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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 95

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
    सूक्त - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - अष्टिः सूक्तम् - सूक्त-९५

    त्रिक॑द्रुकेषु महि॒षो यवा॑शिरं तुवि॒शुष्म॑स्तृ॒पत्सोम॑मपिब॒द्विष्णु॑ना सु॒तं य॒थाव॑शत्। स ईं॑ ममाद॒ महि॒ कर्म॒ कर्त॑वे म॒हामु॒रुं सैनं॑ सश्चद्दे॒वो दे॒वं स॒त्यमिन्द्रं॑ स॒त्य इन्दुः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिऽक॑द्रुकेषु । म॒हि॒ष: । यव॑ऽआशिरम् । तु॒वि॒ऽशुष्म॑: । तृ॒षत् । सोम॑म् । अ॒पि॒ब॒त् । विष्णु॑ना । सु॒तम् । यथा॑ । अव॑शत् ॥ स: । ई॒म् । म॒मा॒द॒ । महि॑ । कर्म॑ । कर्त॑वे । म॒हाम् । उ॒रुम् । स: । ए॒न॒म् । स॒श्च॒त् । दे॒व: । दे॒वम् । स॒त्यम् । इन्द्र॑म् । स॒त्य: । इन्दु॑: ॥९५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिकद्रुकेषु महिषो यवाशिरं तुविशुष्मस्तृपत्सोममपिबद्विष्णुना सुतं यथावशत्। स ईं ममाद महि कर्म कर्तवे महामुरुं सैनं सश्चद्देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिऽकद्रुकेषु । महिष: । यवऽआशिरम् । तुविऽशुष्म: । तृषत् । सोमम् । अपिबत् । विष्णुना । सुतम् । यथा । अवशत् ॥ स: । ईम् । ममाद । महि । कर्म । कर्तवे । महाम् । उरुम् । स: । एनम् । सश्चत् । देव: । देवम् । सत्यम् । इन्द्रम् । सत्य: । इन्दु: ॥९५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 95; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (महिषः) महान् (तुविशुष्मः) बड़ा बलवान् परमेश्वर (त्रिकद्रुकेषु) तीनों लोकों में (यवाशिरम्) मिलाने और विभाग करने अर्थात् संयोग और विभाग दोनों से मिश्रित (सोमम्) इस संसार के प्रेरक बल को स्वयं (तृपत्) तृप्त, पूर्ण होकर भी (विष्णुना) अपने व्यापक बल से ऐसे (अपिबत्) पान करता है, उसे ऐसे अपने वश करता है (यथा) जिससे (सुतम्) उत्पन्न हुए संसार को वह (अवशत्) अपने वश किये रहता है। वह महान् प्रेरक बल ही उस (महाम् उरुम् ईम्) महान् विस्तीर्ण, तेज पराक्रम वाले परमेश्वर को (महि कर्म कर्तवे) बड़े बड़े कर्म करने के लिये (ममाद) पूर्ण समर्थ बना रहा है। (सः) वह (देवः) देव, तेजोमय (सत्यः) सत्यमय, बलस्वरूप (इन्दुः) परम ऐश्वर्य रूप होकर (सत्यम्) सत्यरूप (इन्द्रम्) उस ऐश्वर्यवान् (देवम्) परम प्रकाशक, सर्वप्रद परमेश्वर को (सश्चत्) प्राप्त होता है। अध्यात्म में—(महिषः) महान् (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् आत्मा (तृपत्) आनन्द रस से तृप्त होकर (विष्णुना) व्यापक परमेश्वर के संग से (सुतं सोमम् अपिबत्) प्राप्त सोम, ब्रह्मानन्द रस का पान करता है। (सः) वह ब्रह्मरस (महाम् ऊरुम्) उस महान् विस्तृत तेजस्वी, (ईम्) इस योगी पुरुष को (महि कर्म कर्त्तवे ममाद) महान् महान् कर्म करने के लिये भी समर्थ करता है। (सः देवः सत्यः इन्दुः) वह तेजस्वी सत्यस्वरूप ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (देवं सत्यम् इन्द्रं सश्चत्) प्रकाशमान ऐश्वर्यवान् आत्मा को ही प्राप्त होता है। राजा के पक्ष में—(त्रिकद्रुकेषु) तीनों लोकों में (महिषः तुविशुष्मः) सर्वश्रेष्ठ, बड़ा बलवान् राजा (विष्णुना) अपने व्यापक बल सामर्थ्य से (यवाशिरं) शत्रुनाशक सेनापतियों पर आश्रित, उन द्वारा (सुतम्) पीड़ित या ऐश्वर्यजनक (सोमम्) राष्ट्र को (अपिबत्) भोग करता है। वह राष्ट्ररूप ऐश्वर्य (महाम् ऊरुम्) उस महान् विस्तृत बल वाले राजा को (महि कर्म कर्त्तवे ममाद) बड़े बड़े कार्य करने के लिये प्रेरित करता है (सत्यः देवः इन्दुः सः) सत्य न्याय के बलवाला, करप्रद ऐश्वर्ययुक्त वह राष्ट्र (सत्यं देवं इन्द्रं) सत्यकर्मा, न्यायी, विजयी, ऐश्वर्यवान् राजा को (सश्चत्) प्राप्त होता हैं। अनुक्रमणी के अनुसार नीचे लिखे दो मन्त्र और समझने चाहियें। ‘अध त्विषीमान्०’ और ‘साकं जातः०’॥ जिनका मूल पाठ इस प्रकार है। १- अध॒ त्विषी॑माँ अ॒भ्योज॑सा॒ क्रिविं॑ यु॒धाभ॑व॒दा रोद॑सी अपृणदस्य म॒ज्मना॒ प्र वा॑वृधे। अध॑त्ता॒न्यं ज॒ठरे॒ प्रेम॑रिच्यत॒ सैनं॑ सश्चद्दे॒वो दे॒वं स॒त्यमिन्द्रं॑ स॒त्य इन्दुः॑॥ ऋ० २। २२। २॥ २- सा॒कं जा॒तः क्रतु॑ना सा॒कमोज॑सा ववक्षिथ सा॒कं वृ॒द्धो वी॒र्यैः॑ सास॒हिर्मृधो॒ विच॑र्षणिः। दाता॒ राधः॑ स्तुव॒ते काम्यं॒ वसु॒ सैनं॑ सश्चद्दे॒वो दे॒वं स॒त्यमिन्द्रं॑ स॒त्य इन्दुः॑॥ ऋ० २। २२। ३॥ भा०- (१) (अध त्विषीमान् ओजसा युधा क्रिविम् अभि अभवत्) और वह कान्तिमान् इन्द्र अपने पराक्रम और प्रहारशील युद्ध द्वारा अपने सैन्य और प्रजा के नाश करने वाले शत्रु को दबाता है। और वह (रोदसी आ अपृणत्) द्यौलोक और पृथिवी लोक, राजसभा और प्रजाजन दोनों को अपने बल से पूर्ण करता है (अस्य मज्मना सः प्र वावृधे) इस राष्ट्र के बल से वह और अधिक बढ़ता है। और वह राष्ट्र के दो भाग करके (अन्यं) एक भाग को (जठरे) अपने वश में (अधत्त) करता है। और (ईम्) इस दूसरे भाग को (प्र अरिच्यत) अन्य राजाओं को प्रदान करता है। (सैनं० इत्यादि) पूर्ववत्॥ (२) हे इन्द्र ! राजन् ! तू (ऋतुना साकंजातः) कर्म और प्रज्ञा सामर्थ्य से युक्त होकर (ओजस्य साकम्) बल पराक्रम के साथ और (वीर्यैः साकं वृद्धः) वीर्यो, सामर्थ्यों से वृद्धि को प्राप्त होकर (वि चर्षणिः) सब का दृष्टा राजा, (मृधः सासहिः) संग्रामकारियों का विजेता होकर (स्तुवते काम्यं वसु राधः च दाता) स्तुति करने वालों को धन ऐश्वर्य प्रदान करता है (सश्चत् इत्यादि) पूर्ववत्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ गृत्समद ऋषिः। २-४ सुदाः पैजवनः। १ अष्टिः। ३-४ शकृर्यः। इन्द्रो देवता। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥ इंदं सूक्तं षडृचमनुक्रमणिकायां पट्यते। तत्र आद्यानां तिसृणां गृत्समद ऋषिः अन्त्यानां तिसृणां सुदाः पैजवन ऋषिः। उपलब्धसंहितासु चतुर्ऋचमिदं सूक्तमुपलभ्यते। अनुक्रमणिकायां ‘अधत्विषीमान०’ ‘साकं जातः०’ इति ऋग्द्वयं (ऋ० २। २२। २, ३) अधिकं पठ्यते, तच्च समीचीनमेव। त्रिकद्रुकेष्विति तृचस्य सामवेदेपि तथैवोपलम्भात्। ऋग्द्वयस्यानुपलम्भः प्रमादात् शाखाभेदाद्वा विज्ञेयः॥

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