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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    घृता॑हवन दीदिवः॒ प्रति॑ ष्म॒ रिष॑तो दह। अग्ने॒ त्वं र॑क्ष॒स्विनः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृत॑ऽआहवन । दी॒दि॒ऽवः॒ । प्रति॑ । स्म॒ । रिष॑तः । द॒ह॒ । अग्ने॑ । त्वम् । र॒क्ष॒स्विनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह। अग्ने त्वं रक्षस्विनः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतऽआहवन। दीदिऽवः। प्रति। स्म। रिषतः। दह। अग्ने। त्वम्। रक्षस्विनः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    घृताहवनो दीदिवानग्ने योऽग्नी रक्षस्विनो रिषतो दोषान् शत्रूंश्च प्रति पुनःपुनर्दहति स्म, सोऽस्माभिः स्वकार्य्येषु नित्यं सम्प्रयोज्योऽस्ति॥५॥

    पदार्थः

    (घृताहवन) घृतमाज्यादिकं जलं चासमन्ताज्जुह्वति यस्मिन् सः (दीदिवः) यो दीव्यति शुभैर्गुणैर्द्रव्याणि प्रकाशयति सः। अयं ‘दिवु’ धातोः क्वसुप्रत्ययान्तः प्रयोगः (प्रति) वीप्सार्थे (स्म) प्रकारार्थे (रिषतः) हिंसाहेतुदोषान् (दह) दहति। अत्र व्यत्ययः। (अग्ने) अग्निर्भौतिकः (त्वम्) सः (रक्षस्विनः) रक्षांसि दुष्टस्वभावा निन्दिता मनुष्या विद्यन्ते येषु सङ्घातेषु तान्॥५॥

    भावार्थः

    एवं सुगन्ध्यादिगुणयुक्तेन द्रव्येण संयुक्तोऽयमग्निः सर्वान् दुर्गन्धादिदोषान् निवार्य्य सर्वेभ्यः सुखकारी भवतीतीश्वर आह॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त अग्नि फिर भी क्या करता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है-

    पदार्थ

    (घृताहवन) जिसमें घी तथा जल क्रियासिद्ध होने के लिये छोड़ा जाता और जो अपने (दीदिवः) शुभ गुणों से पदार्थों को प्रकाश करनेवाला है, (त्वम्) वह (अग्ने) अग्नि (रक्षस्विनः) जिन समूहों में राक्षस अर्थात् दुष्टस्वभाववाले और निन्दा के भरे हुए मनुष्य विद्यमान हैं, तथा जो कि (रिषतः) हिंसा के हेतु दोष और शत्रु हैं, उनका (प्रति दह स्म) अनेक प्रकार से विनाश करता है, हम लोगों को चाहिये कि उस अग्नि को कार्यों में नित्य संयुक्त करें॥५॥

    भावार्थ

    जो अग्नि इस प्रकार सुगन्ध्यादि गुणवाले पदार्थों से संयुक्त होकर सब दुर्गन्ध आदि दोषों को निवारण करके सब के लिये सुखदायक होता है, वह अच्छे प्रकार काम में लाना चाहिये। ईश्वर का यह वचन सब मनुष्यों को मानना उचित है॥५॥

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    विषय

    उक्त अग्नि फिर भी क्या करता है, सो इस मन्त्र में प्रकाशित किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    घृताहवनः दीदिवान् अग्ने यःअग्नी रक्षस्विनः रिषतः दोषान् शत्रून् च प्रति पुनःपुनः दहति स्म, सः अस्माभिः स्वकार्य्येषु नित्यं सम्प्रयोज्यः अस्ति॥५॥

    पदार्थ

    (घृताहवनः) घृतमाज्यादिकं जलं चासमन्ताज्जुहति यस्मिन् सः=जिसमें घृत तथा जल क्रियासिद्ध होने के लिये छोड़ा जाता है, (दीदिवान्)=शुभगुणों से पदार्थों को प्रकाशित करने वाला, (अग्ने) अग्निर्भौतिकः=भौतिक अग्नि, (यः)=जो, (अग्नः)=अग्नि, (रक्षस्विनः) रक्षांसि दुष्टस्वभावा निन्दिता मनुष्या विद्यन्ते येषु सङ्घातेषु तान् =जिन समूहों में दुष्ट और निन्दित किये जाने वाले स्वभाव से भरे लोग विद्यमान हैं, (रिषतः) हिंसाहेतुदोषान्=दोषों का कारण, (दोषान्)=दोषों के, (शत्रून्)=शत्रुओं के, (च)=भी, (प्रति)=के विरुद्ध, (पुनः पुनः)=बार बार, (दहति)= विनाश कार्य कर देता, (स्म)=था, (सो)=इसलिये, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (स्वकार्य्येषु)=अपने कार्यों में, (नित्यम्)=सदैव, (सम्प्रयोज्यः)=अच्छी तरह से प्रयोग किये जाने योग्य, (अस्ति)=है॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो अग्नि इस प्रकार सुगन्ध आदि गुणवाले पदार्थों से संयुक्त होकर सब दुर्गन्ध आदि दोषों को निवारण करके सब के लिये सुखदायक होता है, वह अच्छे प्रकार काम में लाना चाहिये। ईश्वर का यह वचन सब मनुष्यों को मानना उचित है॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (घृताहवनः) जिसमें घृत तथा जल क्रियासिद्ध होने के लिये छोड़ा जाता है और (दीदिवान्) शुभगुणों से पदार्थों को प्रकाशित करने वाला (अग्ने) भौतिक अग्नि (रक्षस्विनः) जिन समूहों में दुष्ट और निन्दित किये जाने वाले स्वभाव से भरे लोग विद्यमान हैं, (रिषतः) उन दोषों का कारण (शत्रून्) शत्रुओं के (च) और उन (दोषान्) दोषों के (प्रति) विरुद्ध (पुनः-पुनः) बार बार (दहति) विनाश कार्य कर देता (स्म) था। (सो) इसलिये (अस्माभिः) हमारे द्वारा (स्वकार्य्येषु) अपने कार्यों में  (नित्यम्) नित्य (सम्प्रयोज्यः) अच्छी तरह से प्रयोग किये जाने योग्य (अस्ति) है॥५॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (घृताहवन) घृतमाज्यादिकं जलं चासमन्ताज्जुह्वति यस्मिन् सः (दीदिवः) यो दीव्यति शुभैर्गुणैर्द्रव्याणि प्रकाशयति सः। अयं 'दिवु' धातोः क्वसुप्रत्ययान्तः प्रयोगः (प्रति) वीप्सार्थे (स्म) प्रकारार्थे (रिषतः) हिंसाहेतुदोषान् (दह) दहति। अत्र व्यत्ययः। (अग्ने) अग्निर्भौतिकः (त्वम्) सः (रक्षस्विनः) रक्षांसि दुष्टस्वभावा निन्दिता मनुष्या विद्यन्ते येषु सङ्घातेषु तान्॥५॥
    विषयः- पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- घृताहवनो दीदिवानग्ने योऽग्नी रक्षस्विनो रिषतो दोषान् शत्रूंश्च प्रति पुनःपुनर्दहति स्म, सोऽस्माभिः स्वकार्य्येषु नित्यं सम्प्रयोज्योऽस्ति॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- एवं सुगन्ध्यादिगुणयुक्तेन द्रव्येण संयुक्तोऽयमग्निः सर्वान् दुर्गन्धादिदोषान् निवार्य्य सर्वेभ्यः सुखकारी भवतीतीश्वर आह॥५॥

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    विषय

    रक्षो - दहन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार विबोधन के होने पर हमारे हृदय घृत - मलों के क्षरण के द्वारा ज्ञान की दीप्तिवाले बनते हैं [घृ क्षरणदीप्त्योः] । हे (घृताहवन) - [घृतेन आहूयते] मलक्षरण व ज्ञानदीप्ति के द्वारा आहूयमान प्रभो ! प्रभु को पुकारने का अधिकार उसी को है जोकि अपने हृदयों के मलों को दूर करता है और ज्ञान को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील होता है । (दीदिवः) - हे दीप्ति से युक्त प्रभो ! सहस्रों सूर्यों की दीप्ति के समान दीप्तिवाले परमात्मन् ! आप (रिषतः) - हिंसा करनेवाले काम - क्रोधादि भावों को (प्रतिदह स्म) - निश्चय से दग्ध कीजिए । एक - एक वासना को विनष्ट करनेवाले आप हूजिए । 

    २. हे (अग्ने) - सब दोषों को दग्ध करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) - आप हममें विद्यमान (रक्षस्विनः) - क्रूरता आदि राक्षसी भावनाओं को (प्रतिदह) - दग्ध करनेवाले होइए । कोई भी राक्षसीभाव हमारे अन्दर जीवित न रहे । इनको विनष्ट करके हम दिव्य भावनाओं को अपने में विकसित करनेवाले हों । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हे प्रभो ! आप अग्नि हैं  , हिंसक व राक्षसी वृत्तियों को आप भस्म करनेवाले हैं ।

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    विषय

    जगत् कर्त्ता, सर्वज्ञ परमेश्वर का अग्नि, दूत, विश्पति आदि नामों से वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्नि के समान तेजस्विन् ! हे ( घृताहवन ) अग्नि में जिस प्रकार घृत आदि दीप्तिकारक पदार्थों की आहुति दी जाती है उसी प्रकार घृत अर्थात् तेजोवर्धक साधनों की आहुति लेने हारे ! हे (दीदिवः) दीप्यमान् ! तेजस्विन् ! ( त्वं ) तू ( रक्षस्विनः) दुष्ट पुरुषों वाले ( रिशतः ) हिंसाकारी शत्रुसंघों को ( प्रतिदह स्म ) एक एक करके जला डाल । भौतिक पक्ष में —हे घृत की आहुति लेने वाले अग्नि ! जीवन के नाशक दुष्ट रोगों से युक्त पदार्थों को जला ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः । अग्निर्देवता । गायत्री । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो अग्नी या प्रकारे सुगंध इत्यादी गुणयुक्त पदार्थांनी संयुक्त होऊन सर्व दुर्गंध इत्यादी दोषांचे निवारण करून सर्वांसाठी सुखदायक असतो, त्याला चांगल्या कामात वापरले पाहिजे. ईश्वराचे हे वचन सर्व माणसांनी मानले पाहिजे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, brilliant and resplendent, fed on ghee and blazing, bum up the jealous, the negative and the wicked who destroy.

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    Subject of the mantra

    What does aforesaid Agni (fire) do has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ghṛtāhavanaḥ)= in which ghee and water are released to accomplish the rituals and, (dīdivān)=illuminating by its good qualities, (agne)=physical fire, (rakṣasvinaḥ)=Groups in which wicked and having nature of reprehending, people exist, (riṣataḥ)=due to those defects, (śatrūn)=of enemies, (ca)=and those, (doṣān+prati)=against defects, (punaḥ-punaḥ)=again and again, (dahati+sma)=used to do destruct, (so)= therefore, (asmābhiḥ)=by us, (svakāryyeṣu)=in own deeds, (nityaṃ)=daily, (samprayojyaḥ+asti)= worthy of being used.

    English Translation (K.K.V.)

    The physical fire, in which ghee and water are released to accomplish the rituals and illuminate by its good qualities, groups in which wicked and having nature of reprehending, people exist, due to those defects of enemies and against those faults used to do destruct again and again. Therefore our deeds are well worthy of being used by us daily.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The fire, which is thus combined with substances having fragrance, etc., removes all the bad odors and is pleasing to all, should be put to good use. It is proper for all human beings to believe this word of God.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    THE SAME SUBJECT IS CONTINUED.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Resplendent Agni (fire) in which clarified butter is poured and which illuminates objects, burns up harmful evils like impurity and bad smell. That fire should be utilized by us in our works.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God tells that the fire when mixed with the articles possessing fragrance and nourishment etc. casts aside all bad odour etc. and gives happiness to all.

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