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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 115 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 115/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - सूर्यः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒ मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात्। यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑ वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्यः॑ । दे॒वीम् । उ॒षसम् । रोच॑मानाम् । मर्यः॑ । न । योषा॑म् । अ॒भि । ए॒ति॒ । प॒श्चात् । यत्र॑ । नरः॑ । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । यु॒गानि॑ । वि॒ऽत॒न्व॒ते । प्रति॑ । भ॒द्राय॑ । भ॒द्रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषामभ्येति पश्चात्। यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यः। देवीम्। उषसम्। रोचमानाम्। मर्यः। न। योषाम्। अभि। एति। पश्चात्। यत्र। नरः। देवऽयन्तः। युगानि। विऽतन्वते। प्रति। भद्राय। भद्रम् ॥ १.११५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 115; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरकृत्यमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या येनेश्वरेणोत्पाद्य स्थापितोऽयं सूर्यो रोचमानां देवीमुषसं पश्चान् मर्यो योषां नेवाभ्येति यत्र यस्मिन् विद्यमाने मार्त्तण्डे देवयन्तो नरो युगानि विज्ञाय भद्राय भद्रं प्रति वितन्वते। तमेव सकलस्रष्टारं यूयं विजानीत ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (सूर्य्यः) सविता (देवीम्) द्योतिकाम् (उषसम्) सन्धिवेलाम् (रोचमानाम्) रुचिकारिकाम् (मर्यः) पतिर्मनुष्यः (न) इव (योषाम्) स्वभार्याम् (अभि) अभितः (एति) (पश्चात्) (यत्रा) यस्मिन्। अत्र दीर्घः। (नरः) नयनकर्त्तारो गणकाः (देवयन्तः) कामयमाना गणितविद्यां जानन्तो ज्ञापयन्तः (युगानि) वर्षाणि कृतत्रेताद्वापरकलिसंज्ञानि वा (वितन्वते) विस्तारयन्ति (प्रति) (भद्राय) कल्याणाय (भद्रम्) कल्याणम् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो युष्माभिर्येनेश्वरेण सूर्य्यं निर्माय प्रतिब्रह्माण्डस्य मध्ये स्थापितस्तमाश्रित्य गणितादयः सर्वे व्यवहाराः सिध्यन्ति स कुतो न सेव्येत ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर ईश्वर का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस ईश्वर ने उत्पन्न करके (कक्षा) नियम में स्थापन किया यह (सूर्य्यः) सूर्य्यमण्डल (रोचमानाम्) रुचि कराने (देवीम्) और सब पदार्थों को प्रकाशित करनेहारी (उषसम्) प्रातःकाल की वेला को उसके होने के (पश्चात्) पीछे जैसे (मर्य्यः) पति (योषाम्) अपनी स्त्री को प्राप्त हो (न) वैसे (अभ्येति) सब ओर से दौड़ा जाता है, (यत्र) जिस विद्यमान सूर्य्य में (देवयन्तः) मनोहर चाल-चलन से सुन्दर गणितविद्या को जानते-जनाते हुए (नरः) ज्योतिष विद्या के भावों को दूसरों की समझ में पहुँचानेहारे ज्योतिषी जन (युगानि) पाँच-पाँच संवत्सरों की गणना से ज्योतिष में युग वा सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग को जान (भद्राय) उत्तम सुख के लिये (भद्रम्) उस उत्तम सुख के (प्रति, वितन्वते) प्रति विस्तार करते हैं, उसी परमेश्वर को सबका उत्पन्न करनेहारा तुम लोग जानो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! तुम लोगों से जिस ईश्वर ने सूर्य्य को बनाकर प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थापन किया, उसके आश्रय से गणित आदि समस्त व्यवहार सिद्ध होते हैं, वह ईश्वर क्यों न सेवन किया जाय ॥ २ ॥

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    विषय

    उषा के पीछे आता हुआ सूर्य महातार

    पदार्थ

    १. (सूर्यः) = सूर्य (रोचमानाम्) = चमकती हुई (देवीम्) = प्रकाशमयी (उषसम्) = उषा के (पश्चात्) = पीछे (अभ्येति) = उसी प्रकार आता है (न) = जैसेकि (मर्यः) = मनुष्य (योषाम्) = पत्नी के पीछे आता है । उषा मानो पत्नी है , सूर्य उसका पति । ये पति - पत्नी जब आते हैं तब हमें इनके स्वागत के लिए तैयार रहना चाहिए । उस समय लेटे रहना या व्यर्थ की प्रवृत्तियों में लगना तो इनका निरादर ही है । २. यह समय वह होता है (यत्र) = जिसमें (देवयन्तः नरः) = अपने को देव बनाने की कामनावाले पुरुष (युगानि) = द्वन्द्वरूप में होकर , अर्थात् पति - पत्नी मिलकर (भद्राय) = कल्याण व सुख की प्राप्ति के लिए (भद्रम्) = कल्याण व सुख के साधक यज्ञ को (प्रतिवितन्वते) = प्रतिदिन विस्तृत करते हैं । इन यज्ञों से [क] उनकी वृत्ति दिव्य बनती है , [ख] उनका कल्याण होता है , [ग] वे उषा और सूर्य का सच्चा पूजन कर पाते हैं । सूर्य के सामने हाथ जोड़ना सूर्य का पूजन नहीं है । सूर्योदय के समय यज्ञादि करना ही सूर्य - पूजन है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा के पीछे आते हुए सूर्य का हमें स्वागत करना चाहिए । उस समय यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति, विद्वान् तेजस्वी पुरुष के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( मर्यः रोचमानां देवीं योषां न) विवाह काल में जिस प्रकार पुरुष अपने रुचि की, प्रेमपात्री स्त्री के ( पश्चात् अभि एति ) पीछे पीछे चलता है उसी प्रकार (रोचमानां) कान्ति वाली, ( उषसं देवीं ) प्रकाशमयी उषा के ( पश्चात् ) पीछे पीछे ( सूर्यः अभि-एति ) सूर्य भी चलता है । ( यत्रा ) जिसके आश्रय पर ( देवयन्तः नरः ) नाना सुखों की कामना करने वाले विद्वान् पुरुष ( भद्राय ) कल्याणकारी पुरुष के हाथ ( भद्रम् ) उसको सुखकारी स्त्री रूप ऐश्वर्य ( प्रति ) प्रदान करके ( युगानि ) युग अर्थात् जोड़े ( वितन्वते ) बना देते हैं । (२) इसी प्रकार जिस सूर्य का आश्रय लेकर ( देवयन्तः नरः ) विद्वान् गणितज्ञ जन, ( भद्राय भद्रं प्रति ) भले को भले पदार्थ प्रदान करते हुए (युगानि वितन्वते) पांच पांच संवत्सरों की गणना से कृत, त्रेता, द्वापर, कलि आदि युगों की कल्पना करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः॥ सूर्यो देवता॥ छन्दः- १, २, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (सूर्य:-रोचमानाम् उषसं देवीम् अभि एति पश्चात् मर्य:-न योषाम्) वह सूर्य जो कि सुभ्रा उषा देवी प्रातः काल में आने वाली के पीछे पीछे गति करता है- प्राप्त होता है जैसे मनुष्य स्त्री के पीछे पीछे गति करता है (यत्र देवयन्तः-नरः-युगानि वितन्वते) जिन विवाह अवसरों पर दिव्य पुत्र चाहते हुए मनुष्य अपने जीवन के युगों कालों का विस्तार करते हैं (भद्राय प्रति भद्रम्) पति पत्नी परस्पर कल्याण के बदले कल्याण को प्राप्त करते हैं। अथवा (यत्र देवयन्तः-नरः-युगानि वितन्वते) उषा के पश्चात् जिस सूर्य के प्रतिदिन गमन होने में या सूर्य के आधार पर देवों द्युस्थान के ग्रह नक्षत्रों को चाहते हुए उनका ज्ञान ज्योतिर्विद्या से चाहते हुए ज्योतिषी जन प्रत्येक ग्रह के युगों कालमानों का विस्तार करते हैं (भद्राय प्रति भद्रम्) इस प्रकार युग-काल गणना से परस्परजन एक दूसरे के कल्याण के प्रतीकार में कल्याण करे अर्थात् कल जिसने कल्याण किया उसके लिये आज कल्याण करना चाहिये तथा इस पृथिवी पर अन्न का वपन करे भविष्य में ऋतु पर अन्न प्राप्ति के लिए कालगणना से "अन्नं वै भद्रम्" [तै० २|३|३|६] सूर्य वह है जो उपा के पीछे आकाश में गति करता आता हुआ दृष्ट होता है तथा जिससे कालमान माना या जाना जाता है तथा ग्रह नक्षत्रों का ज्ञान होता है ऋतु क्रम से अन्नादि की प्राप्ति होती है ॥२॥

    विशेष

    ऋषिः– कुत्स आङ्गिरसः (स्तोमों लोकस्तरों का ज्ञान कर्ता अग्नि-तत्त्ववेत्ता) देवता- सूर्यः!

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! ज्या ईश्वराने सूर्य उत्पन्न करून प्रत्येक ब्रह्मांड निर्माण केलेले आहे, त्याच्या आश्रयाने गणित इत्यादी संपूर्ण व्यवहार सिद्ध होतात. त्या ईश्वराचे सेवन का करू नये? ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The sun follows the brilliant and beautiful dawn just like a youthful lover who pursues his beloved. And therein, with reference to that, the leading astronomers of the stars extend their noble vision for the calculation of ages for the good of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are told in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, know that God to be the Creator of the whole world, in whose creation this sun follows the divine and brilliant Usha (dawn) as a man follows a young and elegant woman, in whose (of the sun) presence, leading knowers of the Mathematics and astronomy teaching the same to others and desirous of being enlightened, calculate the years or four ages named Krita, Treta, Dyapara and Kali for the sake of doing good to others.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (नरः) नयनकर्तारो गणका: = Leading Mathematicians or astronomers. (युगानि) वर्षाणि कृतत्रेताद्वापरकलिसंज्ञानि वा = Years or four ages named Krita, Treta, Dvapara and Kali.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, why should not that God be adored by all who has created the sun and established it in every world and on the basis of which (Sun) all calculations in Mathematics are made ?

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