ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 12/ मन्त्र 10
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
स नः॑ पावक दीदि॒वोऽग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह। उप॑ य॒ज्ञं ह॒विश्च॑ नः॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । पा॒व॒क॒ । दी॒दि॒ऽवः॒ । अग्ने॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ । उप॑ । य॒ज्ञम् । ह॒विः । च॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह। उप यज्ञं हविश्च नः॥
स्वर रहित पद पाठसः। नः। पावक। दीदिऽवः। अग्ने। देवान्। इह। आ। वह। उप। यज्ञम्। हविः। च। नः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 12; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरेतावुपदिश्येते।
अन्वयः
हे दीदिवः पावकाग्ने ! स त्वमस्मभ्यमिह देवानावह, नोऽस्माकं यज्ञं हविश्चोपावहेत्येकः॥ यो दीदिवान् पावकोऽग्निः सम्यक् प्रयुक्तः सन्नोऽस्मभ्यमिह देवानावहति, स नोऽस्माकं यज्ञं हविश्च प्राप्य सुखान्युपावहतीति द्वितीयः॥१०॥अतोऽग्रे (१) प्रथमाङ्केनाद्यान्वयार्थो (२) द्वितीयेन द्वितीयार्थश्च सर्वत्र वेद्यः।
पदार्थः
(सः) जगदीश्वरो भौतिको वा (नः) अस्मभ्यम् (पावक) पवित्रकर्त्तः शुद्धिहेतुर्वा (दीदिवः) स्वसामर्थ्येन देदीप्यमान ! दीप्तिमान् वा (अग्ने) सर्वप्रापक प्राप्तिहेतुर्वा (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा। (इह) अस्मिन् संसारेऽस्मत्संनिधौ (आ) समन्तात् (वह) प्रापय प्रापयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः। (उप) सामीप्ये (यज्ञम्) पूर्वोक्तं त्रिविधम् (हविः) दातुमादातुमर्हं (च) समुच्चये (नः) अस्माकम्॥१०॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। यस्य प्राणिनः कस्यचित्पदार्थस्य प्राप्तीच्छा जायते तत्सिद्धये परमेश्वरः प्रार्थ्यते पुरुषार्थश्च क्रियते। यादृशा अस्मिन् वेदे जगदीश्वरस्य गुणस्वभावा अन्येषां च प्रतिपादिता दृश्यन्ते मनुष्यैस्तदनुकूलकर्मानुष्ठानेनाग्न्यादिपदार्थगुणान् विदित्वाऽनेकविधा व्यवहारसिद्धिः कार्य्येति॥१०॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी अगले मन्त्र में इन्हीं दोनों का उपदेश किया है-
पदार्थ
हे (दीदिवः) अपने सामर्थ्य से प्रकाशवान् (पावक) पवित्र करने तथा (अग्ने) सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (सः) जगदीश्वर ! आप (नः) हम लोगों के सुख के लिये (इह) इस संसार में (देवान्) विद्वानों को (आवह) प्राप्त कीजिये, तथा (नः) हमारे (यज्ञम्) उक्त तीन प्रकार के यज्ञ और (हविः) देनेलेने योग्य पदार्थों को (उपावह) हमारे समीप प्राप्त कीजिये॥१॥१०॥(यः) जो (दीदिवः) प्रकाशमान तथा (पावक) शुद्धि का हेतु (अग्ने) भौतिक अग्नि अच्छी प्रकार कलायन्त्रों में युक्त किया हुआ (नः) हम लोगों के सुख के लिये (इह) हमारे समीप (देवान्) दिव्यगुणों को (आवह) प्राप्त करता है, वह (नः) हमारे तीन प्रकार के उक्त (यज्ञम्) यज्ञ को तथा (हविः) उक्त पदार्थों को प्राप्त होकर सुखों को (उपावह) हमारे समीप प्राप्त करता रहता है॥२॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस प्राणी को किसी पदार्थ की इच्छा उत्पन्न हो, वह अपनी कामसिद्धि के लिये परमेश्वर की प्रार्थना और पुरुषार्थ करे। जैसे इस वेद में जगदीश्वर के गुण, स्वभाव तथा औरों के उत्पन्न किये हुए दृष्टिगोचर होते हैं, वैसे मनुष्यों को उनके अनुकूल कर्म के अनुष्ठान से अग्नि आदि पदार्थों के गुणों को ग्रहण करके अनेक प्रकार व्यवहार की सिद्धि करना चाहिये॥१०॥
विषय
फिर भी इस मन्त्र में इन्हीं दोनों का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
(प्रथमः)- हे दीदिवः पावक अग्ने! स त्वम् अस्मभ्यम् इह देवाना वह, नः अस्माकम् यज्ञं हविः च उप आवहि॥
(द्वितीयः)- यः दीदिवान् पावकः अग्निः सम्यक् प्रयुक्तः सन्नः अस्मभ्यम् इह देवान् आवहति, स नःअस्माकम् यज्ञं हविः च प्राप्य सुखानि उपावहति॥१०॥
पदार्थ
(प्रथम)- हे (दीदिवः) स्वसामर्थ्येन देदीप्यमान ! दीप्तिमान् वा=अपने सामर्थ्य से दीप्तिमान्, (पावक) पवित्रकर्त्तः=पवित्र कर्ता, (अग्ने) सर्वप्रापक प्राप्तिहेतुर्वा=सब पदार्थों को प्राप्त कराने वाले, (स)=परमेश्वर, (त्वम्)=आप, (अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (इह) अस्मिन् संसारेऽस्मत्संनिधौ =हमारे संसार में मिलाकर रखने के लिये, (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा=विद्वान् या दिव्य गुणों वाले, (आ-समन्तात्)=हर ओर से, (वह) प्रापय प्रापयति वा=प्राप्त कराते हैं, (नः-अस्माकम्)=हमारे लिये, (यज्ञम्) पूर्वोक्त त्रिविधम्=पहले कहे गये तीनों यज्ञों को, (हविः) दातुमादातुमर्हम्=लेने देने योग्य पदार्थ, (च)=भी, (उप)=समीपता से, (आवहि) प्राप्त करे ॥१०॥
(द्वितीय)- (यो) जो (दीदिववान्) सवसामर्थ्येन देदीप्यमान् वा दीप्तिमान्=अपने सामर्थ्य से दीप्तिमान्, (पावकः) पवित्रकर्त्तः=पवित्र कर्ता, (अग्निः) सर्वप्रापक प्राप्तिहेतुर्वा=सब पदार्थों को प्राप्त कराने वाले, (सम्यक्)=उचित रूप से, (प्रयुक्तः+सन्)=प्रयोग करते हुए, (नः)=हमारे लिये, (देवान्)=देवों को, (आवहति)=प्राप्त करता है, (स)=सूर्य, (नः) =हमारे लिये, (सर्वप्रापक) प्राप्तिहेतुर्वा-सब पदार्थों को प्राप्त कराने वाला, (यज्ञम्) पूर्वोक्त त्रिविधम्=पहले कहे गये तीनों को, (हविः) दातुमादातुमर्हम्=लेने देने योग्य पदार्थ, (च)=भी, (प्राप्य)=प्राप्त करने योग्य, (सुखानि)=सुखों को, (उप)=समीपता से, (आवहि) प्राप्त करे ॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.) (प्रथम)- हे (दीदिवः) अपने सामर्थ्य से दीप्तिमान्, (पावक) पवित्र कर्ता, (अग्ने) सब पदार्थों को प्राप्त कराने वाले (स) परमेश्वर! (त्वम्) आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये व (इह) संसार में मिलाकर रखने के लिये, (देवान्) विद्वान् या दिव्य गुण वालों को (आ-समन्तात्) हर ओर से (वह) प्राप्त कराते हैं। (नः) हमारे लिये (यज्ञम्) पहले कहे गये तीनों को और (हविः) लेने देने योग्य पदार्थों को (च) भी (उपावहि) हमारे समीप समीप प्राप्त कराइये ॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। जिस प्राणी को किसी पदार्थ की इच्छा उत्पन्न हो, वह अपनी काम की सिद्धि के लिये परमेश्वर की प्रार्थना और पुरुषार्थ करे। जैसे इस वेद में जगदीश्वर के गुण, स्वभाव तथा अन्यों के उत्पन्न किये हुए दृष्टिगोचर होते हैं, वैसे मनुष्यों को उनके अनुकूल कर्म के अनुष्ठान से अग्नि आदि पदार्थों के गुणों को ग्रहण करके अनेक प्रकार व्यवहार की सिद्धि करना चाहिये॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(द्वितीय)- (यो) जो (दीदिववान्) अपने सामर्थ्य से दीप्तिमान्, (पावकः) पवित्र कर्ता, (अग्निः) सब पदार्थों को प्राप्त कराने वाला है। वह (सम्यक्) उचित रूप से (प्रयुक्तः+सन्)=प्रयोग करते हुए (नः) हमारे लिये (देवान्) देवों को (आवहति) प्राप्त करता है। (स) सूर्य (नः) हमारे लिये (सर्वप्रापक) सब पदार्थों को प्राप्त कराने वाला है। वह (यज्ञम्) पहले कहे गये तीनों यज्ञों को [और] (हविः) यज्ञ के सम्बन्ध में लेने देने योग्य पदार्थ (च) और (प्राप्य) प्राप्त करने योग्य, (सुखानि) सुखों को (उपावहति) निकट से प्राप्त कराता है ॥१०॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) जगदीश्वरो भौतिको वा (नः) अस्मभ्यम् (पावक) पवित्रकर्त्तः शुद्धिहेतुर्वा (दीदिवः) स्वसामर्थ्येन देदीप्यमान ! दीप्तिमान् वा (अग्ने) सर्वप्रापक प्राप्तिहेतुर्वा (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा। (इह) अस्मिन् संसारेऽस्मत्संनिधौ (आ) समन्तात् (वह) प्रापय प्रापयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः। (उप) सामीप्ये (यज्ञम्) पूर्वोक्तं त्रिविधम् (हविः) दातुमादातुमर्हं (च) समुच्चये (नः) अस्माकम्॥१०॥
विषयः- पुनरेतावुपदिश्येते।
अन्वयः- हे दीदिवः पावकाग्ने ! स त्वमस्मभ्यमिह देवानावह, नोऽस्माकं यज्ञं हविश्चोपावहेत्येकः॥ यो दीदिवान् पावकोऽग्निः सम्यक् प्रयुक्तः सन्नोऽस्मभ्यमिह देवानावहति, स नोऽस्माकं यज्ञं हविश्च प्राप्य सुखान्युपावहतीति द्वितीयः॥१०॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। यस्य प्राणिनः कस्यचित्पदार्थस्य प्राप्तीच्छा जायते तत्सिद्धये परमेश्वरः प्रार्थ्यते पुरुषार्थश्च क्रियते। यादृशा अस्मिन् वेदे जगदीश्वरस्य गुणस्वभावा अन्येषां च प्रतिपादिता दृश्यन्ते मनुष्यैस्तदनुकूलकर्मानुष्ठानेनाग्न्यादिपदार्थगुणान् विदित्वाऽनेकविधा व्यवहारसिद्धिः कार्य्येति॥१०॥
विषय
दिव्यता - यज्ञ - हवि
पदार्थ
१. हे (पावक) - पवित्र करनेवाले प्रभो ! (दीदिवः) - ज्योतिर्मय परमात्मन् ! (अग्ने) - सब उन्नतियों के साधक प्रभो ! (सः) - वह आप (नः) - हमें पवित्र बनाकर [पावक] (इह) - इस मानव - जीवन में (देवान्) - दिव्यगुणों को (आवह) - सब प्रकार से प्राप्त कराइए । प्रभु पावक हैं , हमारे जीवनों को पवित्र बनाकर हमें दिव्यता को प्राप्त कराते हैं ।
२. हे ज्ञान से दीप्त प्रभो ! [दीदिवः] आप हमें भी अपने ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराइए और (नः) - हमें (यज्ञम् उप) [आवह] यज्ञ के समीप प्राप्त कराइए , अर्थात् ज्ञान प्राप्त कर , आपकी कृपा से हमारा जीवन यज्ञमय हो । ज्ञान के अभाव में ही विलास - प्रवणता बढ़ती है ।
३. हे प्रभो ! आप हमारी सब उन्नतियों के साधक हो [अग्ने] । आप हमें जहाँ यज्ञिय जीवनवाला बनाएँ (च) - वहाँ उसके साथ ही (हविः) - दानपूर्वक अदन के भाव को भी प्राप्त कराइए । दानपूर्वक अदन करते हुए हम इस संसार के विषयों से बद्ध नहीं होते और हम जीवन में आगे बढ़ते चलते हैं , 'अ - सित' विषयों से अ - बद्ध पुरुष ही प्राची - [प्र - अञ्चू] अग्रगति का रक्षक होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - पावक प्रभु हमारे जीवनों को दिव्यगुणयुक्त बनाते हैं , प्रकाश के पुञ्ज प्रभु हमें यज्ञिय जीवनवाला करते हैं और अग्नि नामवाले वे प्रभु हमें हविर्मय जीवनवाला बनाकर उन्नति - पथ पर अग्रसर करते हैं ।
विषय
पक्षान्तर में सूर्य, अग्नि, तेजस्वी पुरुष, राजा आदि का वर्णन ।
भावार्थ
हे (पावक ) परम पावत ! हे ( दीदिवः ) प्रकाशस्वरूप ! हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! तू अग्नि के समान शोधक, दीप्तियुक्त अग्रणी है । तू ( नः ) हमारे कल्याण के लिये ( देवान् इह आ वह ) उत्तम गुणों, पदार्थों और विद्वान् पुरुषों को हमें प्राप्त करा । ( नः ) हमारे ( यज्ञं ) यज्ञ और ( हविः च ) हवि अर्थात् देने लेने योग्य उत्तम अन्न को भी ( उप वह ) प्राप्त करा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिः काण्व ऋषिः । अग्निर्देवता । गायत्री । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्या माणसाला एखादा पदार्थ मिळविण्याची इच्छा झाल्यास त्याने इच्छापूर्तीसाठी परमेश्वराची प्रार्थना व पुरुषार्थ करावा. जसे वेदाने जगदीश्वराचे गुण कर्म स्वभाव सांगितलेले आहेत व इतरांनीही प्रतिपादित केलेले दिसून येतात. तसे माणसांनी त्यांच्या अनुकूल कर्माच्या अनुष्ठानाने अग्नी इत्यादी पदार्थांच्या गुणांना ग्रहण करून अनेक प्रकारे व्यवहारांची सिद्धी केली पाहिजे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
That holy purifying brilliant power and presence may, we pray, bring us the finest gifts of divinity and humanity, and endow our yajna with holy riches and offerings for the fire.
Subject of the mantra
Yet again, both these (God and Sun) have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
First in favour of God- He=O! (dīdivaḥ)=self- effulgent, (pāvaka)=sanctifying, (agne)=which gets obtained all materials, (sa)=God, (tvam)=you, (asmabhyam)=for us, (iha)=for putting together in our universe, (devān)=Sholars or persons having divine virtues, (ā)=from every direction, (vaha)=get obtained, (naḥ)=for us, (yajñam)= The three sacrifices mentioned earlier, (haviḥ)=materials receivable and offerable in Yajan, (ca)=also, [hamāre]=our, (upa)=near, (āvahi)=get obtained. Second in favour of Sun- (yo)=That, (dīdivavān)=self-effulgent by its capability, (pāvakaḥ)= is a sancrosanct maker, (agniḥ)= That is the recipient of all things, [vaha]=that, (samyak)=properly, (prayuktaḥ)=has been used, (san)=is, (naḥ)=for us, (devān)=of deities, (āvahati)=gets obtained, (sa)=The Sun, (naḥ)=for us, (sarvaprāpaka)= He is the recipient of all things. (yajñam)= The three yajñams mentioned earlier, [aur]=and, (haviḥ)=substances obtainable and offered in the performance of yajna, (ca)=and, (prāpya)= attainable, (sukhāni)=delights, (upāvahati)= makes obtained closely.
English Translation (K.K.V.)
First in favour of God- O self-effulgent, sanctifying, getting obtained all materials, God! You kindly get obtained for us and for putting together in our universe, scholars or persons having divine virtues, from every direction. Kindly get obtained near us all the three yajñams mentioned and requested earlier and materials worth taking and offerings. Kindly get it obtained near us. Second in favour of Sun- That self-effulgent by its capability is a sacrosanct maker. The Sun is the recipient of all things. That gets the gods for us by using it properly. That is able to obtain, three yajñams mentioned earlier and the substances obtainable and offered in the performance of yajñam; and makes obtained closely attainable delights.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is a paronomasia as a figurative in this mantra. A creature, who has a desire for something, he should pray and make efforts to God for the accomplishment of his work. Just as in this Veda the virtues of the God, nature are visible, the same are visible for others as well. In such a way, human beings should acquire the qualities of fire etc. by performing rituals favourable to them and accomplish many kinds of practices.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) O Resplendent and Purifier (God), bring to us in this world, enlightened persons and make successful our Yanja (Non-violent sacrifice ) and grant us all desirable objects. (2) This bright fire when utilized properly brings to us divine attributes or enjoyments. It causes happiness with the help of our Yajna (Non-violent sacrifice) and oblations put into it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In this Mantra also there is shleshalankar or double meaning. Whatever object a man desires to obtain for that he should pray to God and should exert himself well to obtain it. Whatever attributes of God and other objects are mentioned in the Veda, men should act accordingly, should know the nature of fire and other objects and should utilize them properly.
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