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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 109/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र च॑र्ष॒णिभ्य॑: पृतना॒हवे॑षु॒ प्र पृ॑थि॒व्या रि॑रिचाथे दि॒वश्च॑। प्र सिन्धु॑भ्य॒: प्र गि॒रिभ्यो॑ महि॒त्वा प्रेन्द्रा॑ग्नी॒ विश्वा॒ भुव॒नात्य॒न्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑ । पृ॒त॒ना॒ऽहवे॑षु । प्र । पृ॒थि॒व्याः । रि॒रि॒चा॒थे॒ इति॑ । दि॒वः । च॒ । प्र । सिन्धु॑ऽभ्यः । प्र । गि॒रिऽभ्यः॑ । म॒हि॒ऽत्वा । प्र । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । विश्वा॑ । भुव॑ना । अति॑ । अ॒न्या ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र चर्षणिभ्य: पृतनाहवेषु प्र पृथिव्या रिरिचाथे दिवश्च। प्र सिन्धुभ्य: प्र गिरिभ्यो महित्वा प्रेन्द्राग्नी विश्वा भुवनात्यन्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। चर्षणिऽभ्यः। पृतनाऽहवेषु। प्र। पृथिव्याः। रिरिचाथे इति। दिवः। च। प्र। सिन्धुऽभ्यः। प्र। गिरिऽभ्यः। महिऽत्वा। प्र। इन्द्राग्नी इति। विश्वा। भुवना। अति। अन्या ॥ १.१०९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 109; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वायुविद्युतौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    इन्द्राग्नी अन्या विश्वा भुवना अन्यान् सर्वाँल्लोकान् महित्वा पृतनाहवेषु चर्षणिभ्यः प्रपृथिव्या प्रसिन्धुभ्यः प्रगिरिभ्यः प्रदिवश्च प्रातिरिरिचाथे प्रातिरिक्तौ भवतः ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (चर्षणिभ्यः) मनुष्येभ्यः (पृतनाहवेषु) सेनाभिः प्रवृत्तेषु युद्धेषु (प्र) (पृथिव्याः) भूमेः (रिरिचाथे) अतिरिक्तौ भवतः (दिवः) सूर्यात् (च) अन्येभ्योऽपि लोकेभ्यः (प्र) (सिन्धुभ्यः) समुद्रेभ्यः (प्र) (गिरिभ्यः) शैलेभ्यः (महित्वा) प्रशंसय्य (प्र) (इन्द्राग्नी) वायुविद्युतौ (विश्वा) अखिला (भुवना) भुवनानि लोकान् (अति) (अन्या) अन्यानि ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि वायुविद्युद्भ्यां सदृशो महान् कश्चिदपि लोको भवितुमर्हति कुत एतौ सर्वाँल्लोकानभिव्याप्य स्थितावतः ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पवन और बिजुली कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (इन्द्राग्नी) वायु और बिजुली (अन्या) (विश्वा) (भुवना) और समस्त लोकों को (महित्वा) प्रशंसित कराके (पृतनाहवेषु) सेनाओं से प्रवृत्त होते हुए युद्धों में (चर्षणिभ्यः) मनुष्यों से (प्र, पृथिव्याः) अच्छे प्रकार पृथिवी वा (प्र, सिन्धुभ्यः) अच्छे प्रकार समुद्रों वा (प्र, गिरिभ्यः) अच्छे प्रकार पर्वतों वा (प्र, दिवश्च) और अच्छे प्रकार सूर्य्य से (प्र, अति, रिरिचाथे) अत्यन्त बढ़कर प्रतीत होते अर्थात् कलायन्त्रों के सहाय से बढ़कर काम देते हैं ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पवन और बिजुली के समान बड़ा कोई लोक नहीं होने योग्य है क्योंकि ये दोनों सब लोकों को व्याप्त होकर ठहरे हुए हैं ॥ ६ ॥

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    विषय

    इन्द्राग्नी व लोक - लोकान्तर

    पदार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) = इन्द्र व अग्निदेवो ! शक्ति व प्रकाश के तत्त्वो ! आप (पृतना हवेषु) = संग्रामों में पुकारे जाने पर (चर्षणीभ्यः) = सब मनुष्यों से (महित्वा) = अपनी महिमा के द्वारा (प्ररिरिचाथे) = अधिक हो , अर्थात् संग्राम में सारे मनुष्य हमारी वह सहायता नहीं कर सकते जो सहायता इन्द्र व अग्नि तत्त्वों से प्राप्त होती है । आप (पृथिव्याः) = सम्पूर्ण पृथिवी से (प्र) = [रिरिचाथे] अधिक हैं (च) = और (दिवः) = द्युलोक से भी अधिक हैं , (सिन्धुभ्यः) = सब नदी व सागरों से आप (प्र) = अधिक हैं , (गिरिभ्यः) = पर्वतों से भी आप (प्र) = अधिक हैं और हे इन्द्राग्नी ! आप (विश्वा अन्या भुवना) = अन्य सब भुवनों से भी (अति प्र) = [रिरिचाथे] बहुत ही अधिक हैं । 

    २. हमारे जीवनों में चलनेवाले अध्यात्म - संग्रामों में संसार के ये हमारे मित्रभूत मनुष्य , पृथिवीलोक , द्युलोक , पर्वत व अन्य लोकलोकान्तर भी हमारी वह सहायता नहीं कर सकते जो सहाय्य हमें ‘इन्द्र व अग्नि’ तत्वों से प्राप्त होता है । सारा संसार एक ओर , और ये शक्ति व प्रकाश के तत्त्व दूसरी ओर । ये दोनों तत्व ही अपनी महिमा के कारण अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । हम सब लोकों का वरण न करके इन दो तत्त्वों का ही वरण करें । ये ही हमें उस अध्यात्म - संग्राम में विजयी बनाएंगे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सारे संसार को छोड़कर इन्द्र व अग्नि - तत्त्वों का ही वरण करें । 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में बलवान् सेनापति और प्रमुख नायकों के कर्तव्य । (

    भावार्थ

    ( इन्द्राग्नी ) उक्त दोनों वायु और अग्नि तत्व दोनों के समान गुण वाले पूर्वोक्त जन ( पृतना हवेषु ) सैन्यों द्वारा किये जाने वाले युद्धों में ( महित्वा ) अपने महान् सामर्थ्य से ( चर्षणिभ्यः ) समस्त मनुष्यों से बढ़ जाते हैं। वे ( पृथिव्याः प्र ) अपने महान् पराक्रम और सामर्थ्य से पृथिवी से भी बढ़ जाते हैं । ( दिवः च प्र ) वे दोनों अपने महान् पराक्रम से सूर्य से भी अधिक हों । वेग में वे दोनों ( सिन्धुभ्यः प्र ) नदी प्रवाहों से भी अधिक वेगवान् हों। गम्भीरता और गुरुता में ( गिरिरभ्यः प्र ) पर्वतों से भी अधिक बड़े हों। ( विश्वा अन्या भुवना अति ) वे समस्त भुवनों, लोकों और उत्पन्न होने वाले पदार्थों से शक्ति और गुणों में अधिक हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–८ कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वायू व विद्युतप्रमाणे कोणतेही गोल महान नाहीत. कारण हे दोन्ही सर्व गोलांत व्याप्त आहेत. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Agni, universal fire, light and electric energy, by your own power and grandeur, in the battles of existence and evolution, you exceed humanity, earth, heaven, seas, mountains and all other regions of the universe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are air and electricity is taught in the sixth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    At the time of battle, Indra and Agni (air and electricity) surpass all men (in magnitude) are vaster than the earth, than the sky, than the rivers and than the mountains. They exceed all worlds and all existent things.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पृतनाहवेषु) सेनाभि: प्रवृत्तेषु युद्धेषु (इन्द्राग्नी) वायुविद्यु तौ = Air and electricity पृतना इति संग्राम नाम (निघ० २.१७ ) Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There cannot be a greater world than the air and electricity, for, they pervade all worlds.

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