जो पुरुष (देवकामः) देवों विद्वानों की कामना करता हुआ उनके निमित्त (धन) धन को (न रुणद्धि) नहीं रोकता (तं) उसको (इत्) ही वह (स्वधाभिः) अन्नों सहित (रायः) ऐश्वर्य (संसृजति) प्रदान करता है। का० ६। ५० ६७॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कृष्णा ऋषिः। इन्दो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
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