ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 103/ मन्त्र 7
तदि॑न्द्र॒ प्रेव॑ वी॒र्यं॑ चकर्थ॒ यत्स॒सन्तं॒ वज्रे॒णाबो॑ध॒योऽहि॑म्। अनु॑ त्वा॒ पत्नी॑र्हृषि॒तं वय॑श्च॒ विश्वे॑ दे॒वासो॑ अमद॒न्ननु॑ त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इ॒न्द्र॒ । प्र । अव॑ । वी॒र्य॑म् । च॒क॒र्थ॒ । यत् । स॒सन्त॒म् । वज्रे॑ण । अबो॑धयः । अहि॑म् । अनु॑ । त्वा॒ । पत्नीः॑ । हृ॒षि॒तम् । वयः॑ । च॒ । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अ॒म॒द॒न् । अनु॑ । त्वा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिन्द्र प्रेव वीर्यं चकर्थ यत्ससन्तं वज्रेणाबोधयोऽहिम्। अनु त्वा पत्नीर्हृषितं वयश्च विश्वे देवासो अमदन्ननु त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। इन्द्र। प्र। अव। वीर्यम्। चकर्थ। यत्। ससन्तम्। वज्रेण। अबोधयः। अहिम्। अनु। त्वा। पत्नीः। हृषितम्। वयः। च। विश्वे। देवासः। अमदन्। अनु। त्वा ॥ १.१०३.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 103; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे इन्द्र ससन्तमहिं यद् वज्रेणाबोधयस्तद्वीर्यं प्रेव चकर्थानुहृषितं पत्नीर्वयो विश्वेदेवासश्चाऽन्वमदन् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(तत्) (इन्द्र) सेनाध्यक्ष (प्रेव) प्रकटं यथा स्यात्तथा (वीर्य्यम्) स्वकीयं बलम् (चकर्थ) करोषि (यत्) (ससन्तम्) स्वपन्तं चिन्तारहितं वा (वज्रेण) तीक्ष्णशस्त्रेण (अबोधयः) बोधयसि (अहिम्) सर्प्पं शत्रुं वा (अनु) (त्वा) त्वाम् (पत्नीः) पत्न्यः (हृषितम्) जातहर्षम् (वयः) ज्ञानिनः (च) (विश्वे) अखिलाः (देवासः) विद्वांसः (अमदन्) हर्षयन्ति (अनु) (त्वा) त्वाम् ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। बलवता सेनापतिना दुष्टप्राणिनो दुष्टशत्रवश्च यथाविधि हन्यन्ते ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सेनाध्यक्ष ! आप (ससन्तम्) सोते हुए वा चिन्तारहित (अहिम्) सर्प्प वा शत्रु को (यत्) जो (वज्रेण) तीक्ष्ण शस्त्र से (अबोधयः) सचेत कराते हो (तत्) सो (वीर्य्यम्) अपने बल को (प्रेव) प्रकट सा (चकर्थ) करते हो (अनु) उसके पीछे (हृषितम्) उत्पन्न हुआ है आनन्द जिनको उन (त्वा) आपको (पत्नीः) आपके स्त्री जन और (वयः) ज्ञानवान् (विश्वे) समस्त (देवासश्च) विद्वान् जन भी (त्वा) आपको (अन्वमदन्) अनुकूलता से प्रसन्न करते हैं ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। बलवान् सेनापति से दुष्ट जीव तथा दुष्ट शत्रुजन मारे जाते हैं ॥ ७ ॥
विषय
तम व रज से ऊपर : सत्त्वगुण में
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = सब आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाले प्रभो ! आप (तत् वीर्यम्) = उस शक्तिशाली कर्म को (प्र) = खूब ही (चकर्थ) = करते हैं (यत्) = जो (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा (ससन्तम्) = सोते हुए को , अर्थात् प्रमाद , आलस्य व तन्द्रा के रूप में प्रकट होते हुए तमोगुण को तथा (अहिम्) = [आहन्तारम्] औरों की हिंसा के रूप में प्रकट होते हुए रजोगुण को नष्ट करके सत्त्वगुण को (अबोधयः) =बोधयुक्त करते हो , प्रबल करते हो । क्रियाशीलता से तामसी व राजसी वृत्तियाँ नष्ट होकर सात्विकी वृत्तियाँ प्रबल होती है , बुराइयाँ दूर होकर अच्छाइयों का विकास होता है ।
२. हे प्रभो ! (त्वा अनु) = आपकी अनुकूलता होने पर (वयः) = [वेञ् तन्तुसन्ताने] कर्मतन्तु का विस्तार करनेवाले ये व्यक्ति (अमदन्) = इस प्रकार प्रसन्न होते हैं (इव) = जैसे (हृषितम्) = प्रसन्न पति के पीछे (पत्नीः) = पत्नियाँ प्रसन्न होती हैं । पति के प्रसन्न होने पर जैसे पत्नी को प्रसन्नता होती है , उसी प्रकार प्रभु की अनुकूलता से ये क्रियाशील पुरुष प्रसन्न होते हैं च और (विश्वेदेवासः) = देववृत्ति के सब पुरुष (त्वा अनु अमदन्) = आपकी अनुकूलता में हर्ष प्राप्त करते हैं । क्रियाशीलता से ही देववृत्ति का विकास होता है , एवं आनन्द के मूल में क्रियाशीलता ही है । क्रियाशीलता से ही मनुष्य तम व रज से ऊपर उठकर सत्वगुण के क्षेत्र में प्रवेश करता है और जहाँ वह मस्तिष्क में प्रकाशमय होता है , वहाँ शरीर में नीरोग होता है । प्रभु के प्रकाश को देखने से एक अद्भुत आनन्द का अनुभव करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - क्रियाशीलता से सत्त्वगुण का विकास होकर प्रभु - दर्शन होता है और आनन्द की प्राप्ति होती है ।
विषय
पक्षान्तर में राजा और सेनाध्यक्ष के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) सेजापते ! ( यत् ) जिस कारण से तू ( ससन्तं अहिम् ) सोता हुआ सांप जिस प्रकार विजली की कड़क से जाग जाता है उसी प्रकार ( ससन्तम् ) सोते हुए, बेखबर पड़े ( अहिम् ) सांप के समान कुटिल, सामने से चढ़ाई करने वाले शत्रु को ( वज्रेण ) अपने प्रबल शस्त्र-बल से (अबोधयः) खूब अपनी शक्ति का परिचय करा देता है, कि सुधर जाओ नहीं तो कठोर दण्ड पाओगे, ( तत् ) इसलिये तू ( वीर्यम् ) अपने बल को ( प्र इव चकर्थ ) खूब अच्छी प्रकार दृढ़ बनाये रख । ( हृषितं पत्नीः ) काम अभिलाषा से हृष्ट पुष्ट हुए अपने पति को देख कर जिस प्रकार स्त्रियें अधिक प्रसन्न होती हैं उसी प्रकार हे राजन् ( हृषितं ) अति हर्ष से युक्त ( त्वा ) तुझको ( अनु ) प्राप्त करके ( पत्नीः ) राष्ट्र के पालन करने वाली सेनाएं, ( वयः च ) और ज्ञानी पुरुष और वेग से जाने वाले रथी और वीर भटगण और ( विश्व ) समस्त ( देवासः ) विद्वान् और विजिगीषु जन, ( त्वा अनु अमदन ) तेरे हर्ष में हर्षित हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८, त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. बलवान सेनापतीकडून दुष्ट जीव व दृष्ट शत्रू मारले जातात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, joyous hero, you show your prowess then when you take on the sleeping cloud with the thunderbolt. And then the house-wives, the wise seniors, and all the noble pious people rejoice with you.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! (Commander of the army) Thou does perform a glorious deeds when thou awake nest a careless enemy with thy thunderbolt or powerful weapon. Then the wives, enlightened persons and all wise men themselves are very much pleased and exulted.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्र) सेनाध्यक्ष = Commander of the army. वय:) ज्ञानिन: = Wise men. (ससन्तम्) स्वपन्तं चिन्तारहितं वा = Sleeping or careless.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A mighty commander of an army slays wicked enemies and ferocious creatures duly or in proper manner.
Translator's Notes
सेनेन्द्रस्य पत्नी (गोपथ ब्रा० ३.२. ९) तेनेन्द्र: सेनापतिः वयः -वी गतिंच्यातिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु इति धातोः, अत्र गतेर्ज्ञानार्थग्रहणं कृत्वा ज्ञानिनइत्यर्थः कृतो भाष्यकृता सस्ति स्वपिति कर्मा ( निघ० ३.२२ )
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal