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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 53

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 53/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    आयु॒र्यत्ते॒ अति॑हितं परा॒चैर॑पा॒नः प्रा॒णः पुन॒रा तावि॑ताम्। अ॒ग्निष्टदाहा॒र्निरृ॑तेरु॒पस्था॒त्तदा॒त्मनि॒ पुन॒रा वे॑शयामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आयु॑: । यत् । ते॒ । अत‍ि॑ऽहितम् । प॒रा॒चै: । अ॒पा॒न: । प्रा॒ण: । पुन॑: । आ । तौ । इ॒ता॒म् । अ॒ग्नि: । तत् । आ । अ॒हा॒: । नि:ऽऋ॑ते : । उ॒पऽस्था॑त् । तत् । आ॒त्मनि॑ । पुन॑: । आ । वे॒श॒या॒मि॒ । ते॒ ॥५५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुर्यत्ते अतिहितं पराचैरपानः प्राणः पुनरा ताविताम्। अग्निष्टदाहार्निरृतेरुपस्थात्तदात्मनि पुनरा वेशयामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आयु: । यत् । ते । अत‍िऽहितम् । पराचै: । अपान: । प्राण: । पुन: । आ । तौ । इताम् । अग्नि: । तत् । आ । अहा: । नि:ऽऋते : । उपऽस्थात् । तत् । आत्मनि । पुन: । आ । वेशयामि । ते ॥५५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 53; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे बालक ! (ते) तेरा (यत्) यदि (आयुः) जीवनकाल (पचैः) दूर भी (अति-हितं) कर दिया हो तो भी (प्राणः अपानः) प्राण और अपान (तौ) दोनों (पुनः) फिर भी (आइताम्) इस देह में आजावें। (अग्निः) मुख्य प्राण-रूप जीवन की अग्नि ही (निर्ऋतेः) अति कष्टमय मृत्यु के (उप-स्थात्) समीप से (तत्) उस आयु को (पुनः) फिर (आहाः) ले आता है। (तत्) उस आयु को (ते) तेरे (आत्मनि) देह में (पुनः) फिर भी (आवेशयामि) प्रवेश करा दूं। यदि शरीर में से प्राण-अपान के रुकजाने से जीवन की आशा दूर भी होजाय तो भी प्राण और अपान, श्वास और उच्छ्वास दोनों की गति ठीक कर देने पर जीवन पुनः अपने को सम्भाल ले सकता है। देह में इस प्रकार योग्य प्राणाचार्य पुनः जीवन प्रवेश करा सकता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। आयुष्यकारिणो बृहस्पतिरश्विनौ यमश्च देवताः। १ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक्। ४ उष्णिग्गर्भा आर्षी पंक्ति:। ५ अनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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