ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 103/ मन्त्र 5
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तद॑स्ये॒दं प॑श्यता॒ भूरि॑ पु॒ष्टं श्रदिन्द्र॑स्य धत्तन वी॒र्या॑य। स गा अ॑विन्द॒त्सो अ॑विन्द॒दश्वा॒न्त्स ओष॑धी॒: सो अ॒पः स वना॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । अ॒स्य॒ । इ॒दम् । प॒श्य॒त॒ । भूरि॑ । पु॒ष्टम् । श्रत् । इन्द्र॑स्य । ध॒त्त॒न॒ । वी॒र्या॑य । सः । गाः । अ॒वि॒न्द॒त् । सः । अ॒वि॒न्द॒त् । अश्वा॑न् । सः । ओष॑धीः । सः । अ॒पः । सः । वना॑नि ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदस्येदं पश्यता भूरि पुष्टं श्रदिन्द्रस्य धत्तन वीर्याय। स गा अविन्दत्सो अविन्ददश्वान्त्स ओषधी: सो अपः स वनानि ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। अस्य। इदम्। पश्यत। भूरि। पुष्टम्। श्रत्। इन्द्रस्य। धत्तन। वीर्याय। सः। गाः। अविन्दत्। सः। अविन्दत्। अश्वान्। सः। ओषधीः। सः। अपः। सः। वनानि ॥ १.१०३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 103; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैस्तस्मात् किं किं कर्म धार्यमित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे मनुष्या यः स सेनाधिपतिः सूर्य इव गा अविन्दत् सोऽश्वानविन्दत्स ओषधीरविन्दत्स अपोऽविन्दत्स वनान्यविन्दत्तदस्येन्द्रस्येदं भूरि पुष्टं श्रत् सत्याचरणं यूयं पश्यत वीर्याय धत्तन ॥ ५ ॥
पदार्थः
(तत्) कर्म (अस्य) सेनापतेः (इदम्) प्रत्यक्षम् (पश्यत)। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (भूरि) बहु (पुष्टम्) दृढम् (श्रत्) सत्याचरणम्। श्रदिति सत्यना०। निघं० ३। १०। (इन्द्रस्य) सेनाबलयुक्तस्य (धत्तन) धरत (वीर्याय) बलाय (सः) सूर्य इव (गाः) पृथिवीः (अविन्दत्) लभते (सः) (अविन्दत्) लभते (अश्वान्) महतः पदार्थान्। अश्व इति महन्ना०। निघं० ३। ३। [?] (सः) (ओषधीः) गोधूमाद्या ओषधीः (सः) (अपः) कर्माणि जलानि वा (सः) (वनानि) जङ्गलान् किरणान् वा ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्योत्तमेन सत्याचरणेन प्राप्तिः सैव धार्या नैतया विना सत्यः पराक्रमः सर्वपदार्थलाभश्च जायते ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को उससे कौन-कौन काम धारण करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (सः) वह सेनापति सूर्य के तुल्य (गाः) भूमियों को (अविन्दत्) प्राप्त होता (सः) वह (अश्वान्) बड़े पदार्थों को (अविन्दत्) प्राप्त होता (सः) वह (ओषधीः) ओषधियों अर्थात् गेहूँ, उड़द, मूँग, चना आदि को प्राप्त होता (सः) वह (अपः) सूर्य्य जलों को जैसे वैसे कर्मों को प्राप्त होता (सः) तथा वह सूर्य (वनानि) किरणों को जैसे वैसे जङ्गलों को प्राप्त होता है, (अस्य) इस (इन्द्रस्य) सेना बलयुक्त सेनापति के (तत्) उस कर्म को वा (इदम्) इस (भूरि) बहुत (पुष्टम्) दृढ़ (श्रत्) सत्य के आचरण को तुम (पश्यत) देखो और (वीर्य्याय) बल होने के लिये (धत्तन) धारण करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो श्रेष्ठ जनों के सत्य आचरण से प्राप्ति है, उसीको धारण करें। उसके विना सत्य पराक्रम और सब पदार्थों का लाभ नहीं होता ॥ ५ ॥
विषय
ओषधियाँ व जल
पदार्थ
१. हे उपासको ! (अस्य) = इस परमात्मा के (तत् इदं भूरि पुष्टम्) = प्रसिद्ध , इस अनन्त पोषण को (पश्यत) = देखो । प्रभु ने संसार में हमारे पोषण के लिए जो अद्भुत व्यवस्था की हुई है , वह सचमुच देखने योग्य है वह प्रभु की महिमा को हमारे हृदयों पर अंकित किये बिना नहीं रहती । हम अम्लजन वायु को लेकर कार्बन द्वि ओषजिद् [co.²] को बाहर फेंकते हैं । पौधे इस कार्बन द्वि ओषजिद् को लेकर अम्लजन को बाहर फेंकते हैं । इस प्रकार वायु - मण्डल में अम्लजन की कमी नहीं होती और सब प्राणियों का पोषण समुचित रूप से हो पाता है ।
२. (इन्द्रस्य) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु के (वीर्याय) = सामर्थ्य के लिए (श्रत् धत्तन) = श्रद्धा धारण करो । प्रभु की अनन्त शक्ति में हमें विश्वास होना चाहिए । इस विश्वास से वस्तुतः हम स्वयं शक्तिसम्पन्न बनते हैं और संसार में व्याकुलता से ऊपर उठकर चलते हैं ।
३. (सः) = वे प्रभु हमारे लिए (गाः) = ज्ञानेन्द्रियों को (अविन्दत्) = प्राप्त कराते हैं । (सः) = वे (अश्वान्) = कर्मेन्द्रियों को (अविन्दत्) = प्राप्त करानेवाले हैं । ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करके तदनुसार कर्म करते हुए हम अपना ठीक पोषण करते हैं और शक्ति को धारण करनेवाले होते हैं ।
४. इन ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों के ठीक से पोषण के लिए (सः) = वे प्रभु (ओषधीः) = ओषधियों को - वानस्पतिक भोजनों को प्राप्त कराते हैं और (सः) = वे (आपः) = जलों को प्राप्त करानेवाले हैं । इन वानस्पतिक भोजनों व जलों के उपयोग से सब इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहेगी और हम ‘सु - ख’ प्रास करेंगे ।
५. इन वानस्पतिक भोजनों व जलों का प्रयोग हम मर्यादा में ही करें इसके लिए (सः) = वे प्रभु (वनानि) = उपासनाओं को [वन = संभक्ति = सम्भजन] व बाँटकर खाने की वृत्ति को प्राप्त कराते हैं । उपासनामय जीवनवाला व्यक्ति किसी भी वस्तु का अतियोग न करेगा तथा बाँटकर खाने की वृत्ति होने पर तो अतियोग की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है , एवं ये (‘वन’) = उपासन व सम्भजन हमें यथा - योग में ले चलते हैं और इससे हमारी शक्तियाँ स्थिर रहती हैं । स्थिरशक्ति बनकर ही हम प्रभु को प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का पोषण द्रष्टव्य है , उसकी शक्ति श्रद्धा करने योग्य है । प्रभु हमें ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं और उनको सशक्त बनाने के लिए वानस्पतिक भोजनों व जलों के देनेवाले हैं ।
विषय
पक्षान्तर में राजा और सेनाध्यक्ष के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे मनुष्यो ! ( अस्य ) इस परमेश्वर का ( इदं ) यह प्रत्यक्ष दीखने वाला ( भूरि ) बहुत प्रकार का और बहुत अधिक ( पुष्टम् ) सब का परिपोषक और स्वतः पुष्ट, दृढ़ ( तत् ) वह परम बल ( पश्यत ) देखो और ( वीर्याय ) बल, वीर्य की वृद्धि और प्राप्ति के लिये ( इन्द्रस्य ) उस महान् ऐश्वर्यवान् परमात्मा पर ( श्रद् धत्तन ) श्रद्धा, दृढ़ विश्वास करो । अथवा (इन्द्रस्य पुष्टं श्रद् वीर्याय धत्तन ) उस परमेश्वर के दृढ़ सत्य व्यवस्था को बल वृद्धि के लिये धारण करो । ( सः ) वह ( गाः ) गतिमान् समस्त सूर्यादि लोकों को ( अविन्दत् ) व्याप्त है । ( सः ) वह ( अश्वान् ) व्यापक आकाशादि पदार्थों तथा भोक्ता जीवों को भी ( अविन्दत् ) वश किये है । (सः ओषधीः) वह समस्त ओषधि, अन्न, लता, वृक्ष, वनस्पतियों तथा प्रताप और तेज के धारक सूर्य अग्नि आदि को भी वश करता है । ( सः अपः ) वह समुद्र, मेघ आदि में स्थित जलों, प्राणों, लिंग शरीरों तथा व्यापक जगत् निर्मातृ उपादान कारणावयवों को भी वश कर रहा है । ( सः वनानि ) भोग और सेवन करने योग्य समस्त ऐश्वर्यो को वश कर रहा है । ( २ ) आत्मपक्ष में—इस अपने आत्मा के बड़े भारी बल का साक्षात् करो और इस ‘इन्द्र’ आत्मा के ‘श्रत्’ सत्य रूप को जानकर उस पर विश्वास करो, उसका आदर करो । वह वेद-वाणियों, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों, ताप धारक लोकों और देह गत धातुओं को और ( अपः ) कर्मों, ज्ञानों और ( वनानि ) भोग्य सुखों को प्राप्त करना है । (३) राजा के पक्ष में—राजा का बढ़ा हुआ बल देखो और बल की वृद्धि के लिये उस पर विश्वास, भरोसा करो वह भूमियों, गो सम्पत्ति तथा अश्वों, ओषधियों, नदी ताल आदि जलस्थानों और वनों को अपने वश करे । इति षोडशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८, त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे श्रेष्ठ लोकांच्या सत्याचरणाने प्राप्त होते ते माणसांनी अंगीकारावे. त्याशिवाय सत्य, पराक्रम व सर्व पदार्थांचा लाभ होत नाही ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Watch the mighty action, this great achievement of this lord Indra and take it on with conviction for the attainment of honour, fame and valour. He develops lands and cows. He acquires horses and develops modes of transport and communication. He develops herbs and trees, creates waters and develops water resources, and he creates all kinds of wealth and expands the forests.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men take from Indra is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) O men ! behold this vast and extensive truthful conduct of the commander of the army who being like the sun has got the lands, has obtained great substances, herbs and plants, waters and forests or the rays of the sun, utilizing properly all or them. Hold him as example for virility. (2) The Mantra is also applicable to God in which case it means Behold this, the vast and extensive might of Indra (God) and have confidence in His Prowess. It is He who has created the earth, the cattle, the horses and all great objects, the herbs and plants, forests and the rays of the sun and He pervades them all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(श्रत्) सत्याचरणम् श्रत् इति सत्यनाम (निघ० ३.१०) = Truthful conduct or the observance of Truth. (अश्वान्) महत: पदार्थान् । अश्व इति महन्नाम (निघ० ३.३ ) = Great objects. (वनानि) जंगलान् किरणान् वा = Forests or the rays of the sun. वनमिति रश्मिनाम (निघ० १.५) Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should obtain only that power which is the result of truthful conduct. Without it, it is not possible to achieve true strength and the acquisition of all objects.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal