ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
क॒विम॒ग्निमुप॑स्तुहि स॒त्यध॑र्माणमध्व॒रे। दे॒वम॑मीव॒चात॑नम्॥
स्वर सहित पद पाठक॒विम् । अ॒ग्निम् । उप॑ । स्तु॒हि॒ । स॒त्यऽध॑र्माणम् । अ॒ध्व॒रे । दे॒वम् । अ॒मी॒व॒ऽचात॑नम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कविमग्निमुपस्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे। देवममीवचातनम्॥
स्वर रहित पद पाठकविम्। अग्निम्। उप। स्तुहि। सत्यऽधर्माणम्। अध्वरे। देवम्। अमीवऽचातनम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 12; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निशब्देनेश्वरभौतिकार्थावुपदिश्येते।
अन्वयः
हे मनुष्य ! त्वमध्वरे सत्यधर्माणममीवचातनं कविं देवमग्निं परमेश्वरं भौतिकं चोपस्तुहि॥७॥
पदार्थः
(कविम्) सर्वेषां बुद्धीनां सर्वज्ञतया क्रमितारमीश्वरं सर्वेषां दृश्यानां दर्शयितारं भौतिकं वा (अग्निम्) ज्ञातारं दाहकं वा (उप) सामीप्येऽर्थे (स्तुहि) प्रकाशय (सत्यधर्माणम्) सत्या नाशरहिता धर्मा यस्य तम् (अध्वरे) उपासनीये कर्त्तव्ये वा यज्ञे (देवम्) सुखदातारम् (अमीवचातनम्) अमीवानज्ञानादीन् ज्वरादींश्च रोगान् चातयति हिनस्ति तम्॥७॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैः सत्यविद्यया धर्मप्राप्तये सत्यशिल्पविद्यासिद्धये चाग्निरीश्वरो भौतिको वा तत्तद्गुणैः प्रकाशयितव्यो यतः प्राणिनां रोगनिवारणेन सुखान्युपगतानि स्युः॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है-
पदार्थ
हे मनुष्य ! तू (अध्वरे) उपासना करने योग्य व्यवहार में (सत्यधर्माणम्) जिसके धर्म नित्य और सनातन हैं, जो (अमीवचातनम्) अज्ञान आदि दोषों का विनाश करने तथा (कविम्) सब की बुद्धियों को अपने सर्वज्ञपन से प्राप्त होकर (देवम्) सब सुखों का देनेवाला (अग्निम्) सर्वज्ञ ईश्वर है, उसको (उपस्तुहि) मनुष्यों के समीप प्रकाशित कर॥१॥७॥हे मनुष्य ! तू (अध्वरे) करने योग्य यज्ञ में (सत्यधर्माणम्) जो कि अविनाशी गुण और (अमीवचातनम्) ज्वरादि रोगों का विनाश करने तथा (कविम्) सब स्थूल पदार्थों को दिखानेवाला और (देवम्) सब सुखों का दाता (अग्निम्) भौतिक अग्नि है, उसको (उपस्तुहि) सब के समीप सदा प्रकाशित कर॥२॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को सत्यविद्या से धर्म की प्राप्ति तथा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये ईश्वर और भौतिक अग्नि के गुण अलग-अलग प्रकाशित करने चाहियें। जिससे प्राणियों को रोग आदि के विनाशपूर्वक सब सुखों की प्राप्ति यथावत् हो॥७॥
विषय
इस मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्य ! त्वम् अध्वरे सत्यधर्माणम् अमीवचातनम् कविं देवमग्निं परमेश्वरं भौतिकं च उप स्तुहि॥७॥
पदार्थ
हे (मनुष्य)=मनुष्य, (त्वम्)=आप, (अध्वरे) उपासनीये कर्त्तव्ये वा यज्ञे=उपासना करने योग्य कर्त्तव्य में, (सत्यधर्माणम्) सत्य नाशरहिता धर्मा यस्य तम्=जिसका धर्म सत्य और अविनाशी है, (अमीवचातनम्) अमीवानज्ञानादीन् ज्वरादींश्च रोगान् चातयति हिनस्ति तम्=अमीवा, अज्ञान और ज्वरादि रोगों का विनाश करने वाला, (कविम्) सर्वेषां बुद्धीनां सर्वज्ञतया क्रमितारमीश्वरं सर्वेषां दृश्यानां दर्शयितारं भौतिकं वा=सब की बुद्धियों को अपने सर्वज्ञपन से प्राप्त होकर, (देवम्) सुखदातारम्=सुखों का दाता, (अग्मि्)=अग्नि को, (परमेश्वम्)=परमेश्वर को, (भौतिकम्)=भौतिक, (च)=और, (उप)=समीप, (स्तुहि)=प्रशंसा, (प्रकाशय)=प्रकाश करते हैं॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। मनुष्यों को सत्यविद्या से धर्म की प्राप्ति तथा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये ईश्वर और भौतिक अग्नि के गुण अलग-अलग प्रकाशित करने चाहियें। जिससे प्राणियों को रोग आदि के विनाशपूर्वक सब सुखों की प्राप्ति यथावत् हो॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्य) मनुष्य! (त्वम्) आप (अध्वरे) उपासना करने योग्य कर्त्तव्य में (सत्यधर्माणम्) जिसका धर्म सत्य और अविनाशी है। (अमीवचातनम्) अमीवा, अज्ञान और ज्वरादि रोगों का विनाश करने वाले (कविम्) सब की बुद्धियों को अपने सर्वज्ञपन से प्राप्त होकर (देवम्) सुखों के दाता हैं। (परमेश्वम्) परमेश्वर (च) और (भौतिकम्) भौतिक (अग्मि्) अग्नि की हम (उप) समीप से (स्तुहि) प्रशंसा [और उसे] (प्रकाशय)=प्रकाशित करते हैं॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (कविम्) सर्वेषां बुद्धीनां सर्वज्ञतया क्रमितारमीश्वरं सर्वेषां दृश्यानां दर्शयितारं भौतिकं वा (अग्निम्) ज्ञातारं दाहकं वा (उप) सामीप्येऽर्थे (स्तुहि) प्रकाशय (सत्यधर्माणम्) सत्या नाशरहिता धर्मा यस्य तम् (अध्वरे) उपासनीये कर्त्तव्ये वा यज्ञे (देवम्) सुखदातारम् (अमीवचातनम्) अमीवानज्ञानादीन् ज्वरादींश्च रोगान् चातयति हिनस्ति तम्॥७॥
विषयः- अथाग्निशब्देनेश्वरभौतिकार्थावुपदिश्येते।
अन्वयः- हे मनुष्य ! त्वमध्वरे सत्यधर्माणममीवचातनं कविं देवमग्निं परमेश्वरं भौतिकं चोपस्तुहि॥७॥
भावार्थः (महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैः सत्यविद्यया धर्मप्राप्तये सत्यशिल्पविद्यासिद्धये चाग्निरीश्वरो भौतिको वा तत्तद्गुणैः प्रकाशयितव्यो यतः प्राणिनां रोगनिवारणेन सुखान्युपगतानि स्युः॥७॥
विषय
सत्यधर्मा प्रभु का स्तवन
पदार्थ
१. मनुष्यमात्र को उसके मौलिक कर्तव्य का संकेत करते हुए कहते हैं कि (कविम्) - उस क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ प्रभु की (उपस्तुहि) - उपासना व स्तुति कर , जो प्रभु (अग्निम्) - तेरी सब उन्नतियों को सिद्ध करनेवाले हैं , (सत्यधर्माणम्) - सत्य के द्वारा सबका धारण करनेवाले हैं , (अध्वरे देवम्) - [अ+ ध्वर] हिंसाशून्य जीवन में अथवा कुटिलता से रहित जीवन में प्रकाश करनेवाले हैं तथा (अमीवचातनम्) - रोगों का विनाश करनेवाले हैं ।
२. वे 'अमीवचातन' प्रभु हमारे अन्नमयकोश को नीरोग बनाते हैं । वे 'देव' प्रभु हमारी इन्द्रियों को प्रकाशमय करते हैं । जहाँ हमारी कर्मेन्द्रियाँ अकुटिल [अ+ ध्वर] कर्मों को करनेवाली होती हैं , वहाँ ज्ञानेन्द्रियाँ सदा उस - उस विषय का प्रकाश करती हैं । प्रभु 'सत्यधर्मा' है । सत्य के द्वारा वे हमारे मानस को पवित्र करते हैं और अन्ततः 'कवि' प्रभु हमारे विज्ञानमयकोश को भी ज्ञानदीप्त करके हमें क्रान्तदर्शी बनाते हैं । इस प्रकार ये प्रभु 'अग्नि' हमारे 'अग्रणी' - आगे ले - चलनेवाले हैं । एवं , इस प्रभु की उपासना हमें नीरोग , कार्यक्षम , सत्य के द्वारा पवित्र मानसवाला तथा क्रान्तदर्शी बनाएगी ।
भावार्थ
भावार्थ - हम 'कवि , अग्नि , सत्यधर्मा , अध्वरे देव , अमीवचातन' प्रभु का स्तवन करें ।
विषय
पक्षान्तर में सूर्य, अग्नि, तेजस्वी पुरुष, राजा आदि का वर्णन ।
भावार्थ
( कविम् ) क्रान्तदर्शी, सबकी बुद्धियों से परे विद्यमान, मेधावी, (अग्निम् ) ज्ञानस्वरूप, प्रकाशक, ( सत्यधर्माणम् ) सत्य धर्मों को धारण करनेवाले, ( अमीवचातनम् ) अज्ञान आदि कष्ट पीड़ाओं के नाश करने वाले, ( देवम् ) सुखमद परमेश्वर की स्तुति कर और इसी प्रकार ( सत्यधर्माणम् ) सत्य, अविनाशी धर्म वाले, ( देवं ) प्रकाशक ( अभीवचातनं ) रोगहारी (अग्निम् ) अग्नि का ( स्तुहि ) सबको उपदेश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिः काण्व ऋषिः । अग्निर्देवता । गायत्री । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी सत्यविद्येने धर्माची प्राप्ती व शिल्पविद्येच्या सिद्धीसाठी ईश्वर व भौतिक अग्नीचे वेगवेगळे गुण प्रकट केले पाहिजेत. ज्यामुळे प्राण्यांच्या रोगांचा नाश होऊन सर्व सुखाची प्राप्ती व्हावी. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In the holy acts of yajna, light, serve and adore Agni, brilliant creator of new things of beauty, prosperity and joy, illuminator and observer of the eternal laws, generous giver, and destroyer of evil and disease.
Subject of the mantra
By the word ‘Agni’ God and physical fire have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O!(manuṣya)=man, (tvam)=you, (adhvare)=being in duty regarding worship, (satyadharmāṇam)=whose dharma and truth is indestructible, (amīvacātanam)=destroyer of amoeba(small organism of one cell), nescience and fever etc diseases, (kavim)=attaining wisdom of all through His omniscience, (devam)=giver of happiness, (parameśvam)=God, Our=and, (bhautikam)=physical fire, (agmi)=we praise agni, (ca)=and, (upa)=from proximity, (stuhi)=praise, [aura use]=and to that, (prakāśaya)=illuminate.
English Translation (K.K.V.)
O man! You being in duty regarding worship, whose dharma and truth is indestructible, who is destroyer of amoeba (small organism of one cell), nescience and fever etc. diseases, attains wisdom of all through His omniscience, He is giver of happiness. We praise material fire and illuminate it closely.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is paronomasia as a figurative in this mantra. The virtues of God and qualities of material fire should be revealed separately for human beings to attain righteousness through true knowledge and for the accomplishment of craftsmanship, so that the living beings get all the happiness with the destruction of diseases et cetera.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now by Agni, God and the material fire are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) O man, praise Omniscient Lord Whose laws in the world are eternal, Who is Giver of light and life Destroyer of diseases, physical mental.(2) Praise Agni (fire) in the non-violent sacrifice, which is illuminator of articles, whose laws are eternal and which is the destroyer of many diseases.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अध्वरे ) उपासनीये कर्तव्ये यज्ञे वा = In non-violent sacrifice, in discharge of duties. (अमीवचातनम् ) अमीवान् अज्ञानादीन् चातयति हिनस्ति तम् । = Destroyer of diseases like ignorance and fever etc.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In this Mantra also there is Shleshalankar (double entendre or panorama Sia). Men should reveal God to the people for the acquirement of Dharma (righteousness) with true knowledge and fire for the accomplishment of true art, so that they may enjoy happiness by the removal of all diseases.
Translator's Notes
अध्वरे-अध्वर इति यज्ञनाम (निघ० ३.१७ ) अध्वर इति यज्ञ नाम ध्वरति हिंसा कर्मातत्प्रतिषेधः (निरुक्ते १.७ )। Skanda Swami, Sayanacharya, Wilson, Griffith and other translators have interpreted the Mantra with regard to the fire, though even according to their interpretation, it is clear that it is not fully applicable to the material fire. For instance, कविम् has been explained by Sayanahcarya as मेधाविनम् wise सत्यधर्माणम् as सत्यवदनरूपेण धर्मेणोपेतम् Always speaking the truth. How are these two adjectives particularly applicable to the inaminate fire ? Wilson following Sayana translates कविम् as wise and, सत्यधर्माणम् as the observer of truth. Griffith translates कविम् as Sage and सत्यधर्माणम् as "whose ways are ever true. " "Can this material fire be called as Sage ? Rishi Dayananda is therefore right in taking the word Agni used here primarily for God and secondarily for the fire as shown above.
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