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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 109/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अश्र॑वं॒ हि भू॑रि॒दाव॑त्तरा वां॒ विजा॑मातुरु॒त वा॑ घा स्या॒लात्। अथा॒ सोम॑स्य॒ प्रय॑ती यु॒वभ्या॒मिन्द्रा॑ग्नी॒ स्तोमं॑ जनयामि॒ नव्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्र॑वम् । हि । भू॒रि॒दाव॑त्ऽतरा । वा॒म् । विऽजा॑मातुः । उ॒त । वा॒ । घ॒ । स्या॒लात् । अथ॑ । सोम॑स्य । प्रऽय॑ती । यु॒वऽभ्या॑म् । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । स्तोम॑म् । ज॒न॒या॒मि॒ । नव्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्रवं हि भूरिदावत्तरा वां विजामातुरुत वा घा स्यालात्। अथा सोमस्य प्रयती युवभ्यामिन्द्राग्नी स्तोमं जनयामि नव्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्रवम्। हि। भूरिदावत्ऽतरा। वाम्। विऽजामातुः। उत। वा। घ। स्यालात्। अथ। सोमस्य। प्रऽयती। युवऽभ्याम्। इन्द्राग्नी इति। स्तोमम्। जनयामि। नव्यम् ॥ १.१०९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 109; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यौ वामेतौ भूरिदावत्तरेन्द्राग्नी वर्त्तेते यौ विजामातुः स्यालादुतापि वा घान्येभ्यश्चैव धनानि दापयत इत्यहमश्रवं अथ हि युवभ्यामेताभ्यां सोमस्य प्रयती ऐश्वर्य्यप्रदानाय नव्यं स्तोममहं जनयामि ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (अश्रवम्) शृणोमि (हि) किल (भूरिदावत्तरा) अतिशयेन बहुधनदानप्राप्तिनिमित्तौ (वाम्) एतौ (विजामातुः) विगतो विरुद्धश्च जामाता च तस्मात् (उत) अपि (वा) (घ) एव। अत्र ऋचि तु० इति दीर्घः। (स्यालात्) स्वस्त्रीभ्रातुः (अथ) निपातस्य चेति दीर्घः। (सोमस्य) ऐश्वर्य्यप्रापकस्य व्यवहारस्य (प्रयती) प्रयत्यै प्रदानाय। अत्र प्रपूर्वाद्यमधातोः क्तिन् तस्माच्चतुर्थ्येकवचने सुपां सुलुगितीकारादेशः। (युवभ्याम्) एताभ्याम् (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (स्तोमम्) गुणप्रकाशम् (जनयामि) प्रकटयामि (नव्यम्) नवीनम् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    सर्वेषां मनुष्याणां विद्युदादिपदार्थानां गुणज्ञानसंप्रयोगाभ्यां नूतनं कार्य्यसिद्धिकरं कलायन्त्रादिकं विधायानेकानि कार्य्याणि निर्वृत्य धर्मार्थकामसिद्धिः संपादनीयेति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (वाम्) ये (भूरिदावत्तरा) अतीव बहुत से धन की प्राप्ति करानेहारे (इन्द्राग्नी) बिजुली और भौतिक अग्नि हैं वा जो उक्त इन्द्राग्नी (विजामातुः) विरोधी जमाई (स्यालात्) साले से (उत, वा) अथवा और (घ) अन्यों जनों से धनों को दिलाते हैं यह मैं (अश्रवम्) सुन चुका हूँ (अथ, हि) अभि (युवभ्याम्) इनसे (सोमस्य) ऐश्वर्य्य अर्थात् धनादि पदार्थों की प्राप्ति करनेवाले व्यवहार के (प्रयती) अच्छे प्रकार देने के लिये (नव्यम्) नवीन (स्तोमम्) गुण के प्रकाश को मैं (जनयामि) प्रकट करता हूँ ॥ २ ॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को बिजुली आदि पदार्थों के गुणों का ज्ञान और उनके अच्छे प्रकार कार्य में युक्त करने से नवीन-नवीन कार्य्य की सिद्धि करनेवाले कलायन्त्र आदि का विधानकर अनेक कामों को बनाकर धर्म, अर्थ और अपनी कामना की सिद्धि करनी चाहिये ॥ २ ॥

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    विषय

    सोम और स्तोम

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्राग्नी) = इन्द्र व अग्निदेवो ! शक्ति व प्रकाश के अधिष्ठातृदेवो ! मैं (वाम्) = आपको (ह) = निश्चय से (भूरिदावत्तरा) = खूब ही देनेवाला (अश्रवम्) = सुनता हूँ । आप मुझे क्या नहीं प्राप्त कराते ? आपकी कृपा से मुझे जीवन के लिए सभी वस्तुएँ भरपूर रूप में प्राप्त होती हैं । शक्ति और प्रकाश के होने पर सब उत्तम वस्तुएँ सुलभ हो जाती है । 

    २. आप (विजामातुः) = विहीन जमाता से भी अधिक देनेवाले हैं (उत) = वा अथवा (स्यालात्) = स्याल [पत्नी के भ्राता] से भी (घ) = निश्चयपूर्वक अधिक देनेवाले हैं । श्रुत व आभिरूप्य [ज्ञान व सौन्दर्य] आदि गुणों से रहित जमाता कन्या को पत्नी रूप में प्राप्त करने के लिए कन्या के माता - पिता को खूब धन देता है । स्याल [साला] भी अपनी बहिन की प्रसन्नता के लिए धन देनेवाला होता है । इन्द्राग्नी से दिये जानेवाले धन की तुलना में वह धन कुछ नहीं । इन्द्राग्नी उनसे कहीं बढ़कर उत्कृष्ट धन प्राप्त कराते हैं । [यहाँ हीनोपमा केवल अधिक दातृत्व के प्रतिपादन के लिए है] । 

    ३. (अथ) = अब (सोमस्य प्रयती) = सोम के नियमन के द्वारा - सोमशक्ति के शरीर में ही पान के द्वारा हे इन्द्राग्नी ! मैं (युवभ्याम्) = आपके लिए (नव्यम्) = अत्यन्त स्तुत्य (स्तोमम्) = स्तोत्र को (जनयामि) = उत्पन्न करता हूँ । मैं इन्द्र व अग्नि का स्तवन करता हूँ । यह इन्द्र व अग्नि का स्तवन शरीर में सोम - शक्ति के रक्षण द्वारा होता है । इस सोमरक्षण से ही मैंने शक्ति व प्रकाश को पाना है । सोमरक्षण से मैं शक्ति का पुञ्ज बनता हूँ और यह सोम मेरी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर मुझे ज्ञान के प्रकाशवाला बनाता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - शक्ति व प्रकाश ही हमें सब - कुछ देनेवाले हैं । सोम के रक्षण से इनका उपासन होता है । सोम के रक्षण से वस्तुतः हम इन्द्र और अग्नि - जैसे बनते हैं - शक्ति के पुञ्ज व प्रकाशमय । 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में बलवान् सेनापति और प्रमुख नायकों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि, विद्युत् अग्नि, या वायु और अग्नि के समान जीवनप्रद और ज्ञानप्रद पिता और आचार्य ! ( विजामातुः ) विपरीत गुणों वाले गुणहीन जमाई कन्या को प्राप्त करने के लिये अधिक धन व्यय करता है ( उत वा ) और ( स्यालात् ) अपना अति निकट सम्बन्धी अपनी स्त्री का भाई अर्थात् साला भी भगिनी के प्रेम से उत्तम जमाई को प्रसन्न रखने के लिये बहुत सा धन प्रदान करता है (घ) परन्तु उन दोनों से भी ( भूरिदावत्तरा ) कहीं बहुत अधिक ऐश्वर्यों के देने वाले ( वां ) आप दोनों को मैं (अश्रवं ) सुनता हूं । ( अथ ) और मैं ( सोमस्य ) समस्त ऐश्वर्य के उत्तम दान प्राप्त करने के लिये ( युवभ्याम् ) आप दोनों के ( नव्यम् ) अति नवीन, नये से नया, उत्तम से उत्तम ( स्तोमम् ) स्तुति ( जनयामि ) प्रकट करता हूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–८ कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी विद्युत इत्यादी पदार्थांच्या गुणांचे ज्ञान प्राप्त करावे व त्यांना चांगल्या प्रकारे कार्यात युक्त करावे. नवीन नवीन कार्याची सिद्धी करणाऱ्या कलायंत्र इत्यादीचा वापर करून अनेक प्रकारचे काम करावे व धर्म, अर्थ आणि आपली कामना सिद्ध करावी. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I hear that you are much more rich and munificent in gifts than a son-in-law or a brother-in- law. Hence an offering of soma for you both, a cherished gift of study, whereby I create and present the latest treatise on the energy of fire and electricity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (Indra and Agni) is taught further in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra and Agni (Electricity and fire or father and Acharya) I have heard that you are more munificent givers than an un-worthy son-in-law or the brother of the bride. Therefore for giving wealth (spiritual and material) I reveal your admirable attributes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सोमस्य) ऐश्वर्यप्रापकस्य व्यवहारस्य Of a dealing leading to prosperity षु-प्रसर्वेश्वर्ययोः। (स्तोमम्) गुणप्रकाशम् = Manifesting or expressing the attributes.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men should accomplish various works by knowing the attributes of electricity and other objects and by using them scientifically for constructing useful machines. Having done this, they should achieve and accomplish Dharma (righteousness), Artha (wealth) Karma (fulfilment of noble desires) and Moksha (Emancipation).

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