अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 2
सु॒ष्ठामा॒ रथः॑ सु॒यमा॒ हरी॑ ते मि॒म्यक्ष॒ वज्रो॒ नृप॑ते॒ गभ॑स्तौ। शीभं॑ राजन्सु॒पथा या॑ह्य॒र्वाङ्वर्धा॑म ते प॒पुषो॒ वृष्ण्या॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽस्थामा॑ । रथ॑: । सु॒ऽयमा॑ । हरी॒ इति॑ । ते॒ । मि॒म्यक्ष॑ । वज्र॑: । नृ॒ऽप॒ते॒ । गभ॑स्तौ ॥ शीभ॑म् । रा॒ज॒न् । सु॒ऽपथा॑ । आ । या॒हि॒ । अ॒वाङ् । वर्धा॑म । ते॒ । प॒पुष॑: । वृष्ण्या॑नि ॥९४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुष्ठामा रथः सुयमा हरी ते मिम्यक्ष वज्रो नृपते गभस्तौ। शीभं राजन्सुपथा याह्यर्वाङ्वर्धाम ते पपुषो वृष्ण्यानि ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽस्थामा । रथ: । सुऽयमा । हरी इति । ते । मिम्यक्ष । वज्र: । नृऽपते । गभस्तौ ॥ शीभम् । राजन् । सुऽपथा । आ । याहि । अवाङ् । वर्धाम । ते । पपुष: । वृष्ण्यानि ॥९४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 2
विषय - राजा, आत्मा और परमेश्वर।
भावार्थ -
हे (नृपते) राजन् ! आत्मन् ! (ते रथः) तेरा रथ (सुष्ठामा) उत्तम रीति से युद्ध में स्थिर रहने वाला हो। (ते हरी सुपथा) तेरे घोड़े उत्तम रीति से नियम में रहने वाले हों (ते गभस्तौ) तेरे हाथ में (वज्रः) वज्र, खड्ग (मिम्यक्ष) वर्तमान रहे। तू (सुपथा) उत्तम मार्ग से (शीभम्) शीघ्र वेग से (अर्वाङ् याहि) सम्मुख, आगे प्रयाण कर (पपुषः) राष्ट्र के नित्य पालन करने वाले (ते) तेरे (वृष्णयानि) बलों को हम (वर्धाम) बढ़ावें।
अध्यात्म में—हे आत्मन् ! तेरा देहरूप रथ सदा सुख से स्थिर रहे। तेरे प्राण उदान रूप घोड़े उत्तम रूप से नियम में रहें (गभस्तौ) हाथ में सदा ज्ञानरूप वज्र रहे। तू उत्तम मार्ग से आगे बढ़। पालनकारी एवं आनन्दरस के पान करने वाले तेरे बलों को हम बढ़ावें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आंगिरसः कृष्ण ऋषिः। १-३, १०, ११ त्रिष्टुभः। ४-९ जगत्यः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
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