ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 115/ मन्त्र 5
तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑। अ॒न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ पाज॑: कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रित॒: सं भ॑रन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । अ॒भि॒ऽचक्षे॑ । सूर्यः॑ । रू॒पम् । कृ॒णु॒ते॒ । द्योः । उ॒पऽस्थे॑ । अ॒न॒न्तम् । अ॒न्यत् । रुश॑त् । अ॒स्य॒ । पाजः॑ । कृ॒ष्णम् । अ॒न्यत् । ह॒रितः॑ । सम् । भ॒र॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे। अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाज: कृष्णमन्यद्धरित: सं भरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। मित्रस्य। वरुणस्य। अभिऽचक्षे। सूर्यः। रूपम्। कृणुते। द्योः। उपऽस्थे। अनन्तम्। अन्यत्। रुशत्। अस्य। पाजः। कृष्णम्। अन्यत्। हरितः। सम्। भरन्ति ॥ १.११५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 115; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यूयं यस्य सामर्थ्यान् मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे द्योरुपस्थे स्थितः सन् सूर्योऽनेकविधं रूपं कृणुते। अस्य सूर्य्यस्यान्यद्रुशत्पाजो रात्रेरन्यत्कृष्णं रूपं हरितो दिशः सं भरन्ति तदनन्तं ब्रह्म सततं सेवध्वम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(तत्) चेतनं ब्रह्म (मित्रस्य) प्राणस्य (वरुणस्य) उदानस्य (अभिचक्षे) संमुखदर्शनाय (सूर्य्यः) सविता (रूपम्) चक्षुर्ग्राह्यं गुणम् (कृणुते) करोति (द्योः) प्रकाशस्य (उपस्थे) समीपे (अनन्तम्) देशकालवस्तुपरिच्छेदशून्यम् (अन्यत्) सर्वेभ्यो भिन्नं सत् (रुशत्) ज्वलितवर्णम् (अस्य) (पाजः) बलम्। पाज इति बलना०। निघं० २। ९। (कृष्णम्) तिमिराख्यम् (अन्यत्) भिन्नम् (हरितः) दिशः (सम्) (भरन्ति) धरन्ति ॥ ५ ॥
भावार्थः
यस्य सामर्थ्येन रूपदिनरात्रिप्राप्तिनिमित्तः सूर्यः श्वेतकृष्णरूपविभाजकत्वेनाहर्निशं जनयति तदनन्तं ब्रह्म विहाय कस्याप्यन्यस्योपासनं मनुष्या नैव कुर्य्युरिति विद्वद्भिः सततमुपदेष्टव्यम् ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग जिसके सामर्थ्य से (मित्रस्य) प्राण और (वरुणस्य) उदान का (अभिचक्षे) सम्मुख दर्शन होने के लिये (द्यौः) प्रकाश के (उपस्थे) समीप में ठहरा हुआ (सूर्य्यः) सूर्य्यलोक अनेक प्रकार (रूपम्) प्रत्यक्ष देखने योग्य रूप को (कृणुते) प्रकट करता है। (अस्य) इस सूर्य के (अन्यत्) सबसे अलग (रुशत्) लाल आग के समान जलते हुए (पाजः) बल तथा रात्रि के (अन्यत्) अलग (कृष्णम्) काले-काले अन्धकार रूप को (हरितः) दिशा-विदिशा (सं, भरन्ति) धारण करती हैं (तत्) उस (अनन्तम्) देश, काल और वस्तु के विभाग से शून्य परब्रह्म का सेवन करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
जिसके सामर्थ्य से रूप, दिन और रात्रि की प्राप्ति का निमित्त सूर्य श्वेत-कृष्ण रूप के विभाग से दिन-रात्रि को उत्पन्न करता है, उस अनन्त परमेश्वर को छोड़कर किसी और की उपासना मनुष्य नहीं करें, यह विद्वानों को निरन्तर उपदेश करना चाहिये ॥ ५ ॥
विषय
मित्र व वरुण का प्रकाश
पदार्थ
१. (सूर्यः) = सूर्य (द्यौः उपस्थे) = द्युलोक की गोद में , अर्थात् द्युलोक में (रूपम्) = सबके निरूपक - प्रकाशक तेज को (कृणुते) = करता है । (तत्) = सूर्य का यह तेज (मित्रस्य वरुणस्य) = प्राण व उदानशक्ति के (अभिचक्षे) = प्रकाशन के लिए होता है । सूर्य के इस प्रकाशक तेज का परिणाम हमारे जीवनों में प्राण व उदानशक्ति के विकास के रूप में होता है । प्राणशक्ति के विकास से चक्षु , श्रोत्र , मुख व नासिका आदि के कार्य सुचारुरूपेण सम्पन्न होते हैं और उदानशक्ति कण्ठ के कार्य को ठीक प्रकार से करती है । २. (अस्य हरितः) = इस सूर्य की किरणें (अनन्तम्) = अन्त से रहित (अन्यत्) = विलक्षण (रुशत्) = उज्ज्वल (पाजः) = बल को (संभरन्ति) = हमारे शरीरों में धारण करती हैं । यही बल प्राण है । यहाँ मन्त्र में इन्हें मित्र शब्द से कहा गया है । इस सूर्य की किरणें (अन्यत्) = इस देदीप्यमान शक्ति से भिन्न (कृष्णम्) = उदान नामक शक्ति को , जोकि कण्ठ देश में रहती हुई रोगों को शरीर से बाहर ले - जाने [कृष्ण - खेंचना] का कार्य करती है , धारण करती है । दिन के साथ मित्र का सम्बन्ध है तो रात्रि के साथ वरुण का । रात्रि के समय अन्धकार हो जाने से भी इस तेज को कृष्ण नाम दिया गया है ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्यकिरणें हमारे अन्दर प्राणोदान - शक्ति के विकास का कारण हों ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति, विद्वान् तेजस्वी पुरुष के कर्तव्य ।
भावार्थ
( मित्रस्य ) मित्र, वायु ( वरुणस्य ) आकाश को आवरण करने वाले वरुण अर्थात् मेघ को अथवा मित्र, दिन और वरुण, रात्री इन दोनों को (अभिचक्षे) दिखाने या प्रकट करने के लिये ( सूर्यः ) सूर्य जिस प्रकार ( द्योः उपस्थे ) आकाश में स्थिर होकर ( रूपं कृणुते ) अपने तेजोमय रूप को प्रकट करता है उसी प्रकार ( सूर्यः ) सबका प्रेरक और उत्पादक परमेश्वर ( मित्रस्य वरुणस्य अभिचक्षे ) मित्र अर्थात् मरण से त्राण करने वाली जीवन या सृष्टि और वरुण अर्थात् वारण करनेवाले मृत्यु या प्रलय को प्रकट करने के लिये ( रूपं कृणुते ) अपने तेज को प्रकट करता है । ( अस्य ) इस परमेश्वर का सूर्य के समान ( रुशत् ) देदीप्यमान ( पाजः ) चिन्मय सामर्थ्य भी ( अनन्तम् ) अनन्त, निःसीम है । ( अन्यत् ) रात्रि के अन्धकार के समान (कृष्णम्) काला, या सबको आकर्षण करने वाला, या परमाणु २ को छिन्न भिन्न करने वाला संहारक बल भी ( अनन्तम् ) अनन्त है । जिसको ( हरितः ) सूर्य की किरणों के समान तीव्र वेग से गति करने वाली शक्तियां ( सं भरन्ति ) धारण करती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स ऋषिः॥ सूर्यो देवता॥ छन्दः- १, २, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(सूर्य:-द्यो:-उपस्थे) सूर्य द्युलोक के उपस्थ अञ्चल में क्षेत्र में (मित्रस्य वरुणस्य रूपम्-अभिचक्षे कुरते) मित्र-अपने प्रेरण और वरुण आकर्षण धर्म को अभिव्यक्त करने के लिये अपने स्वरूप को आविष्कृत करता है-प्रकट करता है । समस्त लोकों का प्रेरण और आकर्षण सूर्य करता है द्युस्थान में रहता हुआ (अस्य-अनन्तम्-अन्यत् रुशत् पाजः कृष्णम्-अन्यत्) इस सूर्य का अन्यत् पृथक् प्रकाशमान बल अनन्त है विस्तृत है संसार में फैलने वाला है। अन्य दूसरा बल कृष्ण है जो अनन्त नहीं जो सूर्य के अन्दर ही कृष्ण रङ्ग में जलने योग्य पदार्थ है "असितो रक्षिता” (हरितः सम्भरन्ति) जिन दोनों को किरणें सम्भरण करते है- धारण करते हैं । सूर्य वह पदार्थ है जिसके अन्दर लोकों को प्रेरण और अपनी ओर आकर्षण करने का धर्म है तथा जिसके अन्दर ज्वलन धर्म शुभ्ररूप लोकों को प्रकाशित करने का भारी बल है और कृष्ण पदार्थ भी जिसमें जलने को स्थिर है ॥५॥
टिप्पणी
सूर्य परमात्मा (सूर्य:-द्यो:-उपसथे) जगत्प्रकाशक द्योतनात्मक मोक्ष धाम के आश्रय में (मित्रस्य वरुणस्य अभिचक्षे रूपं कृणुते) मित्र प्रेरण दान-सर्जन, वरुण आकर्षण-प्रदान-संहार धर्मो को प्रकट करने के लिए अपने रूप-स्वरूप को आविष्कृत करता है (अस्य अनन्तम् रुशत् पाजः कृष्णम् अन्यत् हतरितः संभरन्ति) इस अन्य भिन्न एक अनन्त महान् प्रकाशमान बल जिससे जगत् प्रकाशित है अन्य एक कृष्ण बल जिससे प्रलय होता है इन दोनों वलों को हरणशील आहरणशील और संहरणशील शक्ति धाराएं सम्भालती हैं ॥५॥
विशेष
ऋषिः– कुत्स आङ्गिरसः (स्तोमों लोकस्तरों का ज्ञान कर्ता अग्नि-तत्त्ववेत्ता) देवता- सूर्यः!
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याच्या सामर्थ्याने रूप, दिवस व रात्र यांच्या प्राप्तीचे निमित्त असलेला सूर्य श्वेत-कृष्णरूपी दिवस व रात्र उत्पन्न करतो त्या अनंत परमेश्वराला सोडून कुणा दुसऱ्याची उपासना माणसांनी करू नये हा उपदेश विद्वानांनी सदैव करावा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The Eternal Lord, in order that Mitra and Varuna, day and night, be seen, creates light and shade and form. And so, the sun, which is light incarnate, in the close space of heaven, shows the forms of things. Endless, different and blazing is its power of one sort, while the shade of darkness is another, which the rays of the sun bear in the quarters of space.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! You should serve or worship only that One God by whose Power, the sun displays his various form (of brightness) in the middle of the heavens, so that Prana, Udana and other vital breaths may enable all beings to see all objects, His rays extend, on one hand, his infinite and brilliant power, on the other, by their departure bring on the blackness of night.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मित्रस्य) प्राणस्य = Of the Prana (a vital breath.) (वरुणस्य) उदानस्य= Of the Udana (another kind of the vital breath) प्राणो मित्रम् (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ३. ३. ६) ॥ प्राणोदानौ वै मित्रावरुणौ। (शतपथ १ ८. ३. १२ ॥ ३. ६. १. १६) प्राणोदानौ मित्रावरुणौ (शतपथ ३. २.२ १३ ) Thus it is clear that Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation of मित्र (Mitra) and (वरुण) as quoted above is based upon the authority of the Brahmanas and is not imaginary.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned persons should always teach men to worship that One God only and none else by whose Power, the sun causes the division of day and night distinguishing the bright from the black.
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