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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 94

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 7
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-९४

    ए॒वैवापा॒गप॑रे सन्तु दू॒ढ्योश्वा॒ येषां॑ दु॒र्युज॑ आयुयु॒ज्रे। इ॒त्था ये प्रागुप॑रे सन्ति दा॒वने॑ पु॒रूणि॒ यत्र॑ व॒युना॑नि॒ भोज॑ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । ए॒व । अपा॑क् । अप॑रे । स॒न्तु॒ । दु॒:ऽध्य॑: । अश्वा॑: । येषा॑म् । दु॒:ऽयुज॑: । आ॒ऽयु॒यु॒जे ॥ इ॒त्था । ये । प्राक् । उप॑रे । ‍सन्ति॑ । दा॒वने॑ । पु॒रूणि॑ । यत्र॑ । व॒युना॑नि । भोज॑ना ॥९४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवैवापागपरे सन्तु दूढ्योश्वा येषां दुर्युज आयुयुज्रे। इत्था ये प्रागुपरे सन्ति दावने पुरूणि यत्र वयुनानि भोजना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । एव । अपाक् । अपरे । सन्तु । दु:ऽध्य: । अश्वा: । येषाम् । दु:ऽयुज: । आऽयुयुजे ॥ इत्था । ये । प्राक् । उपरे । ‍सन्ति । दावने । पुरूणि । यत्र । वयुनानि । भोजना ॥९४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    (एव-एव) इसी प्रकार (अपरे) दूसरे लोग (येषां) जिनके (दुर्युजः) कष्ट से योग मार्ग में एकाग्र होने वाले, अवश, दुर्दान्त (अश्वाः) अश्वों के समान अजित इन्द्रिय (आ युयुज्रे) इधर उधर के विषयों में लग जाते हैं वे (दूढ्यः सन्तु) दुष्ट बुद्धि वाले हो जाते हैं। (इत्था) इस प्रकार (ये) जो (उपरे) उत्कृष्ट मार्ग में (प्राक्) उत्तम दिशा में (दावने) सर्व दुःखनाशक और समस्त सुखदायक परमेश्वर के निमित्त (सन्ति) हो जाते हैं (यत्र) जहां (पुरुणि) बहुत से (वयुनानि) ज्ञान और बहुत से (भोजना) नाना भोग्यफल प्राप्त होते हैं, वे कृतकृत्य होते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आंगिरसः कृष्ण ऋषिः। १-३, १०, ११ त्रिष्टुभः। ४-९ जगत्यः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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