ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 102/ मन्त्र 8
त्रि॒वि॒ष्टि॒धातु॑ प्रति॒मान॒मोज॑सस्ति॒स्रो भूमी॑र्नृपते॒ त्रीणि॑ रोच॒ना। अती॒दं विश्वं॒ भुव॑नं ववक्षिथाश॒त्रुरि॑न्द्र ज॒नुषा॑ स॒नाद॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒वि॒ष्टि॒ऽधातु॑ । प्र॒ति॒ऽमानम् । ओज॑सः । ति॒स्रः । भूमीः॑ । नृ॒ऽप॒ते॒ । त्रीणि॑ । रो॒च॒ना । अति॑ । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । व॒व॒क्षि॒थ॒ । अ॒श॒त्रुः । इ॒न्द्र॒ । ज॒नुषा॑ । स॒नात् । अ॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिविष्टिधातु प्रतिमानमोजसस्तिस्रो भूमीर्नृपते त्रीणि रोचना। अतीदं विश्वं भुवनं ववक्षिथाशत्रुरिन्द्र जनुषा सनादसि ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिविष्टिऽधातु। प्रतिऽमानम्। ओजसः। तिस्रः। भूमीः। नृऽपते। त्रीणि। रोचना। अति। इदम्। विश्वम्। भुवनम्। ववक्षिथ। अशत्रुः। इन्द्र। जनुषा। सनात्। असि ॥ १.१०२.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 102; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरः सभापतिश्च कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे नृपत इन्द्र वह्वैश्वर्यवन् अशत्रुस्त्वं त्रिविष्टिधातु प्रतिमानं सनादोजसो जनुषा तिस्रो भूमीस्त्रीणि रोचना निर्वहन्नसि त्रिविष्टिधातु प्रतिमानमिदं विश्वं भुवनमतिववक्षिय तस्मात्सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ८ ॥
पदार्थः
(त्रिविष्टिधातु) त्रिधोत्तममध्यमनिकृष्टा विष्टयो व्याप्तयो धातूनां पृथिव्यादीनां यस्मिँस्तत् (प्रतिमानम्) प्रतिमीयते यत् (ओजसः) बलात् (तिस्रः) त्रिविधाः (भूमीः) अधऊर्ध्वमध्यस्था उत्तमाधममध्यमाः क्षितीः (नृपते) नृणां स्वामिन्नीश्वर नृप वा (त्रीणि) त्रिविधानि (रोचना) रोचनानि विद्याशब्दसूर्य्यादीनि न्यायबलराज्यपालनादीनि च (अति) (इदम्) प्रत्यक्षम् (विश्वम्) समग्रम् (भुवनम्) भवन्ति भूतानि यस्मिञ्जगति तत् (ववक्षिथ) वोढुमिच्छसि। अत्र लडर्थे लिट्। सन्नन्तस्य वहधातोरयं प्रयोगः। बहुलं छन्दसीत्यनेनाभ्यासस्येत्वाभावः। (अशत्रुः) न सन्ति शत्रवो यस्य सः (इन्द्र) वह्वैश्वर्य्ययुक्त (जनुषा) प्रादुर्भूतेन कर्मणा (सनात्) सनातनात् कारणात् (असि) भवसि ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्येनाप्रतिमेश्वरेण कारणात्सर्वं कार्यं जगन्निर्माय संरक्ष्य संह्रियते स एवेष्टो माननीयस्तथा योऽतुलसामर्थ्यो सभाधिपतिः प्रसिद्धैर्न्यायादिगुणैः सर्वं राज्यं संतोषयति स च सत्कर्त्तव्यः ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वर और सभापति कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नृपते) मनुष्यों के स्वामी ईश्वर वा राजन् ! (इन्द्र) बहुत ऐश्वर्य से युक्त (अशत्रुः) शत्रुरहित आप (त्रिविष्टिधातु) जिसमें तीन प्रकार की पृथिवी, जल, तेज, पवन, आकाश की व्याप्ति अर्थात् परिपूर्णता है, उस संसार की (प्रतिमानम्) परिमाण वा उपमान जैसे हो वैसे (सनात्) सनातन कारण वा (ओजसः) बल वा (जनुषा) उत्पन्न किये हुए काम से (तिस्रः) तीन प्रकार (भूमीः) अर्थात् नीचली, ऊपरली, और बीचली उत्तम, अधम और मध्यम भूमि तथा (त्रीणि) तीन प्रकार के (रोचना) प्रकाशयुक्त विद्या, शब्द और सूर्य्य और न्याय करने, बल और राज्यपालन आदि काम के तुम दोनों यथायोग्य निर्वाह करनेवाले (असि) हो और उक्त पञ्चभूतमय (इदम्) इस (विश्वम्) समस्त (भुवनम्) जिसमें कि प्राणी होते हैं उस जगत् के (अति, ववक्षिथ) अतीव निर्वाह करने की इच्छा करते हो, इससे ईश्वर उपासना करने योग्य और विद्वान् आप सत्कार करने योग्य हो ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिसकी उपमा नहीं है, उस ईश्वर ने कारण से सब कार्य्यरूप जगत् को रच और उसकी रक्षाकर उसका संहार किया है, वही इष्टदेव मानने योग्य है तथा जो अतुल सामर्थ्ययुक्त सभापति प्रसिद्ध न्याय आदि गुणों से समस्त राज्य को सन्तोषित करता है, सो भी सदा सत्कार करने योग्य है ॥ ८ ॥
विषय
अ - शत्रु
पदार्थ
१. हे (नृपते) = मनुष्यों के रक्षक प्रभो ! आप (ओजसः) = ओज व शक्ति के (त्रिविष्टधातु) = त्रिगुणित रज्जु के समान दृढ़ (प्रतिमानम्) = प्रतिमान हो । आपकी शक्ति अनुपम है । शक्ति के दृष्टिकोण से आप त्रिगुणित रज्जु के समान दृढ़ हैं ।
२. (आप तिस्त्रः भूमीः) = पृथिवी , अन्तरिक्ष व द्युलोकरूप तीनों भूमियों को [भवन्ति भूतानि यस्याम्] , प्राणियों के निवासस्थानभूत तीनों लोकों को (त्रीणि रोचना) = अग्नि , विद्युत् व सूर्यरूप तीनों ज्योतियों को , वस्तुतः (इदं विश्वं भुवनम्) = इस सारे भुवन को ही (अतिववक्षिथ) = अतिशयेन वहन करने की इच्छा करते हैं । आप अपनी शक्ति से सारे ही ब्रह्माण्ड का धारण कर रहे हैं ।
३. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! आप (सनात्) = सदा से (जनुषा) = स्वभाव से ही (अशत्रुः) = अविनाशी [One who cannot be shattered] (असि) = हैं । प्रभु का कोई भी शत्रु नहीं , प्रभु सभी को प्रेम करनेवाले हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु अनुपम शक्तिवाले हैं; सारे ब्रह्माण्ड का धारण कर रहे हैं । स्वभाव से ही प्रभु अशत्रु हैं ।
विषय
पक्षान्तर में राजा और सेना पति का वर्णन।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! तू ( ओजसः ) बल पराक्रम और तेज का कारण ( त्रिविष्टिधातु ) पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, ब्रह्माण्ड के धारण करनेवाले इन तत्वों के उत्तम, मध्यम, निकृष्ट, स्वल्प, अधिक और सम मात्रा में विचित्र या त्रिगुणमय व्यापन का आश्रय होकर ( प्रतिमानम् ) प्रत्येक पदार्थ के रचनेहारा है। तू ( तिस्रः ) पृथिवी, आकाश और अन्तरिक्ष तीनों को ( अति ववक्षिथ ) उन सबसे बढ़ कर धारण कर रहा है, उनसे भी महान् है । हे ( नृपते ) समस्त जीवों के पालक, तू ( त्रीणि रोचना ) सूर्य, विद्युत् और अग्नि तीनों से ( अति ववक्षिथ ) महान् है। तू ( इदं विश्वं भुवनं ) इस समस्त संसार या ब्रह्माण्ड को ( अति ववक्षिथ ) उससे महान् होकर उसे धारण कर रहा है। हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( जनुषा ) स्वभाव से ( सनात् ) और अनादि काल से (अशत्रुः) शत्रु रहित है, तेरा कोई नाश करनेवाला नहीं तूअविनाशी है । (२) राजा के पक्ष में—तू ( त्रिविष्टिधातु प्रतिमानम् ओजसः ) औरों के बल को नापनेवाला तीन गुणा शक्तिशाली हो । ( तिस्रः भूमीः ) तीनों उत्तम अधम और मध्यम, स्व, पर और उदासीन तीनों की तीनों भूमियों या राष्ट्रों को, ( त्रीणि रोचना ) तीन प्रजा के रुचिकर तेजोवर्धक, न्याय, बल और राज्य शासन, को (अति ववक्षिथ ) सब से बढ़ कर धारण करने में समर्थ हो । ( इदं विश्वं भुवनं अति ववक्षिथ) तू इस समस्त राज्य को धारण कर और (जनुषा सनात् अशत्रुः) स्वभावतः उसी से तू अजातशत्रु होकर रह ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ जगती । ३, ५—८ । निचृज्जगती २, ४, ९ स्वराट् त्रिष्टुप् । १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याला उपमा नाही तो ईश्वर कारणाद्वारे सर्व कार्यजगत निर्माण करून त्याचे रक्षण करून त्याचा संहार करतो. माणसांनी त्यालाच इष्टदेव मानणे योग्य आहे व जो अतुल सामर्थ्ययुक्त सभापती प्रसिद्ध न्याय इत्यादी गुणांनी संपूर्ण राज्याला संतुष्ट करतो, तोही सदैव सत्कार करण्यायोग्य असतो. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, Nrpati, lord of the people and ruler of the world, in you, threefold is the existence of elements such as earth, water, fire, air and space, of the order of matter, motion and mind (sattva, rajas and tamas). You are the measure of omnipotence. Three are the regions of space, heaven, sky and earth. Three are the orders of heat and light, vaishvanara fire in earth, taijasa electric energy in the sky and Aditya light in heaven. O lord, Indra, you transcend this entire universe, and by nature since eternity you are without an enemy, contrariety and contradiction.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is God and the President of the Assembly is taught in the eighth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) In the case of God as Indra : O God Thou art un-rivalled Lord of this world consisting of the earth, the heaven and the middle region. Thou art the Proto-type or the highest standard of Power and strength from all eternity & by Thy great might, Thou art the Upholder of three luminaries i. e. the sun in the heaven, the lightning in mid-air and terrestrial fire on earth. Thou sustainest all this universe. Therefore, Thou art to be adored by us (2) In the case of the king as Indra. O King, thou art endowed with great wealth and art unrivalled. Thou art the Proto-type of strength and protector of men. Thou on account of thy great virtues art un-rivalled and incomparable, shining with justice, strength and good administration.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(त्रिविष्टिधातु) त्रिधोत्तममध्यमनिकृष्टा विष्टयो व्याप्तयो धातूनां पृथिव्यादीनां यस्मिन् तत् ॥ = Pervading the earth, the heaven and the middle region. (सनात्) सनातनात् कारणात् = From eternal cause i. e. the Primordial Matter.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should regard that God as Adorable who is unparalleled and who creates this world out of the Primordial Matter ( as material cause ) sustains and dissolves it. They should regard that President of the Assembly or of the council of Ministers who pleases the people of the State by his justice and other virtues being un-equaled in his strength and -wisdom etc. He should be respected.
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