ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 111/ मन्त्र 2
आ नो॑ य॒ज्ञाय॑ तक्षत ऋभु॒मद्वय॒: क्रत्वे॒ दक्षा॑य सुप्र॒जाव॑ती॒मिष॑म्। यथा॒ क्षया॑म॒ सर्व॑वीरया वि॒शा तन्न॒: शर्धा॑य धासथा॒ स्वि॑न्द्रि॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । य॒ज्ञाय॑ । त॒क्ष॒त॒ । ऋ॒भु॒ऽमत् । वयः॑ । ऋत्वे॑ । दक्षा॑य । सु॒ऽप्र॒जाव॑तीम् । इष॑म् । यथा॑ । क्षया॑म । सर्व॑ऽवीरया । वि॒शा । तत् । नः॒ । शर्धा॑य । धा॒स॒थ॒ । सु । इ॒न्द्रि॒यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो यज्ञाय तक्षत ऋभुमद्वय: क्रत्वे दक्षाय सुप्रजावतीमिषम्। यथा क्षयाम सर्ववीरया विशा तन्न: शर्धाय धासथा स्विन्द्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। यज्ञाय। तक्षत। ऋभुऽमत्। वयः। क्रत्वे। दक्षाय। सुऽप्रजावतीम्। इषम्। यथा। क्षयाम। सर्वऽवीरया। विशा। तत्। नः। शर्धाय। धासथ। सु। इन्द्रियम् ॥ १.१११.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 111; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे ऋभवो यूयं नोऽस्माकं यज्ञाय क्रत्वे दक्षाय ऋभुमद्वयः सुप्रजावतीमिषं चातक्षत यथा वयं सर्ववीरया विशा क्षयाम तथा यूयमपि प्रजया सह निवसत यथा वयं शर्द्धाय स्विन्द्रियं दध्याम तथा यूयमपि नोऽस्माकं शर्द्धाय तत् स्विन्द्रियं धासथ ॥ २ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (यज्ञाय) संगतिकरणाख्यशिल्पक्रियासिद्धये (तक्षत) निष्पादयत (ऋभुमत्) प्रशस्ता ऋभवो मेधाविनो विद्यन्ते यस्मिँस्तत् (वयः) आयुः (क्रत्वे) प्रज्ञायै न्यायकर्मणे वा (दक्षाय) बलाय (सुप्रजावतीम्) सुष्ठु प्रजा विद्यन्ते यस्यां ताम् (इषम्) इष्टमन्नम् (यथा) (क्षयाम) निवासं करवाम (सर्ववीरया) सर्वैर्वीरैर्युक्तया (विशा) प्रजया (तत्) (नः) अस्माकम् (शर्द्धाय) बलाय (धासथ) धरत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (सु) (इन्द्रियम्) विज्ञानं धनं वा ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। इह जगति विद्वद्भिः सहाविद्वांसोऽविद्वद्भिः सह विद्वांसश्च प्रीत्या नित्यं वर्तेरन्। नैतेन कर्मणा विना शिल्पविद्यासिद्धिः प्रजाबलं शोभनाः प्रजाश्च जायन्ते ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे बुद्धिमानो ! तुम (नः) हमारी (यज्ञाय) जिससे एक दूसरे से पदार्थ मिलाया जाता है उस शिल्पक्रिया की सिद्धि के लिये वा (क्रत्वे) उत्तम ज्ञान और न्याय के काम और (दक्षाय) बल के लिये (ऋभुमत्) जिसमें प्रशंसित मेधावी अर्थात् बुद्धिमान् जन विद्यमान हैं उस (वयः) जीवन को तथा (सुप्रजावतीम्) जिसमें अच्छी प्रजा विद्यमान हो अर्थात् प्रजाजन प्रसन्न होते हों (इषम्) उस चाहे हुए अन्न को (आतक्षत) अच्छे प्रकार उत्पन्न करो, (यथा) जैसे हम लोग (सर्ववीरया) समस्त वीरों से युक्त (विशा) प्रजा के साथ (क्षयाम) निवास करें तुम भी प्रजा के साथ निवास करो वा जैसे हम लोग (शर्द्धाय) बल के लिये (तत्) उस (सु, इन्द्रियम्) उत्तम विज्ञान और धन को धारण करें वैसे तुम भी (नः) हमारे बल होने के लिये उत्तम ज्ञान और धन को (धासथ) धारण करो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस संसार में विद्वानों के साथ अविद्वान् और अविद्वानों के साथ विद्वान् जन प्रीति से नित्य अपना वर्त्ताव रक्खें। इस काम के विना शिल्पविद्यासिद्धि, उत्तम बुद्धि, बल और श्रेष्ठ प्रजाजन कभी नहीं हो सकते ॥ २ ॥
विषय
ज्ञानदीप्त आयुष्य
पदार्थ
१. हे (ऋभुओ) = ज्ञानदीप्त पुरुषो ! (नः) = हमारे (वयः) = जीवन को भी (ऋभुमत्) = विशाल ज्ञानदीप्ति से दीप्त (आतक्षत) = बनाइए , ताकि (यज्ञाय) = हम यज्ञशील जीवन बिता सकें । ऋभु के सम्पर्क में हम भी ऋभु हों । हमारा जीवन यज्ञादि उत्तम कार्यों में व्यतीत हो ।
२. (क्रत्वे) = प्रज्ञान के लिए तथा (दक्षाय) = बल के लिए (सुप्रजावतीम्) = उत्तम विकासवाली (इषम्) = प्रेरणा को हमें प्राप्त कराइए । उत्तम प्रेरणा के द्वारा अपनी सब शक्तियों का विकास करते हुए हम प्रज्ञान व बल को सिद्ध कर सकें । “सुप्रजावतीम् इषम्” का अर्थ उत्तम सन्तानवाला अन्न भी है । हमारे घरों में सात्विक अन्न हो और सन्तानों की वृत्ति भी सात्त्विक बने । इस प्रकार ज्ञान और शक्ति का वर्धन ही वर्धन हो ।
३. हे ऋभुओ ! आप ऐसा करो (यथा) = जिससे हम (सर्ववीरया विशा) = पूर्णरूप से वीर प्रजा के साथ (क्षयाम) = निवास करनेवाले हों । (तत्) = वह आप (नः) = हमारे (शर्धाय) = बल के लिए (सु - इन्द्रियम्) = उत्तम वीर्य को (धासथ) = हममें धारण कीजिए । इन्द्रियम् शब्द धन के लिए भी आता है , अर्थात् उत्तम धन धारण कराइए । उत्तम धन से सब साधनों का जुटाना सम्भव होता है । वे सब धन हमारी शक्ति - वृद्धि का कारण बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा जीवन ज्ञानदीप्त व यज्ञमय हो । हम उत्तम सात्त्विक अन्नों के द्वारा अपने प्रज्ञान व शक्ति का वर्धन करें । उत्तम धनों से साधन - सम्पन्न होकर हम बलों को बढ़ानेवाले हों ।
विषय
विद्वानों के शिल्पियों के समान कर्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (नः) हमारे (वयः) जीवन को ( यज्ञाय ) उत्तम वैदिक यज्ञ या पूर्णायु रूप यज्ञ प्राप्त करने के लिये (ऋभुमत्) सत्य ज्ञान के प्रकाश से युक्त अथवा अति बलवान् प्राण से युक्त ( आतक्षत ) करो। और ( क्रत्वे ) उत्तम ज्ञान और ( दक्षाय ) बल की प्राप्ति के लिये ( सुप्रजावतीम् ) उत्तम सुखजनक प्रिय सन्तानों से युक्त ( इषम् ) अन्नादि समृद्धि को ( आतक्षत ) सब प्रकार से तैय्यार करो । (यथा) जिससे हम लोग ( सर्ववीरया विशा ) सब प्रकार के शत्रुओं को कंपा देने वाले वीर पुरुषों से युक्त प्रजा से युक्त होकर ( सुक्षयाम ) सुख से रहें ( नः ) हमारा ( तत् इन्द्रियम् ) वह बल और ऐश्वर्य ( शर्धाय ) शत्रुनाशक बल की वृद्धि के लिये ( सुधासथ ) अच्छी प्रकार सुख से धारण करो । अथवा (सुप्रजावतीम् इषम्) हम उत्तम प्रजा से युक्त कामना को ज्ञान और बल की वृद्धि के लिये करें । और ( सर्ववीरया विशा ) समस्त पुत्रों सहित स्त्री के साथ सुख से रहें । ( इन्द्रियं शर्धाय सु वासथ ) इन्द्रियों को बल वृद्धि के लिये अच्छी प्रकार दमन करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः-१-४ जगती । ५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात विद्वानांबरोबर अविद्वान व अविद्वानांबरोबर विद्वान लोकांनी सदैव प्रेमाचा व्यवहार ठेवावा. या कामाशिवाय शिल्पाविद्यासिद्धी, उत्तम बुद्धी, बल व श्रेष्ठ प्रजा कधी निर्माण होऊ शकत नाही. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Rbhus, create that youthful and vibrant health and age for our yajna of social order with science and technology which shapes the Rbhus for further advancement, create food and energy for a nation of the brave worthy of noble acts and expertise, and build up that science and wealth for our strength by which we may abide as a heroic nation in peace, security and prosperity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they (Ribhus) is taught further in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ribhus (arisen geniuses) prepare fully for our Yajna in the form of Industrial and Technological work, for our intelligence and the work of Justice for our strength; such nutritious desirable food as may be the cause of excellent progeny, so that we may live surrounded by vigorous people. Confer upon us this such excellent knowledge and wealth for our strength.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(यज्ञाय) संगतिकरणाख्यशिल्पक्रियासिद्धये = For the accomplishment of the Yajna in the form of Industrial or artistic work. (इन्द्रियम्) विज्ञानं धनं वा = Good knowledge or wealth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Highly learned men should live lovingly with ordinary people; not highly educated and ordinary persons should live with love with highly educated people. Without this, it is not possible to make progress in arts and industries, to augment the strength of the people and to have good progeny.
Translator's Notes
इन्द्रियम् इति धननाम (निघ० २.१० ) इदि-परमैश्वर्ये इति धातोरिन्द्रियम् विज्ञानरूपं परमैश्वर्यम् विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् इति भर्तृहरिकृतनीतिशतके |
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal