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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 111/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - ऋभवः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऋ॒भुर्भरा॑य॒ सं शि॑शातु सा॒तिं स॑मर्य॒जिद्वाजो॑ अ॒स्माँ अ॑विष्टु। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒भुः । भरा॑य । सम् । शि॒शा॒तु॒ । सा॒तिम् । स॒म॒र्य॒ऽजित् । वाजः॑ । अ॒स्मान् । अ॒वि॒ष्टु॒ । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋभुर्भराय सं शिशातु सातिं समर्यजिद्वाजो अस्माँ अविष्टु। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋभुः। भराय। सम्। शिशातु। सातिम्। समर्यऽजित्। वाजः। अस्मान्। अविष्टु। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.१११.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 111; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स मेधावी नरः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मेधाविन् समर्यजिदृभुर्वाजो भवान् भराय शत्रून् संशिशातु। अस्मानविष्टु तथा नोऽस्मदर्थं यन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्तां तथैव भवाँस्तत् तां सातिं नोऽस्मदर्थं निष्पादयतु ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (ऋभुः) प्रशस्तो विद्वान् (भराय) संग्रामाय। भर इति संग्रामना०। निघं० २। १७। (सम्) (शिशातु) क्षयतु। अत्र शो तनूकरण इत्यस्मात् श्यनः स्थाने बहुलं छन्दसीति श्लुः। ततः श्लाविति द्वित्वम्। (सातिम्) संविभागम् (समर्यजित्) यः समर्यान् संग्रामान् जयति सः। समर्य इति संग्रामना०। निघं० २। १७। (वाजः) वेगादिगुणयुक्तः (अस्मान्) (अविष्टु) रक्षणादिकं करोतु। अत्रावधातोर्लोटि सिबुत्सर्ग इति सिब्विकरणः। (तन्नः०) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    विदुषामिदमेव मुख्यं कर्मास्ति यद् जिज्ञासूनविदुषो विद्यार्थिनः सुशिक्षाविद्यादानाभ्यां वर्द्धयेयुः। यथा मित्रादयः प्राणादयो वा सर्वान् वर्द्धयित्वा सुखयन्ति तथैव विद्वांसोऽपि वर्त्तेरन् ॥ ५ ॥।अत्र मेधाविनां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति द्वात्रिंशो वर्ग एतत्सूक्तं (१११) च समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह मेधावी श्रेष्ठ विद्वान् क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मेधावी (समर्य्यजित्) संग्रामों के जीतनेवाले (ऋभुः) प्रशंसित विद्वान् ! (वाजः) वेगादि गुणयुक्त आप (भराय) संग्राम के अर्थ आये शत्रुओं का (संशिशातु) अच्छी प्रकार नाश कीजिये (अस्मान्) हम लोगों की (अविष्टु) रक्षा आदि कीजिये जैसे (नः) हम लोगों के लिये जो (मित्रः) मित्र (वरुणः) उत्तम गुणवाला (अदितिः) विद्वान् (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्य का प्रकाश (मामहन्ताम्) सिद्ध करें उन्नति देवें वैसे ही आप (तत्) उस (सातिम्) पदार्थों के अलग-अलग करने को हम लोगों के लिये सिद्ध कीजिये ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    विद्वानों का यही मुख्य कार्य्य है कि जो जिज्ञासु अर्थात् ज्ञान चाहनेवाले, विद्या के न पढ़े हुए विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा और विद्यादान से बढ़ावें, जैसे मित्र आदि सज्जन वा प्राण आदि पवन सबकी वृद्धि करके उनको सुखी करते हैं वैसे ही विद्वान् जन भी अपना वर्ताव रक्खें ॥ ५ ॥इस सूक्त में बुद्धिमानों के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥यह ३२ बत्तीसवाँ वर्ग और १११ एकसौ ग्यारहवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    ऋभु और वाज

    पदार्थ

    १. (ऋभुः) = वह ज्ञानदीप्त प्रभु (भराय) = इस संसार - संग्राम में विजय के लिए (सातिम्) = अन्न व धन की प्राति को (संशिशातु) = तीव्र करे । उत्तम अन्न व धन के द्वारा आवश्यक साधनों को जुटाते हुए हम संग्राम में विजयी हों । 

    २. (समर्य जित्) = संग्राम में विजयशील (वाजः) = शक्तिपुञ्ज प्रभु (अस्मान्) = हमें (अविष्टु) = रक्षित करे । वासनाओं के साथ संग्राम में प्रभुकृपा से ही हमें विजय प्राप्त होती है - विजय करनेवाले वास्तव में प्रभु ही हैं । प्रभु हमें ज्ञान देते हैं , शक्ति प्राप्त कराते हैं । इस ज्ञान व शक्ति के द्वारा हम विजय प्राप्त करते हैं । 

    ३. (नः) = हमारे (तत्) = उस विजय के संकल्प को (मित्रः) = मित्रता (वरुणः) = निर्द्वेषता , (अदितिः) = स्वास्थ्य , (सिन्धुः) = रेतः कणों के रूप में रहनेवाले जल , (पृथिवी) = दृढ़शरीर (उत द्यौः) = और ज्ञानदीप्त मस्तिष्क - ये सब (मामहन्ताम्) = आदृत करें । मित्रता आदि गुणों के धारण से हम विजयसंकल्प को पूरा कर सकें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - ऋभु और वाज का उपासन हमें इस संसार - संग्राम में विजय देनेवाला हो । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है कि ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाले व्यक्ति शरीर रथ को शोभन अङ्गोंवाला बनाते हैं [१] । ये ज्ञानदीप्त , शक्तिपुञ्ज प्रभु की उपासना से विजय प्राप्त करते हैं [५] । अगले सूक्त में अश्विनीदेवों से रक्षा की प्रार्थना की जाती है -

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    विषय

    विद्वानों के शिल्पियों के समान कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( ऋभुः ) बड़े भारी धन, बल और सत्य ज्ञान से प्रकाशित होने वाला तेजस्वी पुरुष ( भराय ) पोषण करने, यज्ञ करने और संग्राम करने के लिये (सं शिशातु) शत्रुओं का नाश करे और ( अस्मान् संशिशातु ) हमें खूब तीक्ष्ण करे । और ( समर्यजित् ) संग्रामों का विजय करने हारा पुरुष (वाजः) बलवान्, वेगवान् होकर (अस्मान्) हमारी ( अविष्टु ) रक्षा करे । ( तन्नः मित्रः ) इति पूर्ववत् । इति द्वात्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः-१-४ जगती । ५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांचे हेच मुख्य कार्य आहे की जे जिज्ञासू अर्थात ज्ञानी लोक आहेत त्यांनी अज्ञानी विद्यार्थ्यांना चांगले शिक्षण देऊन विद्यादानाने वाढवावे. जसे मित्र किंवा प्राणवायू सर्वांची वृद्धी करून त्यांना सुखी करतात तसेच विद्वान लोकांनीही आपले वर्तन ठेवावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the Rbhus grant us wealth and victory for total fulfilment. May the victor, Vaja, inspire us with courage and valour. And may Mitra, Varuna, Aditi, the seas and the rivers, earth and heaven bless this resolve and prayer of ours with success.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a genius do is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O talented learned man, you who are quick in action and movement and conqueror of your enemies, be victorious in battles and protect us. May persons who are friendly to all and noble, the earth, firmament, ocean and heaven make us respectable everywhere.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (समर्यजित् यः समर्यान् संग्रामान् जयति सः ) समर्य इति संग्रामनाम (निघ० २ १७ ) = Conqueror in battles. (बाज:) वेगादिगुणयुक्तः = Quick or active from वज-गतौ.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The paramount duty of learned persons is to enable all seekers after truth who are not so learned, to grow more and more by the gift of good education and wisdom. As friendly persons or Prana etc. make all happy by augmenting their knowledge and strength, scholars should also do likewise.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of the attributes of talented persons in this as in that hymn. Here ends the commentary on the 111th hymn and 32nd Verga of the first Mandala of the Rigveda.

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