ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 115/ मन्त्र 4
तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार। य॒देदयु॑क्त ह॒रित॑: स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । सूर्य॑स्य । दे॒व॒ऽत्वम् । तत् । म॒हि॒ऽत्वम् । म॒ध्या । कर्तोः॑ । विऽत॑तम् । सम् । ज॒भा॒र॒ । य॒दा । इत् । अयु॑क्त । ह॒रितः॑ । स॒धऽस्था॑य् । आत् । रात्री॑ । वासः॑ । त॒नु॒ते॒ । सि॒मस्मै॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार। यदेदयुक्त हरित: सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। सूर्यस्य। देवऽत्वम्। तत्। महिऽत्वम्। मध्या। कर्तोः। विऽततम्। सम्। जभार। यदा। इत्। अयुक्त। हरितः। सधऽस्थात्। आत्। रात्री। वासः। तनुते। सिमस्मै ॥ १.११५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 115; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तत्कृत्यमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यदा तत् सूर्यस्य मध्या विततं सत् ब्रह्मैतस्य देवत्वं महित्वं कर्त्तोः सञ्जभार प्रलयसमये संहरति आत् यदा सृष्टिं करोति तदा सूर्यमयुक्तोत्पाद्य कक्षायां स्थापयति, सूर्यः सधस्थाद्धरितः किरणैर्व्याप्य सिमस्मै वासस्तनुते, यस्य तत्वाद्रात्री जायते तदिदेव ब्रह्म यूयमुपाध्वं तेदव जगत्कर्त्तृ विजानीत ॥ ४ ॥
पदार्थः
(तत्) यत् प्रथममन्त्रोक्तं ब्रह्म (सूर्यस्य) सूर्यमण्डलस्य (देवत्वम्) देवस्य प्रकाशमयस्य भावः (तत्) (महित्वम्) (मध्या) मध्ये। अत्र सप्तम्येकवचनस्याकारः। (कर्त्तोः) कर्म (विततम्) व्याप्तम् (सम्) (जभार) हरति (यदा) (इत्) (अयुक्त) युनक्ति (हरितः) दिशः (सधस्थात्) समानस्थानात् (आत्) अनन्तरम् (रात्री) (वासः) वसनम् (तनुते) (सिमस्मै) सर्वस्मै लोकाय ॥ ४ ॥
भावार्थः
हे सज्जना यदपि सूर्य आकर्षणेन पृथिव्यादिपदार्थान् धरति पृथिव्यादिभ्यो महानपि वर्त्तते विश्वं प्रकाश्य व्यवहारयति च तदप्ययं परमेश्वरस्योत्पादनधारणाकर्षणैर्विनोत्पत्तुं स्थातुमाकर्षितुं च न शक्नोति नैतमीश्वरमन्तरेणेदृशानां लोकानां रचनं धारणं प्रलयं च कर्त्तुं कश्चित् समर्थो भवति ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी सूर्य का काम अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यदा) जब (तत्) वह पहिले मन्त्र में कहा हुआ (सूर्य्यस्य) सूर्यमण्डल के (मध्या) बीच में (विततम्) व्याप्त ब्रह्म इस सूर्य्य के (देवत्वम्) प्रकाश (महित्वम्) बड़प्पन (कर्त्तोः) और काम का (संजभार) संहार करता अर्थात् प्रलय समय सूर्य्य के समस्त व्यवहार को हर लेता (आत्) और फिर जब सृष्टि को उत्पन्न करता है तब सूर्य्य को (अयुक्त) युक्त अर्थात् उत्पन्न करता और नियत कक्षा में स्थापन करता है। सूर्य्य (सधस्थात्) एक स्थान से (हरितः) दिशाओं को अपनी किरणों से व्याप्त होकर (सिमस्मै) समस्त लोक के लिये (वासः) अपने निवास का (तनुते) विस्तार करता तथा जिस ब्रह्म के तत्त्व से (रात्री) रात्री होती है (तत्, इत्) उसी ब्रह्म की उपासना तुम लोग करो तथा उसी को जगत् का कर्त्ता जानो ॥ ४ ॥
भावार्थ
हे सज्जनो ! यद्यपि सूर्य्य आकर्षण से पृथिवी आदि पदार्थों का धारण करता है, पृथिवी आदि लोकों से बड़ा भी वर्त्तमान है। संसार का प्रकाश कर व्यवहार भी कराता है तो भी यह सूर्य्य परमेश्वर के उत्पादन, धारण और आकर्षण आदि गुणों के विना उत्पन्न होने, स्थिर रहने और पदार्थों का आकर्षण करने को समर्थ नहीं हो सकता। न इस ईश्वर के विना ऐसे-ऐसे लोक-लोकान्तरों की रचना, धारणा और इनके प्रलय करने को कोई समर्थ होता है ॥ ४ ॥
विषय
सूर्य का महत्व
पदार्थ
१. (तत्) = वही (सूर्यस्य) = सूर्य का (देवत्वम्) = ईश्वरत्व है और (तत्) = वही (महित्वम्) = महत्त्व है कि (कर्तोः मध्या) = कर्मों के बीच में ही (विततम्) = सर्वत्र फैले अपने किरणसमूह को (संजभार) = संहत कर लेता है । सूर्य की किरणें संकुचित हुई और अन्धकार के कारण सब कार्य बीच में ही रुक जाते हैं । २. (यदा इत्) = जब ही यह सूर्य (सधस्थात्) = [सह - स्थ] सब प्राणियों के साथ ठहरनेवाले इस पार्थिव लोक से (हरितः) = अपनी किरणों को (अयुक्त) = लेकर अन्यत्र संगत करता है तो (आत्) = उसके अनन्तर (रात्री) = रात (सिमस्मै) = सबके लिए (वासः) = अपने अन्धकाररूप कृष्ण वस्त्र को (तनुते) = विस्तृत करती है । सूर्यकिरणें संकुचित हुई और सम्पूर्ण जगत् अन्धकार के वस्त्र से आवृत हुआ ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्य का महत्त्व तब ध्यान में आता है जब सूर्यकिरणें अस्त होती हैं । उस समय अन्धकार हो जाता है और सब काम बीच में ही रुक जाते हैं ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति, विद्वान् तेजस्वी पुरुष के कर्तव्य ।
भावार्थ
( सूर्यस्य ) सूर्य का जिस प्रकार ( तत् देवत्वं तत् महित्वम् ) स्वतः प्रकाशित होकर अन्यों को प्रकाश देना और महान् सामर्थ्य वाला होना यही ( तत् ) अनुपम है । वह ( कर्त्तोः मध्या ) लोक व्यवहार के कार्यों के चलते रहने पर भी बीच में ( विततं संजभार ) अपने विस्तृत प्रकाश को संहार कर लेता है। ( यदा इत् ) सूर्य जब भी ( सधस्थात् ) एक ही स्थान से ( हरितः अयुक्त ) किरणें फैलाता है और दिन को प्रकट करता है और (आत्) बाद में ( रात्री ) रात्रिकाल ( सिमस्मै वासः तनुते ) सब पर अपना काले वस्त्र के समान अन्धकार रूप आवरण फैला देती है उसी प्रकार ( सूर्यस्य ) सबके प्रेरक परमेश्वर का ( देवत्वम्) देवत्व भी ( तत् ) वह बड़ा अलौकिक है । परम प्रकाश और अक्षय दान सामर्थ्य भी बड़ा अद्भुत है और ( महित्वं तत् ) उसका महान् सामर्थ्य भी अलौकिक है कि ( कर्त्तोः मध्या ) बनाये हुए इस जगत् के बीच में ( विततं ) विस्तृत इस लोक को भी ( संजभार ) संहार कर देता है अर्थात् रचे लोकों का प्रलय करदेता है । (यदाइत्) जब वह एक तरफ ( हरितः ) अन्धकार को दूर करनेवाले प्रकाशमान सूर्यों को ( अयुक्त ) स्थापित करता है तो भी दूसरी ओर (आत्) अनन्तर (रात्री) महा प्रलय रात्रि ( सिमस्मै ) समस्त जगत् पर पुनः सबको आवरण करने वाले अन्धकार को भी फैला देती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स ऋषिः॥ सूर्यो देवता॥ छन्दः- १, २, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(सूर्यस्य तत्-देवत्वं तत्-महित्वम्) सूर्य का वह देवत्व प्रकाश-प्रदातृता है वह महित्व-शक्तिमत्ता भी है कि (कर्तों:-मध्ये विततं सञ्जभार) कृषक आदि मनुष्यों के द्वारा क्रियमाणकिये जाते हुए कर्मों के मध्य में पूर्ण कर्म होते हुए अपने फैले रश्मिप्रकाश को संहृत कर लेता है-समेट लेता है यह उसकी महत्ता है अन्यथा क्रियमाण कर्म के लोभ में अविश्राम से मनुष्य कर्म करने में असमर्थ हो जावें । पश्चात् (यदा-इत्-सधस्थात् हरित:-युक्त) जब ही सब जनों के समान स्थान कर्मस्थान से हटा कर किरणरूप घोडों को अपने मण्डल में युक्त कर लेता है (रात्री सिमस्मै वासः-तनुते) रात्री सबके लिये ढकने वाले अन्धकाररूप वस्त्र को तान देती है। सूर्य वह है जो प्रकाश को फैलाता है जिसका प्रकाश न रहने पर रात्रि हो जाती है, दिन रात्रि का प्रवर्तक सूर्य है ॥४॥
टिप्पणी
(सूर्यस्य तत्-देवत्वं तत्-महित्वम्) जगत्प्रकाशक परमात्मा का वह यह देवत्व-प्रकाशकत्व और वह यह महत्त्वशक्तिमत्ता है कि (कर्ता:-मध्या विततं संजभार) कर्म करते हुए के मध्य में इस फैले जगत् का संहार कर देता है उनके विश्राम और नूतन शक्ति की प्राप्ति के लिए यह उसकी महती शक्ति है और महती कृपा है (यदा इत् सधस्थात्-हरित: प्रयुक्त) जब वह परमात्मा सहस्थान जहां कि जीवात्माएं साथ परस्पर कर्म करते हैं उस इस जगत् से अपने हरणशील धर्मों को युक्त करता है तो फिर (रात्री सिमस्मै वासः तनुते) प्रलय सब के लिए सो जाने के लिए सुषुप्त हो जाने के वस्त्र तान देती है॥४॥
विशेष
ऋषिः– कुत्स आङ्गिरसः (स्तोमों लोकस्तरों का ज्ञान कर्ता अग्नि-तत्त्ववेत्ता) देवता- सूर्यः!
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! सूर्य जरी आपल्या आकर्षणाने पृथ्वी वगैरेंना धारण करतो. पृथ्वीपेक्षा मोठा असून जगात प्रकाश फैलावून व्यवहार करवितो तरीही सूर्य परमेश्वराचे उत्पादन, धारण व आकर्षण या गुणांशिवाय उत्पन्न होणे, स्थिर राहणे व पदार्थांचे आकर्षण करणे इत्यादी करण्यास समर्थ झाला नसता. ईश्वराशिवाय अशा लोकलोकांतरांची रचना, धारणा व प्रलय करण्यास कोणी समर्थ बनू शकत नाही. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That Lord of the universe, Omnipotent Light of creation, is the Sun, Savita, who holds and sustains the light and grandeur of the sun pervading in the world of action. And it is He who withdraws and folds up the same divinity and grandeur of the sun. And when the Lord withdraws the light of the sun, then the Night of Pralaya absorbs everything of existence into her fold of darkness. (This is the story of the eternal round of evolution and involution of the universe.) When the sun, in the daily round of day-light and darkness at night, collects the rays of light from down below then the night spreads her cover of darkness over all. (This is the story of the daily round of the day- night cycle.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The functions of the sun are taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! God who is within the sun withdraws the divinity, majesty and work of the solar world, at the time of dissolution. When (God) creates the universe, He having generated establishes the sun in his axis. He pervades the directions with his rays from the same place and clothes the whole world (gives light and shelter). It is by God's ordained law that the night extends the veiling darkness over all after the sunset. You must adore only that one God and know Him to be the Creator of the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कर्तो:) कर्म = Work, act. सधस्थात् समानस्थानात् = From the same place. (सिमस्मै) सर्वस्मै लोकाय = For the whole world.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O good men ! You should know that the sun upholds the earth and other worlds by His attracting gravitating Power, illuminates them and is greater than these worlds. But he (sun) can not generate, uphold or gravitate without the creative, upholding and gravitative power of God. None except God is able to create, uphold and dissolve these worlds.
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