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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 94

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 4
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-९४

    ए॒वा पतिं॑ द्रोण॒साचं॒ सचे॑तसमू॒र्ज स्क॒म्भं ध॒रुण॒ आ वृ॑षायसे। ओजः॑ कृष्व॒ सं गृ॑भाय॒ त्वे अप्यसो॒ यथा॑ केनि॒पाना॑मि॒नो वृ॒धे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । पति॑म् । द्रो॒ण॒ऽसाच॑म् । सऽचे॑तसम् । ऊ॒र्ज: । स्क॒म्भम् । ध॒रुणे॑ । आ । वृ॒ष॒ऽय॒से॒ ॥ ओज॑: । कृ॒ष्व॒ । सम् । गृ॒भा॒य॒ । त्वे इति॑ । अपि॑ । अस॑: । यथा॑ । के॒ऽनि॒पाना॑म् । इ॒न: । वृ॒धे ॥९४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा पतिं द्रोणसाचं सचेतसमूर्ज स्कम्भं धरुण आ वृषायसे। ओजः कृष्व सं गृभाय त्वे अप्यसो यथा केनिपानामिनो वृधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । पतिम् । द्रोणऽसाचम् । सऽचेतसम् । ऊर्ज: । स्कम्भम् । धरुणे । आ । वृषऽयसे ॥ ओज: । कृष्व । सम् । गृभाय । त्वे इति । अपि । अस: । यथा । केऽनिपानाम् । इन: । वृधे ॥९४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे राजन् ! (एवा) इस प्रकार से तू ही (पतिम्) अपने पालक (द्रोणसाचम्) राष्ट्र में विद्यमान (सचेतसम्) ज्ञानवान् (ऊर्ज स्कम्भम्) बलों के स्तम्भन करने वाले पुरुषों या प्रजाजन को अपने (धरुणे) धारण पोषण करने वाले सामर्थ्य या शासन में (आ वृषायसे) सर्वत्र पुष्ट करता है। तू (ओजः) बल, पराक्रम (कृष्व) सम्पादन कर। (त्वे) अपने में ही तू (संग्रभाय) राष्ट्र के समस्त कार्यों को संग्रह कर यथा जिससे तू (केनिपानाम्) बड़े बड़े विद्वान् ज्ञानी पुरुषों की (वृधे) वृद्धि के लिये (इनः असः) उनका राजा बनकर रह। अध्यात्म में—(द्रोणसाचं) देह रूप घर में व्यापक (सचेतसम्) चेतनावान् (ऊर्जस्कम्भम्) बलके धारक (पतिम्) पालक प्राण को हे आत्मन् ! तू (धरुणे) अपने शासन में धारक प्रयत्न में (आवृषायसे) रखता है। तू (ओजः कृष्व) बल सम्पादन कर (त्वे सं गृभाय) अपने में संचित कर (यथा) जिससे (केनिपानाम्) सुखमय आत्मा के परम रस को पान करने वाले अथवा सुखमय परब्रह्म तक पहुंचने वाले अध्यात्म ज्ञानियों को भी (इनः असः) स्वामी है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आंगिरसः कृष्ण ऋषिः। १-३, १०, ११ त्रिष्टुभः। ४-९ जगत्यः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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