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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ताँ उ॑श॒तो वि बो॑धय॒ यद॑ग्ने॒ यासि॑ दू॒त्य॑म्। दे॒वैरास॑त्सि ब॒र्हिषि॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तान् । उ॒श॒तः । वि । बो॒ध॒य॒ । यत् । अ॒ग्ने॒ । यासि॑ । दू॒त्य॑म् । दे॒वैः । आ । स॒त्सि॒ । ब॒र्हिषि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम्। देवैरासत्सि बर्हिषि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तान्। उशतः। वि। बोधय। यत्। अग्ने। यासि। दूत्यम्। देवैः। आ। सत्सि। बर्हिषि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 12; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    योऽग्निर्यद्यस्माद् बर्हिषि देवैः सह दूत्यमायासि समन्ताद्याति, तानुशतो विबोधय विबोधयति, तेषां दोषान्सत्सि हन्ति, तस्मादेतैरयं विद्यासिद्धये सर्वथा सर्वदा परीक्ष्य सम्प्रयोजनीयोऽस्ति॥४॥

    पदार्थः

    (तान्) दिव्यान् गुणान् (उशतः) कामितान्। अत्र कृतो बहुलमिति कर्मणि लटः स्थाने शतृप्रत्ययः। (वि) विविधार्थे। व्यपेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु०१.३) (बोधय) बोधयति। अत्र व्यत्ययः। (यत्) यस्मात् (अग्ने) अग्निः (यासि) याति। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (दूत्यम्) दूतस्य कर्म। दूतस्य भागकर्मणी। (अष्टा०४.४.१२१) अनेन दूतशब्दाद्यत्प्रत्ययः। (देवैः) दिव्यैः पदार्थैः सह (आ) समन्तात् (सत्सि) दोषान् हिनस्ति। अयं ‘विशरणार्थे षद्लृ धातोः’ प्रयोगः पुरुषव्यत्ययश्च। (बर्हिषि) अन्तरिक्षे॥४॥

    भावार्थः

    जगदीश्वर आज्ञापयति-अयमग्निर्युष्माकं दूतोऽस्ति। कुतः? हुतान् दिव्यान् परमाणुरूपान् पदार्थानन्तरिक्षे गमयतीत्यतः, उत्तमानां भोगानां प्रापकत्वात्। तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैः प्रसिद्धाः प्रसिद्धस्याग्नेर्गुणाः कार्य्यार्थे नित्यं प्रकाशनीया इति॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    यह (अग्ने) अग्नि (यत्) जिस कारण (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में (देवैः) दिव्य पदार्थों के संयोग से (दूत्यम्) दूत भाव को (आयासि) सब प्रकार से प्राप्त होता है, (तान्) उन दिव्य गुणों को (विबोधय) विदित करानेवाला होता और उन पदार्थों के (सत्सि) दोषों का विनाश करता है, इससे सब मनुष्यों को विद्यासिद्धि के लिये इस अग्नि की ठीक-ठीक परीक्षा करके प्रयोग करना चाहिये॥४॥

    भावार्थ

    परमेश्वर आज्ञा देता है कि-हे मनुष्यो ! यह अग्नि तुम्हारा दूत है, क्योंकि हवन किये हुए परमाणुरूप पदार्थों को अन्तरिक्ष में पहुँचाता और उत्तम-उत्तम भोगों की प्राप्ति का हेतु है। इससे सब मनुष्यों को अग्नि के जो प्रसिद्ध गुण हैं, उनको संसार में अपने कार्य्यों की सिद्धि के किये अवश्य प्रकाशित करना चाहिये॥४॥

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    विषय

    इस मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः अग्निः यत् अस्मात् बर्हिषि देवैः सह दूत्यम् आयासि समन्तात् याति, तान् उशतः विबोधय विबोधयति, तेषां दोषाने सत्सि हन्ति, तस्मात् एतै अयं  विद्यासिद्धये सर्वथा सर्वदा परीक्ष्य सम्प्रयोजनीयः अस्ति॥४॥

    पदार्थ

    (यो)=जो, (अग्निः)=अग्नि, (यत्)=जो, (यस्मात्)=जिससे, (बर्हिषि) अन्तरिक्षे=अन्तरिक्ष में, (देवैः) दिव्यै पदार्थैः सह=दिव्य पदार्थों के साथ, (दूत्यम्) दूतस्य कर्म=दूत के कर्म, आयासि-(समन्तात् याति)=हर ओर से जाता है, (तान्) दिव्यान् गुणान्=उन दिव्युणों को, (उशतः-कामितान्)=(दिव्यान् गुणान्)=दिव्य गुणों, (विबोधय-विबोधयति)=विदित कराता है, (तेषाम्)=उनके, (दोषान्-सत्सि)=दोषों का विनाश करते हैं, (तस्मात्)=उनसे, (एतैः)=इनके द्वारा, (अयम्)=यह, (विद्यासिद्धये) विद्या की सिद्धि के लिये, (सर्वथा)=हर तरह से, (सर्वदा)=सदैव, (परीक्ष्य)=परीक्षा करके, (सम्प्रयोजनीयः)=अच्छी तरह से प्रयोग करने योग्य, (अस्ति)=है॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    परमेश्वर आज्ञा देता है- “हे मनुष्यो ! यह अग्नि तुम्हारा दूत है, क्योंकि हवन किये हुए परमाणुरूप पदार्थों को अन्तरिक्ष में पहुँचाता और उत्तम-उत्तम भोगों की प्राप्ति का कारण है। इससे सब मनुष्यों को अग्नि के जो प्रसिद्ध गुण हैं,उनको संसार में अपने कार्य्यों की सिद्धि के किये अवश्य प्रकाशित करना चाहिये”॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यो) जो (अग्निः) अग्नि (यस्मात्) जिससे (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में (देवैः) दिव्य पदार्थों के (सह) साथ (दूत्यम्) दूत के कर्म हेतु (आयासि) हर ओर से जाता है (तान्) उन दिव्युणों को (उशतः) दिव्य गुणों को (विबोधयति) विदित कराता है और (तेषाम्) उनके (दोषान्-सत्सि) दोषों का विनाश कराता है। (तस्मात्) उनसे (एतैः) इन दिव्य गुणों के द्वारा (अयम्) यह (विद्यासिद्धये) विद्या की सिद्धि के लिये (सर्वथा) हर तरह से और (सर्वदा) सदैव (परीक्ष्य) परीक्षा करके (सम्प्रयोजनीयः) अच्छी तरह से प्रयोग करने योग्य (अस्ति) है॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तान्) दिव्यान् गुणान् (उशतः) कामितान्। अत्र कृतो बहुलमिति कर्मणि लटः स्थाने शतृप्रत्ययः। (वि) विविधार्थे। व्यपेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु०१.३) (बोधय) बोधयति। अत्र व्यत्ययः। (यत्) यस्मात् (अग्ने) अग्निः (यासि) याति। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (दूत्यम्) दूतस्य कर्म। दूतस्य भागकर्मणी। (अष्टा०४.४.१२१) अनेन दूतशब्दाद्यत्प्रत्ययः। (देवैः) दिव्यैः पदार्थैः सह (आ) समन्तात् (सत्सि) दोषान् हिनस्ति। अयं 'विशरणार्थे षद्लृ धातोः' प्रयोगः पुरुषव्यत्ययश्च। (बर्हिषि) अन्तरिक्षे॥४॥
    विषयः- अथाग्निगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- योऽग्निर्यद्यस्माद् बर्हिषि देवैः सह दूत्यमायासि समन्ताद्याति, तानुशतो विबोधय विबोधयति, तेषां दोषान्सत्सि हन्ति, तस्मादेतैरयं विद्यासिद्धये सर्वथा सर्वदा परीक्ष्य सम्प्रयोजनीयोऽस्ति॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- जगदीश्वर आज्ञापयति-अयमग्निर्युष्माकं दूतोऽस्ति। कुतः? हुतान् दिव्यान् परमाणुरूपान् पदार्थानन्तरिक्षे गमयतीत्यतः, उत्तमानां भोगानां प्रापकत्वात्। तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैः प्रसिद्धाः प्रसिद्धस्याग्नेर्गुणाः कार्य्यार्थे नित्यं प्रकाशनीया इति॥४॥

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    विषय

    विबोधन

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र की प्रार्थना के अनुसार 'प्रभु अपने भक्तों का दिव्यगुणों के साथ सम्बन्ध करते हैं । इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हे (अग्ने) - प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! सब देवों के अग्रणी प्रभो ! (उशतः) आपकी कामनावाले (तान्) - उन हम सबको (विबोधय) - विशिष्ट रूप से बोधवाला कीजिए । हमारे हृदयों को आप प्रकाशित कीजिए । हे अग्ने (यत्) - जो आप (दूत्यम्) - दूत - कर्म को (यासि) - प्राप्त होते हैं । अन्य दूत औरों के सन्देश को वहन किया करते हैं  , आप अपने सन्देश को ही हमें प्राप्त कराते हैं  , अथवा काव्यमय भाषा में कह सकते हैं कि आप इन सूर्यादि देवों के सन्देश को हम तक पहुँचा रहे हैं । हमें इन सूर्यादि देवों के साथ किस प्रकार वर्तना है  , यही मानो उनका सन्देश है । प्रभु इस सन्देश को हमें वेद के द्वारा प्राप्त करा रहे हैं । उसे सुनकर हम अपने जीवन को अधिकाधिक उन्नत व सुखी कर सकते हैं । 
    २. जब हम प्रभु के इस सन्देश को सुनते हैं  , जब हमारे हदय प्रकाशमय होते हैं तब हे प्रभो । (देवैः) सब दिव्यगुणों के साथ (बर्हिषि) - हमारे वासनाशून्य हृदयों में आसत्सि - आप विराजमान होते हो । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हममें प्रभु - प्राप्ति की कामना हो  , हम प्रभु के सन्देश को सुनें  , प्रभु हमारे हृदयों में अवश्य विराजमान होंगे । 
     

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    विषय

    जगत् कर्त्ता, सर्वज्ञ परमेश्वर का अग्नि, दूत, विश्पति आदि नामों से वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! विद्वन् ! राजन् ! ( यत् ) जब तू ( दूत्यम् ) दूत कर्म, शत्रुओं के संताप देने वाले कार्य या सामर्थ्य को ( यासि ) प्राप्त होता है तब तू ( तान् ) ( उशतः ) तेरी चाहना करने वालों को ( विबोधयः ) विशेष प्रकार से बतला और ( देवैः ) अन्य विद्वान् ज्ञानी और तेजस्वी पुरुषों सहित ( बर्हिषि ) आसन पर, प्रजा के राज्यासन पर ( आ सत्सि ) विराजमान् हो । भौतिक अग्नि पक्ष में—( देवैः ) तेजस्वी दिव्य पदार्थों के साथ ( दूत्यम् यासि ) उपतापक, नाना विज्ञानों का प्रकाशक होता है । ( बर्हिषि ) अन्तरिक्ष में स्थित होकर ( उशतः तान् विवोधय ) नाना इष्ट ज्ञानों का बोध कराता है और (आ सत्सि) नाना दोषों का नाश करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः । अग्निर्देवता । गायत्री । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर आज्ञा देतो की - हे माणसांनो ! हा अग्नी तुमचा दूत आहे. कारण हवन केलेल्या परमाणूरूपी पदार्थांना तो अंतरिक्षात पोहोचवितो व उत्तम भोगाच्या प्राप्तीचा हेतू आहे. त्यामुळे सर्व माणसांनी अग्नीच्या प्रसिद्ध गुणांना आपल्या कार्याच्या सिद्धीसाठी या जगात अवश्य प्रकाशित केले पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, purify and activate the libations lighted by the fire which you have carried to the skies, and bring them back home to the seat of yajna with gifts divine.

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    Subject of the mantra

    The physical qualities of Agni (fire) have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yo)=which, (agniḥ)=agni, (yasmāt)=which, (barhiṣi)=in space, (devaiḥ)=with celestial substances, (saha)=with, (dūtyam)= to do work as a messenger, {āyāsi)=goes from every direction, (tān)=by those, (uśataḥ)=to divine qualities, (vibodhayati)=gets known, (teṣām)=their, (doṣān-satsi)= removes defects, (tasmāt)=by them, (etaiḥ)= by these divine virtues, (ayam)=this, (vidyāsiddhaye)=for accomplishing knowledge, (sarvathā)=all together, (sarvadā)=always, (parīkṣya)=after testing, (samprayojanīyaḥ)=usable in good manner, (asti)=is.

    English Translation (K.K.V.)

    That Agni goes from every direction to which space to do work as a messenger with celestial substances and apprises to those divine virtues. He gets their defects removed. For accomplishing knowledge with these divine virtues from them must be done after testing all together and always in good manner.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God commands- "O men! This fire is your messenger, because it transports the atomized objects done in the Havana to space and is the reason for the attainment of the best. By this the famous qualities of fire which are known to all human beings, they must be revealed to the world for the accomplishment of their works.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of the fire are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Since this Agni (fire) goes to the middle region along with divine articles and awakens the desired objects (purifies and makes them subtle) like a messenger, by removing their impurities, therefore it should be properly investigated and utilized for the accomplishment of various sciences after experimentation.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God commands that this fire is your messenger, because it takes to the sky articles that have been put into it in the subtle form of atoms. Thus it causes divine enjoyment of happiness. Therefore men should reveal the properties of this fire for proper utilization in various purposes.

    Translator's Notes

    In this and many Mantras of this kind where Rishi Dayananda has interpreted them in the case of fire, air etc., he has pointed out that their case, person etc. is to be changed. Though such change of case, person etc. is permissible in the Vedas according to the rules of grammar like व्यत्ययो वहुलम् (अष्टा.३.१.८५) etc. as a matter of fact, it is not necessary to do so. It could be taken as it is. For instance, it could be translated O fire, thou like a messenger, takest articles away to distant places etc. This is always done by poets and even other writers. In the Nirukta, Shri Yaskacharya has clearly stated अचेतनान्यपि चेतन्वत् स्तूयन्ते (नि दैवतकाष्ठु ७.१ ), i. e. in the Vedas, sometimes inanimate objects are praised as if they were animate. That is a particular style. But in order to make it quite clear lest people may misunderstand it, Rishi Dayananda thought it advisable to change the case and gender etc. in his interpretation. This is a point which is to be clearly understood and by not understanding which ill-founded criticism has been levelled by some prejudiced people against Rishi Dayananda's sound 'interpretation.

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