Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 12 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हाव॑ह जज्ञा॒नो वृ॒क्तब॑र्हिषे। असि॒ होता॑ न॒ ईड्यः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ । ज॒ज्ञा॒नः । वृ॒क्तऽब॑र्हिषे । असि॑ । होता॑ । नः॒ । ईड्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने देवाँ इहावह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे। असि होता न ईड्यः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। देवान्। इह। आ। वह। जज्ञानः। वृक्तऽबर्हिषे। असि। होता। नः। ईड्यः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरभौतिकावुपदिश्येते।

    अन्वयः

    हे अग्ने वन्दनीयेश्वर ! त्वमिह जज्ञानो होतेऽड्योऽसि नोऽस्मभ्यं वृक्तबर्हिषे च देवानावह समन्तात् प्रापयेत्येकः। अयं होता जज्ञानोऽग्निर्वृक्तबर्हिषे नोऽस्मभ्यं च देवानावह समन्तात् प्रापयति, अतोऽस्माकं स ईड्यो भवति (इति द्वितायः)॥३॥

    पदार्थः

    (अग्ने) स्तोतुमर्हेश्वर भौतिकोऽग्निर्वा (देवान्) दिव्यगुणसहितान् पदार्थान् (इह) अस्मिन् स्थाने (आ) अभितः (वह) वहति वा (जज्ञानः) प्रादुर्भावयिता (वृक्तबर्हिषे) वृक्तं त्यक्तं हविर्बर्हिष्यन्तरिक्षे येन तस्मा ऋत्विजे। वृक्तबर्हिष इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं०३.१८) (असि) भवति (होता) हुतस्य पदार्थस्य दाता (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (ईड्यः) अध्येष्टव्यः॥३॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यस्मिन् प्रादुर्भूतेऽग्नौ सुगन्ध्यादिगुणयुक्तानां द्रव्याणां होमः क्रियते, स तद्द्रव्यसहित आकाशे वायुं मेघमण्डलं च, शुद्धे ह्यस्मिन् संसारे दिव्यानि सुखानि जनयति, तस्मादयमस्माभिर्नित्यमन्वेष्टव्यगुणोऽस्तीतीश्वराज्ञा मन्तव्या॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक (अग्नि) के गुणों का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) स्तुति करने योग्य जगदीश्वर ! जो आप (इह) इस स्थान में (जज्ञानः) प्रकट कराने वा (होता) हवन किये हुए पदार्थों को ग्रहण करने तथा (ईड्यः) खोज करने योग्य (असि) हैं, सो (नः) हम लोग और (वृक्तबर्हिषे) अन्तरिक्ष में होम के पदार्थों को प्राप्त करनेवाले विद्वान् के लिये (देवान्) दिव्यगुणयुक्त पदार्थों को (आवह) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये॥१॥३॥जो (होता) हवन किये हुए पदार्थों का ग्रहण करने तथा (जज्ञानः) उनकी उत्पत्ति करानेवाला (अग्ने) भौतिक अग्नि (वृक्तबर्हिषे) जिसके द्वारा होम करने योग्य पदार्थ अन्तरिक्ष में पहुँचाये जाते हैं, वह उस ऋत्विज् के लिये (इह) इस स्थान में (देवान्) दिव्यगुणयुक्त पदार्थों को (आवह) सब प्रकार से प्राप्त कराता है। इस कारण (नः) हम लोगों को वह (ईड्यः) खोज करने योग्य (असि) होता है॥२॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। हे मनुष्य लोगो ! जिस प्रत्यक्ष अग्नि में सुगन्धि आदि गुणयुक्त पदार्थों का होम किया करते हैं, जो उन पदार्थों के साथ अन्तरिक्ष में ठहरनेवाले वायु और मेघ के जल को शुद्ध करके इस संसार में दिव्य सुख उत्पन्न करता है, इस कारण हम लोगों को इस अग्नि के गुणों का खोज करना चाहिये, यह ईश्वर की आज्ञा सब को अवश्य माननी योग्य है॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इस मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    (इति प्रथमः)-हे अग्ने वन्दनीयेश्वर ! त्वम् इह जज्ञानः होता ईड्यो असि नः-अस्मभ्यं वृक्तबर्हिषे च देवान् आवह समन्तात् प्रापय ॥३॥

    (इति द्वितीयः)- अयं होता जज्ञानः अग्निः वृक्तबर्हिषे नःअस्मभ्यं च देवान् आवह समन्तात् प्रापयति, अतो अस्माकं स ईड्यः भवति॥३॥

    पदार्थ

    (प्रथम)- हे (अग्ने) स्तोतुमर्हेश्वर भौतिकोऽग्निर्वा=हे अग्ने स्तुति किये जाने योग्य परमेश्वर, (वन्दनीयेश्वर)=वन्दनीय ईश्वर, (त्वम्)=आप, (इह)=इस स्थान में, (जज्ञानः) प्रादुर्भावयिता=प्रकट कराने वाला, (होता) हुतस्य पदार्थस्य दाता=हवि के पदार्थों को देने वाला, (ईड्यः) अध्येष्टव्यः=स्तुति किये जाने योग्य, (असि)=हो, (वृक्तबर्हिषे) वृक्तं त्यक्तं हविर्हिष्यन्तरिक्षे येन तस्मा ऋत्विजे- वृक्तं=हवि को लेकर अन्तरिक्ष में छोड़ने वाला ट्टत्विज,  (च)=और, (देवान)=देवों को, (आवह) समन्तात् प्रापय=हर ओर से प्राप्त कराइये॥३॥ 
    पदार्थ-(द्वितीय)- (अयम्) यह (होता) हुतस्य पदार्थस्य दाता=हवि के पदार्थों को देने वाला, (जज्ञानः) प्रादुर्भावयिता=प्रकट कराने वाला, (अग्निः) स्तोतुमर्हेश्वर भौतिकोऽग्निर्वा=भौतिक अग्नि, (वृक्तबर्हिषे) वृक्तं त्यक्तं हविर्हिष्यन्तरिक्षे येन तस्मा ट्टत्विजे=हवि को लेकर अन्तरिक्ष में छोड़ने वाला ऋत्विज, (अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (च)=और, (देवान)=देवों को, {आवह-(समन्तात् प्रापयति)} हर ओर से प्राप्त करता है, (अतः)=अतः, (अस्माकम्)=हमको, (ईड्यः) अध्येष्टव्यः=स्तुति किये जाने योग्य, (भवति)=होता है॥३॥
    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (प्रथमः) हे (अग्ने) स्तुति किये जाने योग्य परमेश्वर (वन्दनीयेश्वर) वन्दनीय ईश्वर! (त्वम्) आप (इह) इस स्थान में (जज्ञानः)  प्रकट कराने वाले  (होता) हवि के पदार्थों को देने वाले और (ईड्यः) स्तुति किये जाने योग्य (असि) हो। (वृक्तबर्हिषे) हवि को लेकर अन्तरिक्ष में छोड़ने वाले ऋत्विज  (च) और (देवान्) देवों को (आवह)  हर ओर से प्राप्त कराइये॥३॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। हे मनुष्य लोगो ! जिस प्रत्यक्ष अग्नि में सुगन्धि आदि गुणयुक्त पदार्थों का होम किया करते हैं, जो उन पदार्थों के साथ अन्तरिक्ष में ठहरनेवाले वायु और मेघ के जल को शुद्ध करके इस संसार में दिव्य सुख उत्पन्न करता है, इस कारण हम लोगों को इस अग्नि के गुणों का खोज करना चाहिये, यह ईश्वर की आज्ञा सब को अवश्य माननी योग्य है॥३॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणियाँ- इस मन्त्र में दो शब्द आये हैं-१-ऋत्विज्, २-हवि। इनको अधोलिखित रूप से स्पष्ट करते हैं-


    १-ऋत्विज्-स्तुतियों को गति प्रदान करनेवाले और समय पर उपस्थित होकर देवताओं के लिये या ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेवाले को ऋत्विज्  कहते हैं।


    २-हवि-यज्ञ में जो आहुतीय द्रव्य सामग्री और घृत होता है, वह हवि कहलाता है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

     (द्वितीयः)-(अयम्) यह (होता)  हवि के पदार्थों को देने और (जज्ञानः) प्रकट कराने वाला है। (अग्निः) भौतिक अग्नि और (वृक्तबर्हिषे) हवि को लेकर अन्तरिक्ष में छोड़ने वाला ऋत्विज (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (च) और (देवान) देवों को (आवह) हर ओर हवि प्राप्त करते हैं। (अतः) अतः (अस्माकम्) वह हमारे लिए (ईड्यः) स्तुति किये जाने योग्य (भवति) होता है॥३॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अग्ने) स्तोतुमर्हेश्वर भौतिकोऽग्निर्वा (देवान्) दिव्यगुणसहितान् पदार्थान् (इह) अस्मिन् स्थाने (आ) अभितः (वह) वहति वा (जज्ञानः) प्रादुर्भावयिता (वृक्तबर्हिषे) वृक्तं त्यक्तं हविर्बर्हिष्यन्तरिक्षे येन तस्मा ऋत्विजे। वृक्तबर्हिष इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं०३.१८) (असि) भवति (होता) हुतस्य पदार्थस्य दाता (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (ईड्यः) अध्येष्टव्यः॥३॥
    विषयः- अथेश्वरभौतिकावुपदिश्येते।

    अन्वयः- हे अग्ने वन्दनीयेश्वर ! त्वमिह जज्ञानो होतेऽड्योऽसि नोऽस्मभ्यं वृक्तबर्हिषे च देवानावह समन्तात् प्रापय (इति एकः)। अयं होता जज्ञानोऽग्निर्वृक्तबर्हिषे नोऽस्मभ्यं च देवानावह समन्तात् प्रापयति, अतोऽस्माकं स ईड्यो भवति (इति द्वितायः)॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यस्मिन् प्रादुर्भूतेऽग्नौ सुगन्ध्यादिगुणयुक्तानां द्रव्याणां होमः क्रियते, स तद्द्रव्यसहित आकाशे वायुं मेघमण्डलं च, शुद्धे ह्यस्मिन् संसारे दिव्यानि सुखानि जनयति, तस्मादयमस्माभिर्नित्यमन्वेष्टव्यगुणोऽस्तीतीश्वराज्ञा मन्तव्या॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    देवों का आवाहन 

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - हमारी सम्पूर्ण अग्नगति के साधक प्रभो ! (इह) - इस जीवन में (वृक्तबहिषे) - जिसने अपने हृदयान्तरिक्ष को सब वासनाओं से वर्जित [वृक्त] किया है  , उस पवित्रहृदय पुरुष के लिए (देवान्) - सर्व दिव्यगुणों को (आवह) - प्राप्त कराइए । वासनाशून्य हृदय दिव्यगुणों के बीजों को बोने के लिए एक उर्वर क्षेत्र के रूप में तैयार किया गया है  , उसमें ये उत्तम बीज न बोये जाएँगे तो यहाँ फिर वासनाओं के झाड़ - झंखाड़ों के उग आने की आशंका तो है ही । 

    २. हे प्रभो ! आप ही (होता) - हमारे लिए इन गुणों को पुकारनेवाले हैं अथवा सब अच्छाइयों के आप ही देनेवाले हैं । आपकी कृपा से ही हम अपने जीवन - मार्ग में आगे और आगे बढ़ते हैं । 

    ३. (नः ईड्यः) - आप ही हमसे स्तुति करने योग्य हैं  , आपको ही हम अपने जीवन का लक्ष्य बनाते हैं । हम आप तक पहुँच सकें  , अतः हम आपके ही गुणों का ध्यान करते हैं । 

    ४. हे प्रभो ! (जज्ञानः) - प्रादुर्भूत होते हुए आप हममें दिव्यगुणों को प्राप्त करानेवाले हैं । महादेव के आने पर देव तो आएँगे ही । प्रभु का प्रकाश होने पर वहाँ से अन्धकार में पनपनेवाले आसुर - भाव नष्ट हो जाते हैं । महादेव की तृतीय नेत्रज्योति से कामदेव भस्म हो जाते हैं  , तो मेरे हृदय में भी महादेव के प्रकट होने पर काम का भस्म हो जाना निश्चित ही है और तब सब दिव्यगुणों का विकास क्यों न होगा? 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हे प्रभो ! हृदयों में प्रकट होते हुए आप सब दिव्यगुणों का प्रादुर्भाव करिए । आप ही को तो हमें सब अच्छाइयों को प्राप्त कराना है  , आप ही हमारे स्तुत्य हो ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जगत् कर्त्ता, सर्वज्ञ परमेश्वर का अग्नि, दूत, विश्पति आदि नामों से वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) सूर्य के समान तेजस्विन् ! अग्रणी नेताः ! अथवा परमेश्वर ! विद्वन् ! तू ( इह ) यहां ( देवान् ) सूर्य जिस प्रकार किरणों को प्राप्त करता है उसी प्रकार तू विद्वान् पुरुषों को ( आवह ) प्राप्त कर । तू (वृक्तबर्हिषे) यज्ञार्थ कुशादि काट कर लाने वाले कुशल या विद्वान् पुरुष के उपकार के लिए ( जज्ञानः ) स्वयं प्रकट होकर और उत्तम ज्ञानों को प्रकट कराने वाला और ( होता ) अग्नि के समान आहुति किये या श्रद्धापूर्वक दिये पदार्थों को ग्रहण करने वाला, ( नः ) हमारा ( ईड्यः ) पूजनीय ( होता असि ) होता नामक विद्वान् या उपदेष्टा ( असि ) हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः । अग्निर्देवता । गायत्री । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 981 
    ओ३म् अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह जज्ञा॒नो वृ॒क्तब॑र्हिषे ।
    असि॒ होता॑ न॒ ईड्य॑: ॥
    ऋग्वेद 1/12/3 

    हे तेजोमय !! प्रभु ज्ञानी !! 
    ज्योतिर्मयी जग के स्वामी,
    साधक के शुद्ध हृदय में,
    सूर्य सम हो अग्रगामी

    जब ज्ञान कर्म-तप से
    हुआ शुद्ध हृदय का उदयन,
    साधक के उस हृदय में
    तुम उदित होते भगवन्
    अघ वासनाएँ  भागीं,
    साधक बना निष्कामी 

    रवि, सृष्टियों को जैसे,
    करे ज्योति से विभासित,
    परमात्म देव वैसे ,
    करता हृदय प्रकाशित
    दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव ,
    देता है अन्तर्यामी

    स्तुति -प्रार्थना- उपासना 
    ईश्वर की करते साधक,
    हर परिस्थिति में साधक,
    रहते हैं बनके पावक 
    सुन के पुकार करता,
    उनको निहाल स्वामी

    हे तेजोमय !! प्रभु ज्ञानी !! 
    ज्योतिर्मयी जग के स्वामी,
    साधक के शुद्ध हृदय में,
    सूर्य सम हो अग्रगामी

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई*
    रचना दिनाँक    :- १६.१.१९९७                    १९.१०
    राग :- कर्नाटक राग वेलावली( पटदीप) 
    गाने का समय दिन का तीसरा प्रहर,   ताल दादरा ६ मात्रा
    शीर्षक :- हे प्रभु तू हमें दिव्य गुणों को प्राप्त करें 
    *तर्ज :-  अनुराग लोल गात्री( मलयालम) 
    0061-661 

    अग्रगामी = नेता  
    उदयन = उत्थान
    अघ = पाप,   
    विभासित = चमकाना
    पावक = शुद्ध, पवित्र
    निहाल = सब प्रकार से संतुष्ट व प्रसन्न
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    ज्ञान-कर्म रूप अरणियों की रगड़ से, ज्ञान के अनुरूप आचरण करने से, उपासक के हृदय में जब सूर्य के समान उस प्रकाश स्वरूप प्रभु का उदय होता है और इधर 'वृक्तबर्हिषे'  जो अपनी वासनाओं को वरजते - वरजते अपने हृदय को वासना शून्य अर्थात सर्वथा स्वच्छ- निर्मल पवित्र बना लेता है,तो फिर जैसे उदय होते ही सूर्य अपनी रचनाओं से सब को आलोकित- प्रकाशित एवं तेजोमय बनाकर नाना विध शक्तियों से युक्त करता है, ऐसे वह प्रकाशस्वरूप प्रभु फिर उसको उत्तम दिव्य गुण- कर्म- स्वभाव से युक्त करता है। 
    भक्तों उपासकों का तो फिर एकमात्र वही परमेश्वर ही स्तुत्य उपास्य पूज्य हो जाता है, और फिर वह सब अपनी हर परिस्थिति में उसी का ही आव्हान करते हैं और वह परमात्मा भी फिर उनकी हर प्रकार की पुकार को सुनकर उन्हें निहाल-कृतार्थ करता है।

    🕉️👏🏽🧎🏽‍♂️ईश भक्ति भजन
    भगवान ग्रुप द्वारा 🎧

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्या प्रत्यक्ष अग्नीत सुगंधी गुणयुक्त पदार्थांचा होम केला जातो, तो त्या पदार्थांबरोबर अंतरिक्षात राहणाऱ्या वायू व मेघांच्या जलाला शुद्ध करून या जगात दिव्य सुख उत्पन्न करतो. या कारणांमुळे आम्हाला अग्नीच्या गुणांचा शोध लावला पाहिजे. ही ईश्वराची आज्ञा सर्वांनी अवश्य मानली पाहिजे. ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, omniscient and omnipresent power, bring us here the brilliant divine gifts of yajna for the pure at heart. You alone are the chief priest and performer of the yajna of creation. You alone are adorable.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Now by the word ‘Agni‘ physical fire and God have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First in favour of God:- He=O! (agne)=Praiseworthy, (vandanīyeśvara)= venerable God, (tvam)-You, (iha)=in this place, (jajñānaḥ)=revealers, (hotā)=givers of substances for sacrifice, and (īḍyaḥ)= praiseworthy, (asi)=are, (vṛktabarhiṣe)= Ritvij who drops havi (of substances of sacrifices ) in space, (ca)=and, (devāna)=to deities, (āvaha)= Get obtained from all sides. Second in favour of physical fire:- (ayam)=This, (hotā)= the giver of the havi (substances offered in sacrifice) and, (jajñānaḥ)=is revealer, (agniḥ)=physical fire and, (vṛktabarhiṣe)= ṛtvija who carries Havi and drops in the space, (asmabhyam)=for us, (ca)=and, (devāna)=to deities, (āvaha)=gets obtained Havi from all sides, (ataḥ)=so, (asmākam)=for us, (īḍyaḥ)= deserves to be praised, (bhavati)=is.

    English Translation (K.K.V.)

    First in favour of God:- O praiseworthy and venerable God! You are the givers of substances for sacrifice and praiseworthy, who reveals in this place. Get obtained from all sides to ṛtvija who drops havi (substances of sacrifices) in the space and offers to the deities. Second in favour of physical fire:- This is the giver of the havi (substances offered in the yajan) and revealer. The physical fire and ṛtvija, who carries Havi and drops in the space, gets obtained Havi from all sides for us and for the deities. Therefore he deserves to be praised for us.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as a figurative in this mantra. O human beings! The direct fire in which we do the yajan of the substances with fragrance etc., which by purifying the air and cloud waters, stay in the space with those substances creates divine happiness in this world, therefore we have to search for the qualities of this fire, It should be done, this command of God must be obeyed by everyone.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    There are two words in this mantra-1-ṛtvij, 2-Havi, which are being explained below- 1- ṛtvij- The one who gives and enhances the praises and is present on time for performing sacrifices or one who performs yajan in every season is called ṛtvij. 2- Havi- The material and ghṛta (butter oil or ghee) which are offered in the Havi-Yajan, it is called Havi.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now by the word Agni, God and Fire are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) The meaning in the case of God is — O Adorable God, bring to us all desirable objects and give us power to attain all noble virtues. Thou art revealed in the heart of a true Yogi who has weeded out all impurity and who performs Yajnas, putting oblations in the fire. Thou art Adorable and Giver of all desirable objects and true happiness. Taking the second meaning of verb we have translated it as the Universe संगतस्यसंसारस्य or संसारयंज्ञस्य ।

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिंगलिश (1)

    Word Meaning

    (अग्ने) हे जगन्नेता परमेश्वर! (जज्ञान:) प्रकट हो कर आप सर्वज्ञ (वृक्तबर्हिषे) बाह्य अग्नि का परित्यागकरके अध्यात्मअग्नि के उपासक के लिये, (इह) इस जीवन में (देवान्‌) दिव्यशक्तियां (आ वह) प्राप्त कराइये। (होता) शक्ति प्रदाता आप ही (न:) हमारे अब (ईड्य: असि) स्तुत्य और उपास्य हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top