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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 103/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स जा॒तूभ॑र्मा श्र॒द्दधा॑न॒ ओज॒: पुरो॑ विभि॒न्दन्न॑चर॒द्वि दासी॑:। वि॒द्वान्व॑ज्रि॒न्दस्य॑वे हे॒तिम॒स्यार्यं॒ सहो॑ वर्धया द्यु॒म्नमि॑न्द्र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । जा॒तूऽभ॑र्मा । श्र॒त्ऽदधा॑नः । ओजः॑ । पुरः॒ । वि॒ऽभि॒न्दन् । अ॒च॒र॒त् । वि । दासीः॑ । वि॒द्वान् । व॒ज्रि॒न् । दस्य॑वे । हे॒तिम् । अ॒स्य॒ । आर्यम् । सहः॑ । व॒र्ध॒य॒ । द्यु॒म्नम् । इ॒न्द्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स जातूभर्मा श्रद्दधान ओज: पुरो विभिन्दन्नचरद्वि दासी:। विद्वान्वज्रिन्दस्यवे हेतिमस्यार्यं सहो वर्धया द्युम्नमिन्द्र ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। जातूऽभर्मा। श्रत्ऽदधानः। ओजः। पुरः। विऽभिन्दन्। अचरत्। वि। दासीः। विद्वान्। वज्रिन्। दस्यवे। हेतिम्। अस्य। आर्यम्। सहः। वर्धय। द्युम्नम्। इन्द्र ॥ १.१०३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 103; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सेनाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे वज्रिन्निन्द्र यो जातूभर्मा श्रद्दधानो विद्वान् भवानस्य दुष्टस्य दासीः पुरो दस्यवे विभिन्दन् सन् व्यचरत्स त्वं श्रेष्ठेभ्यो हेतिमार्य्यं सहो द्युम्नमोजश्च वर्धय ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (सः) (जातूभर्मा) यो जातान् जन्तून् बिभर्त्ति सः। अत्र जनीधातोस्तुः प्रत्ययो नकारस्याकारादेशोऽन्येषामपीति दीर्घः। (श्रद्दधानः) सत्कर्मसु प्रीतियुक्तः (ओजः) पराक्रमम् (पुरः) नगरी (विभिन्दन्) विदारयन्सन् (अचरत्) चरति (वि) (दासीः) दासीशीला नगरीः। अत्र दंसेष्टटनौ न आ च। उ० ५। १०। (विद्वान्) (वज्रिन्) प्रशस्तशस्त्रसमूहयुक्त (दस्यवे) दुष्टकर्मकर्त्रे (हेतिम्) सुखवर्धकं वज्रम्। (अस्य) दुष्टस्य (आर्य्यम्) आर्य्याणामर्याणां वा इदम् (सहः) बलम् (वर्धय) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (द्युम्नम्) धनम् (इन्द्र) प्रकृष्टपदार्थप्रद ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    यो मनुष्यो दस्यून्विनाश्य श्रेष्ठान् संहर्ष्य शरीरात्मबलं संपाद्य धनादिभिः सुखानि वर्धयति स एव सर्वैः श्रद्धेयः ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सेना आदि का अध्यक्ष कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वज्रिन्) प्रशंसित शस्त्रसमूहयुक्त (इन्द्र) अच्छे-अच्छे पदार्थों के देनेवाले सेना आदि के स्वामी ! जो (जातूभर्मा) उत्पन्न हुए सांसारिक पदार्थों को धारण (श्रद्दधानः) और अच्छे कामों में प्रीति करनेवाले (विद्वान्) विद्वान् आप (अस्य) इस दुष्ट जन की (दासीः) नष्ट होनेहारीसी दासी प्रधान (पुरः) नगरियों को (दस्यवे) दुष्ट काम करते हुए जन के लिये (विभिन्दन्) विनाश करते हुए (व्यचरत्) विचरते हो (सः) वह आप श्रेष्ठ सज्जनों के लिये (हेतिम्) सुख के बढ़ानेवाले वज्र को (आर्य्यम्) श्रेष्ठ वा अति श्रेष्ठों के इस (सहः) बल (द्युम्न) धन वा (ओजः) और पराक्रम को (वर्धय) बढ़ाया करो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य समस्त डांकू, चोर, लबाड़, लम्पट, लड़ाई करनेवालों का विनाश और श्रेष्ठों को हर्षित कर, शारीरिक और आत्मिक बल का संपादन कर, धन, आदि पदार्थों से सुख को बढ़ाता है, वही सबको श्रद्धा करने योग्य है ॥ ३ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ तेज व ज्योति

    पदार्थ

    १. (सः) = वह परमात्मा (जातूभर्मा) = उत्पन्न हुए प्राणिमात्र का भरण करनेवाले हैं , (श्रद्दधानः) = सत्य का धारण करते हैं और (ओजः) = ओज के पुञ्ज हैं । इस ओजस्विता के द्वारा ही (दासीः पुरः) =दस्युओं की पुरियों को (विभिन्दन्) = विदीर्ण करते हुए (वि अचरत्) = विचरण करते हैं । काम , क्रोध लोभादि ही यहाँ शरीर में दस्यु हैं । ये ‘इन्द्रियाँ , मन व बुद्धि’ में अपना अधिष्ठान बनाते हैं । इनका अधिष्ठान बनने पर ये तीन ही ‘असुरों की पुरियाँ’ कहलाती हैं । इन तीनों का विदारण करनेवाले महादेव “त्रिपुरारि” कहलाते हैं । प्रभुस्मरण से हमारी इन्द्रियों , मन व बुद्धि पवित्र हो जाते हैं - ये आसुरभावनाओं के अधिष्ठान नहीं बने रहते । यही इन पुरियों का विदारण है । प्रभु का स्तोता प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न बनता है और कामादि को पराजित करने में समर्थ होता है । 

    २. (विद्वान्) = ज्ञानी (वज्रिन्) = क्रियाशील प्रभो ! (दस्यवे) = दास्यव वृत्तियों के नाश के लिए (हेतिम्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को (अस्य) = इसपर फेंकनेवाले होओ और इस प्रकार हे (इन्द्र) = शत्रुसंहारक प्रभो ! आप आर्य (सहः) = श्रेष्ठ शक्ति को तथा (द्युम्नम्) = ज्योति को (वर्धय) = बढ़ाइए । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के ओज से ओजस्वी बनकर हम इन्द्रियों , मन व बुद्धि को दस्यु - पुरी न बनने दें । इस प्रकार हममें श्रेष्ठ तेज व ज्योति का वर्धन हो । 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा और सेनाध्यक्ष के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    (सः) वह परमेश्वर ( जातुभर्मा ) उत्पन्न होनेवाले समस्त प्राणियों का पालन पोषण करनेहारा ( श्रद्दधानः ) सत्य स्वरूप को धारण करनेवाला ( ओजः ) अपने महान् सामर्थ्य से ( दासीः पुरः ) नाश होनेवाली सृष्टियों को और ( पुरः ) आत्मा के देह-बन्धनों को ( विभिन्दन् ) विविध प्रकारों से विनाश करता हुआ ( वि अचरत् ) विशेष रूप से व्याप रहा है । हे ( वज्रिन् ) शक्तिशालिन् ! वह ( विद्वान् ) ज्ञानवान्, तू ( दस्यवे ) नाशकारी दुष्ट पुरुष को नाश करने के लिये ( हेतिम् ) उसके बध का उपाय करता है और हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( आर्यं ) श्रेष्ठ पुरुषों और प्रजा के पालक स्वामीजनों के ( सहः ) शत्रुओं को पराजय करने योग्य बल और ( द्युम्नं ) ऐश्वर्य की ( वर्धय ) वृद्धि कर । ( २ ) राजा या सभा सेनादि के अध्यक्ष के पक्ष में—वह ( जातूभर्मा ) विद्युत् से बने शस्त्रास्त्रवाला अथवा प्रजा का पोषक, ( ओजः दासीः पुरः विभिन्दन् वि अचरत् ) अपने पराक्रम से दुष्ट पुरुषों की नगरियों और गढ़ों को तोड़ता हुआ विविध दिशाओं में विचरे । वह विद्वान् विवेकी होकर दुष्टों पर शस्त्र का प्रयोग करे। ( आर्यं सहः ) भले पुरुषों तथा प्रजा के स्वामी या वैश्य वर्ग के बल और ऐश्वर्य की वृद्धि करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८, त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो माणूस दर्जन, चोर, लबाड, लंपट, लढाई करणाऱ्यांचा विनाश करणारा व श्रेष्ठांना हर्षित करून शारीरिक व आत्मिक बलाचे संपादन करून धन इत्यादी पदार्थांनी सुख वाढवितो त्याच्याबद्दल सर्वांनी श्रद्धा बाळगणे योग्य आहे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of knowledge and wielder of the thunderbolt, sustainer of all that is born, faithful and valorous, routing the strongholds of evil, roams around. Heroic Indra, having struck the thunderbolt on the wicked, develops wealth and valour for the noble ones.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Commander of the army etc.) armed with good weapons, nourisher or sustainer of all beings, having genuine faith in the performance of good deeds, highly educated thou guest on destroying the slave-like cities of a wicked ignoble person with thy might. Use thy thunderbolt or powerful weapon which augments happiness, against a plunderer and increase the strength and glory of the Aryas (noble-minded righteous persons.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    तदु॒चुषे॒ मानु॑षे॒मा यु॒गानि॑ क॒न्य॑ म॒घवा॒ा नाम॒ बिभ॑त् । उपप्रय॑न्द्र॑स्य॒हत्या॑य वज्री यद्ध सूनुः श्रव॑से॒ नाम॑ द॒धे ॥ सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः ( ऋषिकृतः ) (जातभर्मा य: जातान्-जन्तून् बिभर्ति स-अत्र जनीधातोर्नकारस्याकादेशोअन्येषामपि इति दीर्घ = Sustainer of all beings. (दासी:) दासीशीलानगरी: अत्र दंसेष्टनौ न आच (उ०को० ५.१०) = Slave-like cities. (हेतिम्) सुखवर्धकं वज्रम् = Weapon which augments joy. (द्युम्नम्) धनम् = Wealth.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That man alone should be honored and respected by all, who destroys all wicked persons, gladdens good men, develops his physical and spiritual power and augments the happiness by giving wealth in charity.

    Translator's Notes

    हेतिरिति वज्रनाम (निघ० २.२०) It is derived from हि-गतिवृद्धयो: द्युम्ननिति धननाम (निघ० २.१०) सेनेन्द्रस्य पत्नी (गोपथ० उ० २.६) = So here Indra means the Master or commander of the army.

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