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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 95

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
    सूक्त - सुदाः पैजवनः देवता - इन्द्रः छन्दः - शक्वरी सूक्तम् - सूक्त-९५

    प्रो ष्व॑स्मै पुरोर॒थमिन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चत। अ॒भीके॑ चिदु लोक॒कृत्सं॒गे स॒मत्सु॑ वृत्र॒हास्माकं॑ बोधि चोदि॒ता नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रो इति॑ । सु । अ॒स्मै॒ । पु॒र॒:ऽर॒थम् । इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒र्च॒त॒ ॥ अ॒भीके॑ । चि॒त् । ऊं॒ इति॑ । लो॒क॒ऽकृत् । स॒म्ऽगे । स॒मत्ऽसु॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒स्माक॑म् । बो॒धि॒ । चो॒दि॒ता । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒का: । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥९५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रो ष्वस्मै पुरोरथमिन्द्राय शूषमर्चत। अभीके चिदु लोककृत्संगे समत्सु वृत्रहास्माकं बोधि चोदिता नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रो इति । सु । अस्मै । पुर:ऽरथम् । इन्द्राय । शूषम् । अर्चत ॥ अभीके । चित् । ऊं इति । लोकऽकृत् । सम्ऽगे । समत्ऽसु । वृत्रऽहा । अस्माकम् । बोधि । चोदिता । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याका: । अधि । धन्वऽसु ॥९५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 95; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (अस्मै) इस (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् राजा को (पुरोरथम्) रथ के आगे वर्त्तमान (शूषम्) बल की (प्रो अर्चत) स्तुति करो। (अभीके) भय रहित (संगे) परस्पर के मेल मिलाप में (लोककृत्) समस्त लोकों का उपकार करने वाला, और (समत्सु वृत्रहा) संग्रामों के अवसरों में शत्रुओं का नाश करने वाला होकर (अस्माकं चोदिता) हमें न्यायपथ में लेजानेहारा, हमारा हित (बोधि) जानता है। (अन्यकेषां) क्षुद्र अन्य शत्रुओं के (धन्वसु अधि) धनुषों पर (ज्याकाः) डोरियें (नभन्ताम्) टूट जायें। अध्यात्म में—(पुरोरथम् इन्द्राय शूषम् अर्चतः) रसदर्शन के समक्ष इन्द्र, आत्मा के बल का वर्णन करो। वह (अभीके संगे) साक्षात् संग लाभ होने पर ही (चित्) मानो (लोक कृत्) अपने दर्शन कराता है या आश्रय प्रदान करता है। (समत्सु) परम आनन्द के अवसरों पर (वृत्रहा) आवरक अज्ञानों का नाशक है। वही (चोदिता) इन्द्रियगण का चालक होकर (बोधि) परम ज्ञान प्राप्त करता है। (अन्यकेषां अधि धन्वसु) अन्य क्षुद्र शत्रुओं के धनुषों की (ज्याकाः) डोरियां भी (नभन्ताम्) टूट जाती हैं अर्थात् आत्मिक बल के समक्ष शत्रुओं के हथियार निकम्मे होजाते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ गृत्समद ऋषिः। २-४ सुदाः पैजवनः। १ अष्टिः। ३-४ शकृर्यः। इन्द्रो देवता। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥ इंदं सूक्तं षडृचमनुक्रमणिकायां पट्यते। तत्र आद्यानां तिसृणां गृत्समद ऋषिः अन्त्यानां तिसृणां सुदाः पैजवन ऋषिः। उपलब्धसंहितासु चतुर्ऋचमिदं सूक्तमुपलभ्यते। अनुक्रमणिकायां ‘अधत्विषीमान०’ ‘साकं जातः०’ इति ऋग्द्वयं (ऋ० २। २२। २, ३) अधिकं पठ्यते, तच्च समीचीनमेव। त्रिकद्रुकेष्विति तृचस्य सामवेदेपि तथैवोपलम्भात्। ऋग्द्वयस्यानुपलम्भः प्रमादात् शाखाभेदाद्वा विज्ञेयः॥

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