ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 103/ मन्त्र 4
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तदू॒चुषे॒ मानु॑षे॒मा यु॒गानि॑ की॒र्तेन्यं॑ म॒घवा॒ नाम॒ बिभ्र॑त्। उ॒प॒प्र॒यन्द॑स्यु॒हत्या॑य व॒ज्री यद्ध॑ सू॒नुः श्रव॑से॒ नाम॑ द॒धे ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । ऊ॒चुषे॑ । मानु॑षा । इ॒मा । यु॒गानि॑ । की॒र्तेन्य॑म् । म॒घऽवा । नाम॑ । बिभ्र॑त् । उ॒प॒ऽप्र॒यन् । द॒स्यु॒ऽहत्या॑य । व॒ज्री । यत् । ह॒ । सू॒नुः । श्रव॑से । नाम॑ । द॒धे ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदूचुषे मानुषेमा युगानि कीर्तेन्यं मघवा नाम बिभ्रत्। उपप्रयन्दस्युहत्याय वज्री यद्ध सूनुः श्रवसे नाम दधे ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। ऊचुषे। मानुषा। इमा। युगानि। कीर्तेन्यम्। मघऽवा। नाम। बिभ्रत्। उपऽप्रयन्। दस्युऽहत्याय। वज्री। यत्। ह। सूनुः। श्रवसे। नाम। दधे ॥ १.१०३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 103; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
मघवा सूनुर्वज्री सेनापतिर्यथा सूर्यस्तथोचुषे दस्युहत्याय श्रवसे इमा मानुषा युगानि कीर्त्तेन्यं नाम बिभ्रदुपप्रयन् यन्नाम दधे तद्ध खलु वयमपि दधीमहि ॥ ४ ॥
पदार्थः
(तत्) (ऊचुषे) वक्तुमर्हाय (मानुषा) मानुषेषु भवानि (इमा) इमानि (युगानि) वर्षाणि (कीर्तेन्यम्) कीर्तनीयम् (मघवा) भूयांसि मघानि धनानि विद्यन्ते यस्य सः (नाम) प्रसिद्धिं जलं वा (बिभ्रत्) धारयन् (उपप्रयन्) साधुसामीप्यङ्गच्छन् (दस्युहत्याय) दस्यूनां हत्या यस्मै तस्मै (वज्री) प्रशस्तशस्त्रसमूहयुक्तः सेनाधिपतिः (यत्) (ह) खलु (सूनुः) वीरपुत्रः (श्रवसे) धनाय (नाम) प्रसिद्धं कर्म (दधे) दधाति ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः कालावयवान् जलं च धृत्वा सर्वप्राणिसुखायान्धकारं हत्वा सर्वान् सुखयति तथैव सेनाधिपतिः सुखपूर्वकं संवत्सरान् कीर्त्तिं च धृत्वा शत्रुहननेन सर्वसुखाय धनं जनयेत् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (मघवा) बहुत धनोंवाला (सूनुः) वीर का पुत्र (वज्री) प्रशंसित शस्त्र-अस्त्र बाँधे हुए सेनापति जैसे सूर्य प्रकाशयुक्त है वैसे प्रकाशित होकर (ऊचुषे) कहने की योग्यता के लिये वा (दस्युहत्याय) जिसके लिये डाकुओं को हनन किया जाय उस (श्रवसे) धन के लिये (इमा) इन (मानुषा) मनुष्यों में होनेवाले (युगानि) वर्षों को तथा (कीर्त्तेन्यम्) कीर्त्तनीय (नाम) प्रसिद्ध और जल को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (उपप्रयन्) उत्तम महात्मा के समीप जाता हुआ (यत्) जिस (नाम) प्रसिद्ध काम को (दधे) धारण करता है (तत्) उस उत्तम काम को (ह) निश्चय से हम लोग भी धारण करें ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य-काल के अवयव अर्थात् संवत्सर, महीना, दिन, घड़ी आदि और जल को धारण कर सब प्राणियों के सुख के लिये अन्धकार का विनाश करके सबको सुख देता है, वैसे ही सेनापति सुखपूर्वक संवत्सर और कीर्त्ति को धारण करके शत्रुओं के मारने से सबके सुख के लिये धन को उत्पन्न करे ॥ ४ ॥
विषय
दीर्घ जीवन व स्तुत्य बल
पदार्थ
१. (तत् ऊचुषे) = [गतमन्त्र के अनुसार ‘स जातूभर्मा श्रद्दधान ओजः’ - आदि शब्दों से] प्रभु के स्तवन का उच्चारण करनेवाले के लिए (मघवा) = वे परमैश्वर्यवाले प्रभु (इमा) = इन (मानुषा) = मनुष्य - सम्बन्धी (युगानि) = दीर्घ जीवनों को - युग के समान लम्बी आयु को तथा (कीर्तेन्यम्) = कीर्तन व स्तुति के योग्य (नाम) = शत्रुओं के नामक बल को (बिभ्रत्) = धारण करता है । प्रभु के स्मरण से दीर्घ जीवन व स्तुत्य बल प्राप्त होता है ।
२. (उप प्रयन्) = उपासना व स्तुति के द्वारा समीप प्राप्त होता हुआ (वज्री) = क्रियाशीलतारूप वज्रवाला (सूनुः) = हृदयस्थ रूपेण प्रेरणा देनेवाला वह प्रभु (दस्युहत्याय) = दास्यव वृत्तियों के विनाश के लिए (यत् ह) = जो निश्यच से (नाम) = काम , क्रोध व लोभ का नामक [झुकानेवाला] बल है , उस बल को (श्रवसे) = यश व ज्ञानवृद्धि के लिए (दधे) = धारण करता है ।
३. जब हम प्रभु की उपासना करते हैं तब वे प्रभु हमें समीपता से प्राप्त होते हुए , वह शक्ति प्राप्त कराते हैं जिससे हम काम का पराभव करके प्रेमवाले होते हैं , क्रोध के स्थान में करुणावाले बनते हैं और लोभ को छोड़कर त्याग की वृत्तिवाले होते हैं । प्रभु की शक्ति काम , क्रोध व लोभ का पराभव करके हमें प्रेम , करुणा व त्यागवाला बनाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुस्मरण से दीर्घ जीवन व स्तुत्य बल प्राप्त होता है ।
विषय
पक्षान्तर में राजा और सेनाध्यक्ष के कर्तव्य ।
भावार्थ
( वज्री ) वह शक्तिशाली परमेश्वर ( दस्युहत्याय ) नाशकारी अज्ञान को नाश करने के लिये ( उप प्रयन् ) अति समीप प्राप्त होता हुआ ( सूनुः ) निश्चय से सबको प्रेरण करने हारा होकर (श्रवसे) ज्ञान की वृद्धि के लिये ( यत् नाम दधे ) जिस प्रसिद्ध तेजोमय स्वरूप को धारण करता है वह ( तत् ) उस ( ऊचुषे कीर्त्तेन्यं ) स्तुति करने वाले जन के लिये स्तुति करने योग्य (नाम) नाम और स्वरूप को ( इमा मानुषा युगानि ) मनुष्यों के इन कल्पित अनेकों वर्षों तक ( बिभ्रत् ) धारण करता है। ( २ ) राजा के पक्ष में—दुष्ट पुरुषों के कीर्त्ति के प्राप्त करने के लिये राजा जिस प्रसिद्ध नाम को धारण करे वह बहुत से वर्षों तक धारण करे । अर्थात् वह चिरस्थायी कीर्त्ति प्राप्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८, त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपयालंकार आहे. जसा सूर्य-काळाचे अवयव अर्थात् संवत्सर, महिना, दिवस, क्षण इत्यादींना व जलाला धारण करून सर्व प्राण्यांच्या सुखासाठी अंधकाराचा विनाश करून सर्वांना सुख देतो तसेच सेनापतीने सुखपूर्वक संवत्सर व कीर्ती धारण करून शत्रूंना मारण्यासाठी व सर्वांच्या सुखासाठी धन उत्पन्न करावे ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Surely that honour and fame for actions, the lord of power and wealth, Indra, maintains for the admirers for ages of human memory, which he, wielder of the thunderbolt, of omnipotence, achieves in action for the sake of wealth and fame while he advances for the destruction of the evil and the wicked.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Let us also have name and fame which a Maghava (Noble Commander of an army) arned with all powerful weapons, the son of a hero and himself acting like the sun that dispels darkness and thus gladdens all people has for the admirable destruction of robbers and thieves etc. and for the acquisition of wealth and reputation in human life, approaching learned and righteous persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ऊचुषे) वक्तुमर्हाय = For admirable purpose (युगानि) वर्षाणि = Years. (श्रवसे) धनाय = For wealth and reputation.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun upholding water and the parts of time gladdens all by dispelling darkness for the delight of all beings, in the same manner, the commander of an army should earn good reputation in his life by slaying his enemies and by acquiring wealth for the happiness of all.
Translator's Notes
श्रवः इति धननाम (निघ० २.१०) श्रवः-श्रूयत इति सतः इति निरुक्ते (१०.१५ ) श्रव इच्छमान: (ऋ. १.१२६. १) व्याख्यायांनिरुक्तकारः प्रशंसामिच्छमानः तस्माद् यशोऽर्थकः |
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