ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 109/ मन्त्र 5
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒वामि॑न्द्राग्नी॒ वसु॑नो विभा॒गे त॒वस्त॑मा शुश्रव वृत्र॒हत्ये॑। तावा॒सद्या॑ ब॒र्हिषि॑ य॒ज्ञे अ॒स्मिन्प्र च॑र्षणी मादयेथां सु॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वाम् । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । वसु॑नः । वि॒ऽभा॒गे । त॒वःऽत॑मा । शु॒श्र॒व॒ । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ । तौ । आ॒ऽसद्य॑ । ब॒र्हिषि॑ । य॒ज्ञे । अ॒स्मिन् । प्र । च॒र्ष॒णी॒ इति॑ । मा॒द॒ये॒था॒म् । सु॒तस्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवामिन्द्राग्नी वसुनो विभागे तवस्तमा शुश्रव वृत्रहत्ये। तावासद्या बर्हिषि यज्ञे अस्मिन्प्र चर्षणी मादयेथां सुतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठयुवाम्। इन्द्राग्नी इति। वसुनः। विऽभागे। तवःऽतमा। शुश्रव। वृत्रऽहत्ये। तौ। आऽसद्य। बर्हिषि। यज्ञे। अस्मिन्। प्र। चर्षणी इति। मादयेथाम्। सुतस्य ॥ १.१०९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 109; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
अहं वसुनो विभागे वृत्रहत्ये वा युवामिन्द्राग्नी तवस्तमा स्त इति शुश्रव शृणोमि। अतस्तौ प्रचर्षणी अस्मिन् बर्हिषि यज्ञे सुतस्य निष्पादितं यानमासद्य मादयेथाम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(युवाम्) एतौ द्वौ (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (वसुनः) धनस्य (विभागे) सेवनव्यवहारे (तवस्तमा) अतिशयेन बलयुक्तौ बलप्रदौ वा (शुश्रव) शृणोमि (वृत्रहत्ये) वृत्रस्य शत्रुसमूहस्य मेघस्य वा हत्या हननं येन तस्मिन् संग्रामे (तौ) (आसद्य) प्राप्य वा। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (बर्हिषि) उपवर्धयितव्ये (यज्ञे) सङ्गमनीये शिल्पव्यवहारे (अस्मिन्) (प्र, चर्षणी) सम्यक् सुखप्रापकौ। चर्षणिरिति पदना०। निघं० ४। २। (मादयेथाम्) मादयेते हर्षयतः (सुतस्य) निष्पादितस्य कर्मणि षष्ठी ॥ ५ ॥
भावार्थः
मनुष्या याभ्यां धनानि विभजन्ति वा शत्रून् विजित्य सार्वभौमं राज्यं कर्त्तुं शक्नुवन्ति, तौ कार्यसिद्धये कथं न संप्रयुञ्जीरन् ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
मैं (वसुनः) धन के (विभागे) सेवन व्यवहार में (वृत्रहत्ये) वा जिसमें शत्रुओं और मेघों का हनन हो उस संग्राम में (युवाम्) ये दोनों (इन्द्राग्नी) बिजुली और साधारण अग्नि (तवस्तमा) अतीव बलवान् और बल के देनेहारे हैं यह (शुश्रव) सुनता हूँ, इससे (तौ) वे दोनों (प्रचर्षणी) अच्छे सुख को प्राप्त करानेहारे (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) समीप में बढ़नेहारे (यज्ञे) शिल्पव्यवहार के निमित्त (सुतस्य) उत्पन्न किये विमान आदि रथ को (आसद्य) प्राप्त होकर (मादयेथाम्) आनन्द देते हैं ॥ ५ ॥
भावार्थ
मनुष्य जिनसे धनों का विभाग करते हैं वा शत्रुओं को जीतके समस्त पृथिवी पर राज्यकर सकते हैं, उनको कार्य की सिद्धि के लिये कैसे न यथायोग्य कामों में युक्त करें ॥ ५ ॥
विषय
वसु - प्राप्ति व वृत्र - हत्या
पदार्थ
१. हे (इन्द्राग्नी) = इन्द्र व अग्निदेवो ! शक्ति व प्रकाश के देवो ! (युवाम्) = आप दोनों को मैं (वसुनः विभागे) = धन के विभाग में , धन देने के कार्य में तथा (वृत्रहत्ये) = वासना के विनाश के कार्य में (तवस्तमा) = अत्यन्त शक्तिशाली (शुश्राव) = सुनता हूँ । इन्द्र व अग्नि की कृपा से - शक्ति व प्रकाश की प्राप्ति से मैं उत्तम धनों को प्राप्त करता हूँ और वासना का विनाश कर पाता हूँ ।
२. (तौ) = वे दोनों , इन्द्र और अग्नि (अस्मिन् बर्हिषि) = इस वासनाशून्य हृदय में और (यज्ञे) = यज्ञात्मक कर्म में (आसद्य) = आसीन होकर (सुतस्य) = शरीर में उत्पन्न हुए - हुए सोम के (प्रचर्षणी) = प्रकर्षेण द्रष्टा , अर्थात् उत्पन्न सोम का शरीर में ही रक्षण करनेवाले आप (मादयेथाम्) = हमारे जीवनों को आनन्दित करें । [क] शक्ति के अधिष्ठातृदेव इन्द्र और अग्नि वासनाशून्य हृदय व यज्ञ में आसीन होते हैं , अर्थात् इनसे हृदय की वासनाएँ नष्ट होती हैं और हम यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं , [ख] ये सोम के द्रष्टा हैं , अर्थात् शक्ति व प्रकाश के साधक कार्यों में लगे रहने पर शरीर में सोम सुरक्षित रहता है , [ग] इस शक्ति व प्रकाश से जीवन आनन्दमय बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - इन्द्र व अग्निदेव हमें उत्तम वसु प्राप्त कराएँ और हमारी शत्रुभूत वासनाओं को नष्ट करें ।
विषय
पक्षान्तर में बलवान् सेनापति और प्रमुख नायकों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( इन्द्राग्नी ) विद्युत् और आग दोनों पदार्थों को मैं ( वसुनः विभागे ) जल के फाड़ने के कार्यों में ( तवस्तमा ) बहुत अधिक बल वाला ( शुश्रव ) सुनता हूं । उन दोनों के इस क्रियात्मक विज्ञान को मैं गुरु-मुख से श्रवण करूं । ( तौ ) वे दोनों ( अस्मिन् ) इस प्रत्यक्ष ( बर्हिषि ) बढ़ने योग्य ( यज्ञे ) सुसंगत, शिल्पादि मन्त्रों और वैज्ञानिक कार्यों में ( सुतस्य ) बनाये गये पदार्थ रथ आदि में ( आसद्य ) प्राप्त होकर ( मादयेथां ) अति हर्ष प्रदान करते हैं । ( २ ) इसी प्रकार राष्ट्र में विद्युत् और अग्नि के समान तेजस्वी पवन और सूर्य के समान सर्व प्राणप्रद, दुष्ट रोगादि के नाशक विद्वान् और बलवान् जन ( युवम् ) तुम दोनों ( वसुनः विभागे ) राष्ट्र के ऐश्वर्य, भूमि, पशु आदि के विभाग के कार्य और (वृत्रहत्ये) विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों के उच्छेदन के कार्य में ( तवस्तमा शुश्रव ) सबसे अधिक बलवान् सुनता हूं । ( तौ ) वे दोनों प्रकार के जन ( बर्हिषि ) बढ़ाने योग्य, अति विस्तृत ( यज्ञे ) सुव्यवस्थित प्रजा पालन आदि उत्तम कार्य के निमित्त ( चर्षणी ) सब कार्य व्यवहारों के द्रष्टा होकर ( आसद्य ) उत्तम आसन पर विराज कर ( सुतस्य ) अभिषिक्त हुए राजा या राष्ट्रपति को ( प्र मादयेथां ) खूब अधिक हर्षित करें, उसके बल को खूब तृप्त और पूर्ण करें। गुरु शिष्यादि भी ज्ञानरूप धन के वितरण और अज्ञान नाश के कार्य में प्रबल हों। और अध्ययनाध्यापन रूप यज्ञ में विराज कर ज्ञान से तृप्त हों और अन्यों को करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–८ कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसे ज्यांच्याद्वारे धनाचा व्यवहार करतात किंवा शत्रूंना जिंकून संपूर्ण पृथ्वीवर राज्य करू शकतात. त्या विद्युत व अग्नीला कार्यसिद्धीसाठी यथायोग्य कामात का प्रयुक्त करू नये? ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Agni, lords of energy and fire power, you two I hear are the fastest and strongest in the battle against the clouds of darkness and want and in the creation and distribution of wealth and joy. Come benefactors, both of you, grace the seats of this yajna of science and technology and enjoy the honey-sweets of creation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they (Indra and Agni) is taught further in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I have hear that at the division or distribution of wealth and in the destruction of enemies, these two (Indra and Agni or electricity and fire) are most vigorous and givers of strength, May they which are bringer Happiness, make us delighted in developing this Yajna (unified technical dealing) having prepared a car in the form of an aircraft.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(तवस्तमा) अतिशयेन बलयुक्तौ बलप्रदौ वा = Vigorous and givers of strength. (बर्हिषि) उपवर्धयितव्ये = To be developed. (यज्ञे) संगमनीये शिल्पव्यवहारे = In the technical dealing that is to be unified. तव इति बलनाम (निघ० २. ९ ). The word बहिः is derived from बृह-बृद्धौ hence the interpretation of बर्हिषि as उपवर्धयितव्ये. The word Yajna is derived from यज-देव-पूजा संगतिकरणदानेषु Here Rishi Dayananda Sarasvati has taken it in the sense of संगतिकरण or unification, particularly शिल्पयज्ञ.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Why should not men use methodically and scientifically electricity and fire by the aid of which they earn and distribute wealth among the needly and are able to rule over a vast and good Government having got victory over their enemies ?
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