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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 115 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 115/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - सूर्यः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒द्या दे॑वा॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ निरंह॑सः पिपृ॒ता निर॑व॒द्यात्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒द्य । दे॒वाः॒ । उत्ऽइ॑ता॑ । सूर्य॑स्य । निः । अंह॑सः । पि॒पृ॒त । निः । अ॒व॒द्यात् । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अद्य। देवाः। उत्ऽइता। सूर्यस्य। निः। अंहसः। पिपृत। निः। अवद्यात्। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.११५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 115; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे देवाः सूर्यस्योपासनेनोदिता प्रकाशमानाः सन्तो यूयं निरवद्यादंहसो निष्पिपृत यन् मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः प्रसाध्नुवन्ति तन्नोऽस्मान् सुखयति तदद्य भवन्तो मामहन्ताम् ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (अद्य) इदानीम्। अत्र दीर्घः। (देवाः) विद्वांसः (उदिता) उत्कृष्टप्राप्तौ (सूर्य्यस्य) जगदीश्वरस्य (निः) नितराम् (अंहसः) पापात् (पिपृत) अत्र दीर्घः। (निः) (अवद्यात्) गर्ह्यात् (तत्, नः०) पूर्ववत् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः पापाद्दूरे स्थित्वा धर्ममाचर्य जगदीश्वरमुपास्य शान्त्या धर्मार्थकाममोक्षाणां पूर्त्तिः संपाद्या ॥ ६ ॥अत्र सूर्यशब्देनेश्वरसवितृलोकार्थवर्णनादस्य सूक्तस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ ।इति प्रथमण्डले षोडशोऽनुवाकः पञ्चदशोत्तरशततमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (देवाः) विद्वानो ! (सूर्य्यस्य) समस्त जगत् को उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर की उपासना से (उदिता) उदय अर्थात् सब प्रकार से उत्कर्ष की प्राप्ति में प्रकाशमान हुए तुम लोग (निः) निरन्तर (अवद्यात्) निन्दित (अंहसः) पाप आदि कर्म से (निष्पिपृत) निर्गत होओ अर्थात् अपने आत्मा, मन और शरीर आदि को दूर रक्खो तथा जिसको (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) प्रकाश आदि पदार्थ सिद्ध करते हैं (तत्) वह वस्तु वा कर्म (नः) हम लोगों को सुख देता है, उसको तुम लोग (अद्य) आज (मामहन्ताम्) बार-बार प्रशंसित करो ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि पाप से दूर रह धर्म का आचरण और जगदीश्वर की उपासना कर शान्ति के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की परिपूर्ण सिद्धि करें ॥ ६ ॥इस सूक्त में सूर्य शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक के अर्थ का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥ यह १ मण्डल में १६ वाँ अनुवाक ११५ वाँ सूक्त और ७ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥ इस सूक्त में सूर्य शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक के अर्थ का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥ यह १ मण्डल में १६ वाँ अनुवाक ११५ वाँ सूक्त और ७ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अंहस व अवद्य से दूर

    पदार्थ

    १. हे (देवाः) = सूर्य की देदीप्यमान रश्मियों के समान ज्ञानरश्मियों से दीप्त देवपुरुषो ! (अद्य) = आज (सूर्यस्य उदिता) = सूर्य के उदय होते ही (अंहसः) = पाप से (निः आ पिपृत) = हमें निश्चय से पार करो , (अवद्यात्) = निन्दनीय [अवाच्य] बातों से हमें पृथक् करो । सूर्य की रश्मियाँ जैसे अन्धकार को दूर करती हैं , उसी प्रकार इन देवों की ज्ञानरश्मियाँ हमारे पापान्धकार को दूर करनेवाली हौं । २. (तत्) = हमारे इस पाप व अवद्य से ऊपर उठने के संकल्प को (मित्रः) = मित्र , (वरुणः) = वरुण , (अदितिः) = स्वास्थ्य , (सिन्धुः) शरीर में स्थित रेतः कणरूप जल , पृथिवी - दृढ़ शरीर (उत) = और (द्यौः) = दीप्त मस्तिष्क (मामहन्ताम्) = आदृत करें । ‘स्नेह , निर्द्वेषता , स्वास्थ्य , ऊर्ध्वरेतस्कता , दृढ़ शरीर व दीप्त मस्तिष्क’ - ये सब मिलकर हमारे जीवन को ‘अंहस व अवद्य’ से ऊपर उठानेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रातः वेला में देवों से ज्ञान प्राप्त करके पाप व निन्दनीय बातों से दूर हों ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का आरम्भ इन शब्दों से हुआ है कि यह सूर्य का प्रकाश मित्र , वरुण व अग्नि का प्रकाशक है [२] । पाँचवें मन्त्र में इसी बात पर पुनः बल देकर छठे मन्त्र में कहा है कि यह प्रकाश हमें पाप व निन्दनीय बातों से दूर करे [६] । इस प्रकार यह कुत्स आङ्गिरस ऋषि उन्नति के लिए कटिबद्ध होने के कारण कक्षीवान् कहलाता है । अगले सूक्त का ऋषि यह कक्षीवान् ही है । यह अश्विनौ [प्राणापान] का स्तवन करता है -

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति, विद्वान् तेजस्वी पुरुष के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अद्य ) आज हे ( देवाः ) विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( सूर्यस्य उदिता ) सूर्य के उदय के समान हृदय में सर्वोत्पादक परमेश्वर के ज्ञानोदय हो जाने पर ( अवद्यात् ) निन्दनीय ( अंहसः ) पाप से भी ( निः पिपृत ) सर्वथा मुक्त हो जाओ । (तन्नो मित्रो०) इत्यादि पूर्ववत् । इति सप्तमो वर्गः ॥ इति षोडशोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः॥ सूर्यो देवता॥ छन्दः- १, २, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (सूर्यस्य-उदिता देवाः-अद्य-अंहसः-निः-पिपृत-अवद्यात्निः) सूर्य के 'उदितौ' उदय वेला में किरणें आज पाप रोग से अंहस जैसे कृमिरोग से रक्षा करो तथा न बताने योग्य मानस दोष उन्माद जैसे से रक्षा करो (तत्-मित्र:-वरुणः-अदितिः-सिन्धुः पृथिवी-उत द्यौ:-मामहन्ताम्) मित्र-सूर्य का प्रेरणधर्म वरुण-आकर्षण धर्म, उषा, स्यन्दनशील जलप्रवाह, पृथिवी और द्युलोक- मेघमण्डल मुझे महत्त्वपूर्ण बनावें सुरक्षित रखें। सूर्य वह है जिसके साथ किरणें प्रेरणधर्म, आकर्षणधर्म, उषा, जलप्रवाह, पृथिवी और द्युलोक का सम्बद्ध है ॥६॥

    टिप्पणी

    (सूर्यस्य-उदिता-देवा:-अद्य अंहसः निःपिपृत-अवद्यात्निः) जगत्प्रकाशक सूर्य परमात्मा ध्यानी मनस्वी के अन्दर उदित प्रकाशमान हो जाने पर अद्य इसी जीवन में उसका ज्ञानधाराएं पाप से बचाती हैं अवद्य कथनीय ज्ञान से भी रक्षा करती हैं (मित्रः-वरुणः-अदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः-मामहन्ताम्) मित्र-प्रेरणा प्रदान सर्जन और वरुण आकर्षण आदान संहार ज्ञानदीप्ति सिन्धु-स्यन्दमान| कर्म प्रवाह, पृथिवी माता द्युलोक पिता मुझे महत्त्व प्रदान करें सुरक्षित रखें ॥६॥

    विशेष

    ऋषिः– कुत्स आङ्गिरसः (स्तोमों लोकस्तरों का ज्ञान कर्ता अग्नि-तत्त्ववेत्ता) देवता- सूर्यः!

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी पापापासून दूर राहून धर्माचे आचरण व जगदीश्वराची उपासना करून शांतीने धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाची परिपूर्ण सिद्धी करावी. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O powers divine and vitalities of nature born of the rising sun, pure and immaculate, save us to-day from whatever is sinful and despicable. And may the day and night, the wide space, the rivers and the sea, the earth and the heavens of light, we pray, bless us to rise in our hopes and endeavours.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O truthful learned persons, being enlightened by the Communion with God-the Divine Sun-the Light of Lights, deliver us from all heinous crimes and sins. May that which Prana, Udana, (two kinds of vital breaths) firmament, Ocean, earth and heaven accomplish, make us happy and respectable everywhere. You may admire them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (उदिता) उत्कृष्टप्राप्तौ = On the sublime attainment. (सूर्यस्य) जगदीश्वरस्य = Of God. (अवद्यात् ) गर्ह्यत् = Worthy of condemnation, despicable.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always keep themselves away from sins, should observe Dharma (righteousness) should have communion with God and having thus attained peace should accomplish Dharma, Artha (wealth) Karma (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipation). This hymn is connected with previous hymn the as by the word सूर्य is meant here God and sun.

    Translator's Notes

    Here ends the commentary on the 115th hymn and seventh Verga of the first Mandala of the Rig Veda.

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