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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 102/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि॒श्वाहेन्द्रो॑ अधिव॒क्ता नो॑ अ॒स्त्वप॑रिह्वृताः सनुयाम॒ वाज॑म्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्वाहा॑ । इन्द्रः॒ । अ॒धि॒ऽव॒क्ता । नः॒ । अ॒स्तु॒ । अप॑रिऽह्वृताः । स॒नु॒या॒म॒ । वाज॑म् । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वाहेन्द्रो अधिवक्ता नो अस्त्वपरिह्वृताः सनुयाम वाजम्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वाहा। इन्द्रः। अधिऽवक्ता। नः। अस्तु। अपरिऽह्वृताः। सनुयाम। वाजम्। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.१०२.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 102; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    अपरिह्वृताः वयं यो विश्वाहेन्द्रो नोऽअस्माकमधिवक्ताऽस्तु तस्मै वाजं सनुयाम येन तन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नोऽस्मान्मामहन्ताम् ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (विश्वाहा) विश्वान्सर्वान् हन्ति सः (इन्द्रः) परमैश्वर्यः सभाध्यक्षः (अधिवक्ता) यथावदनुशासिता (नः) अस्माकम् (अस्तु) भवतु (अपरिह्वृताः) अपरिवर्जिताः (सनुयाम) दद्याम (वाजम्) सुसंस्कृतमन्नम् (तत्) (नः) अस्माकम् (मित्रः०) इति पूर्ववत् ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    सर्वेषां भृत्यानामियं रीतिः स्याद् यदा यादृशीमाज्ञां स्वस्वामी कुर्यात्तदैव साऽनुष्ठातव्या योऽखिलविद्यस्तस्मादेवोपदेशाः श्रोतव्या इति ॥ ११ ॥।अत्र शालाद्यध्यक्षेश्वराध्यापकसेनाधिपतीनां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यम् ॥इति द्व्युत्तरशततमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    (अपरिह्वृताः) आज्ञा को पाये हुए हम लोग जो (विश्वाहा) सब शत्रुओं को मारनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्ययुक्त सभाध्यक्ष (नः) हम लोगों को (अधिवक्ता) यथावत् शिक्षा देनेवाला (अस्तु) हो, उसके लिये (वाजम्) अच्छे संस्कार किये हुए अन्न को (सनुयाम) देवें, जिससे (तत्) उसको (नः) हम लोगों के (मित्रः) मित्रजन (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त (अदितिः) समस्त विद्वान् अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्यलोक (मामहन्ताम्) बढ़ावें ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    सब सेवकों की यह रीति हो कि जब अपना स्वामी जैसी आज्ञा करे उसी समय उसको वैसे ही करें और जो समग्र विद्या पढ़ा हो उसीसे उपदेश सुनने चाहिये ॥ ११ ॥इस सूत्र में शाला आदि के अधिपति ईश्वर पढ़ानेवाले और सेनापति के गुणों के वर्णन से इस सूत्र के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ से एकता है, यह जानना चाहिये ॥ यह १०२ एकसौ दोवाँ सूक्त और १५ पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    वह महान् उपदेष्टा

    पदार्थ

    १००/१९ पर इसकी व्याख्या द्रष्टव्य है । (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वाहा) = सदा (नः) = हमारे (अधिवक्ता) = अधिकारपूर्वक उपदेष्टा (अस्तु) = हों । (अपरिह्वृता) = कुटिलता से रहित हुए हुए हम (वाजम्) = शक्ति को (सनुयाम) = प्राप्त करें । (नः) = हमारे (तत्) = इस संकल्प को (मित्रः वरुणः) = प्रेम , निर्द्वेषता (अदितिः) = स्वास्थ्य (सिन्धुः) = रेतःकण (पृथिवी) = दृढ़ शरीर (उत) = और (द्यौः) = प्रकाशमय मस्तिष्क (मामहन्ताम्) = आदृत करें । | 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें शक्ति प्राप्त हो और हम सरल जीवनवाले हों । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त के आरम्भ में ‘बुद्धि व तेज के भरण’ की प्रार्थना है [१] । समाप्ति पर भी ‘शक्ति व अकौटिल्य’ की याचना है [११] । उत्कृष्ट शक्ति के धारण का ही उपक्रम करते हुए अगले सूक्त में कहते हैं - 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा और सेना पति का वर्णन।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो म० १ । सू० १०० । मन्त्र १९ ॥ इति पञ्चदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ जगती । ३, ५—८ । निचृज्जगती २, ४, ९ स्वराट् त्रिष्टुप् । १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व सेवकांची ही रीत असावी की जेव्हा आपला स्वामी जशी आज्ञा करतो त्यावेळी त्यांनी तसेच करावे व ज्याने संपूर्ण विद्या प्राप्त केलेली आहे, त्याच्याकडूनच उपदेश ऐकावा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May Indra, lord of light and power, universal destroyer, creator and preserver, be our teacher and supreme speaker for all time. And may we, obedient and protected, straight and simple, offer him homage, support and perfect service. We pray, may Mitra and Varuna, sun and shower, Aditi, saints and skies, Sindhu, rolling seas and rippling rivers, the earth and heaven protect and promote this holy programme of ours.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra is taught further in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May Indra (President of the Assembly) who is destroyer of his enemies from all sides, be our instructor for ever. Never forsaken by him and free from crookedness, let us honor him by giving well-cooked food. May friends, noble persons, earth, firmament, river and ocean, light of the sun etc. help us in advancement so that we may become respectable everywhere.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विश्वाहा) विश्वान् सर्वान् हन्ति सः = Destroyer of all enemies. (इन्द्रः) परमैश्वर्य: सभाध्यक्षः = President of the Assembly, possessing much wealth. (अपरिह्वृता:) अपरिवर्जिताः = Not forsaken. सर्वतोऽकुटिला ऋजवः = Free from crookedness. (Rishi Dayananda in his Commentary on Rig. 7.232). (वाजम्) सुसंस्कृतमन्नम् = Well-cooked food.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    This is the way in which all servants should behave. They should obey the commands of their masters. They should hear sermons delivered by highly educated persons knowing various sciences.

    Translator's Notes

    वाज इत्यन्ननाम (निघ० २.७) This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of the head of the educational institution etc. of God, good teacher and commander of the army etc. in that hymn. Here ends the commentary on the One hundred second hymn and fifteenth Verga of the Rigveda.

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