ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 126/ मन्त्र 2
श॒तं राज्ञो॒ नाध॑मानस्य नि॒ष्काञ्छ॒तमश्वा॒न्प्रय॑तान्त्स॒द्य आद॑म्। श॒तं क॒क्षीवाँ॒ असु॑रस्य॒ गोनां॑ दि॒वि श्रवो॒ऽजर॒मा त॑तान ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । राज्ञः॑ । नाध॑मानस्य । नि॒ष्कान् । श॒तम् । अश्वा॑न् । प्रऽय॑तान् । स॒द्यः । आद॑म् । श॒तम् । क॒क्षीवा॑न् । असु॑रस्य । गोना॑म् । दि॒वि । श्रवः॑ । अ॒जर॑म् । आ । त॒ता॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं राज्ञो नाधमानस्य निष्काञ्छतमश्वान्प्रयतान्त्सद्य आदम्। शतं कक्षीवाँ असुरस्य गोनां दिवि श्रवोऽजरमा ततान ॥
स्वर रहित पद पाठशतम्। राज्ञः। नाधमानस्य। निष्कान्। शतम्। अश्वान्। प्रऽयतान्। सद्यः। आदम्। शतम्। कक्षीवान्। असुरस्य। गोनाम्। दिवि। श्रवः। अजरम्। आ। ततान ॥ १.१२६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 126; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
केऽत्र यशो विस्तारयन्तीत्याह ।
अन्वयः
यः कक्षीवान् विद्वानसुरस्येव नाधमानस्य राज्ञः शतं निष्कान् प्रयतान् शतमश्वान् दिव्यजरं गोनां शतमिव श्रव आततान तमहं सद्य आदम् ॥ २ ॥
पदार्थः
(शतम्) (राज्ञः) (नाधमानस्य) प्राप्तैश्वर्यस्य (निष्कान्) सौवर्णान् (शतम्) (अश्वान्) तुरङ्गान् (प्रयतान्) सुशिक्षितान् (सद्यः) (आदम्) आददामि (शतम्) (कक्षीवान्) बह्व्यः कक्षयः विद्याप्रदेशा विदिताः सन्ति यस्य सः (असुरस्य) मेघस्य (गोनाम्) किरणानाम् (दिवि) आकाशे (श्रवः) श्रूयमाणं यशः (अजरम्) वयोनाशहीनम् (आ) (ततान) विस्तृणाति ॥ २ ॥
भावार्थः
ये न्यायकारिणो विदुषो राज्ञः सकाशात् सत्कारं प्राप्नुवन्ति ते यशो वितन्वते ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन इस संसार में यश का विस्तार करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
जो (कक्षीवान्) विद्या के बहुत व्यवहारों को जानता हुआ विद्वान् (असुरस्य) मेघ के समान उत्तम गुणी (नाधमानस्य) ऐश्वर्यवान् (राज्ञः) राजा के (शतम्) सौ (निष्कान्) निष्क सुवर्णों (प्रयतान्) अच्छे सिखाये हुए (शतम्) सौ (अश्वान्) घोड़ों और (दिवि) आकाश में (अजरम्) अविनाशी (गोनाम्, शतम्) सूर्यमण्डल की सैकड़ों किरणों के समान (श्रवः) श्रूयमाण यश को (आ, ततान) विस्तारता है, उसको मैं (सद्यः) शीघ्र (आदम्) स्वीकार करता हूँ ॥ २ ॥
भावार्थ
जो न्यायकारी विद्वान् राजा के समीप से सत्कार को प्राप्त होते हैं, वे यश का विस्तार करते हैं ॥ २ ॥
विषय
यज्ञों का साधन व यशस्वी जीवन
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु मेरे जीवन में (शतशः) = यज्ञों का साधन करते हैं । इन यज्ञों की पूर्ति के लिए वे प्रभु मुझे ऐश्वर्य - सम्पन्न बनाते हैं । उस (नाधमानस्य) = [नाध - ऐश्वर्य] ऐश्वर्य सम्पन्न (राज्ञः) = सम्पूर्ण विश्व के शासक प्रभु के (निष्कान्) = सुवर्णों को [निष्क - Gold] (शतम्) = सौ वर्षपर्यन्त (आदम्) = ग्रहण करता हूँ । प्रभुकृपा से आजीवन मुझे वह धन प्राप्त होता रहता है, जिससे कि मैं यज्ञों का साधन कर पाता हूँ । २. इस धन के साथ मैं (प्रयतान्) = पवित्र (अश्वान्) = कर्मेन्द्रियों को [अश्नुते कर्मसु] भी (सद्यः) = शीघ्र ही (शतम्) = आजीवन (आदम्) = प्राप्त करता है । इन कर्मेन्द्रियों से ही तो यज्ञादि उत्तम कर्मों का साधन होगा । ३. (कक्षीवान्) = जीवन को यज्ञों के लिए अर्पित करने के लिए दृढ़ निश्चयवाला मैं (असुरस्य) = [असु क्षेपणे] धनों को बिखेरनेवाले अर्थात् धन की वर्षा करनेवाले उस प्रभु की (गोनाम्) = [गमयन्ति अर्थान] अर्थों का ज्ञान देनेवाली ज्ञानेन्द्रियों का (शतम्) = सौ वर्षपर्यन्त ग्रहण करनेवाला बनता हैं । इन ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान ही तो यज्ञों को पूर्ण करवाएगा । बिना ज्ञान के तो कर्म अधूरे व दूषित ही रह जाते हैं । ४. इस प्रकार प्रभु मुझे [क] यज्ञों के साधक धन देते हैं, [ख] इन धनों से यज्ञ कर सकने के लिए पवित्र कर्मेन्द्रियाँ प्रास कराते हैं, [ग] पवित्रता के लिए साधनभूत ज्ञान की साधक ज्ञानेन्द्रियाँ देते हैं । इस प्रकार यज्ञों को मेरे जीवन से पूर्ण कराके (दिवि) = इस ह्युलोक में (अजरं श्रवः) = न जीर्ण होनेवाले यश को (आततान) = विस्तृत करते हैं । इन यज्ञों से मेरा यश फैलता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु मुझे 'धन, पवित्र कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियाँ' प्राप्त कराते हैं । इन साधनों से मेरा जीवन यज्ञों को सिद्ध करता हुआ यशस्वी बनता है ।
विषय
वीरों के दृष्टान्तों से जितेन्द्रियों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
मैं ( कक्षीवान् ) नाना विद्या प्रस्थानों को जानने वाला और ( कक्षीवान् ) बगल में यज्ञोपवीतादि धारण कर, विद्वान् होकर ( असुरस्य ) मेघ के समान शिष्यों और जीवों को प्राणदान करने वाले आचार्य और परमेश्वर की ( गोनां शतम् ) सूर्य की किरणों के समान सैकड़ों वाणियों को ( आदम् ) प्राप्त करूं । और ( दिवि ) ज्ञान प्रकाश में ( अजरम् ) अजर, कभी नाश को प्राप्त न होने वाले ( श्रवः ) यश और ख्याति, या ज्ञान को ( आततान ) विस्तृत करूं । वही मैं ( नाधमानस्य राज्ञः ) ऐश्वर्यवान् होते हुए, समृद्ध राजा के योग्य ( शतम् निष्कान् ) सैकड़ों मोहरों को और ( शतम् प्रयतान् अश्वान् ) सैकड़ों खूब सधे हुए घोड़ों को भी ( सद्यः ) शीघ्र ही ( आदम् ) प्राप्त करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—५ कक्षीवान् । ६ भावयव्यः । ७ रोमशा ब्रह्मवादिनी चर्षिः विद्वांसो देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७ अनुष्टुप् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांचा न्यायी विद्वान राजाकडून सत्कार होतो त्यांचे यश सर्वत्र पसरते. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I always accept and approve of the ruler’s ways of charity, a man glorious, generous as the cloud and a protector of the pranic energies of life, and I admire his gifts of a hundred golds, hundred horses fast and well- trained, and a hundred cows and pieces of land. Rightly the man who knows the various ways of knowledge and charity extends his immortal fame to the heights of heaven.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who become illustrious and renowned is told in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I willingly or un-hesitatingly accept a great scholar as my teacher, whom a wealthy King benevolent like the cloud has presented a hundred Nishkas (golden coins) and a hundred vigorous and trained, horses and who on account of generosity and other virtues has spread his deathless (immortal glory) like hundreds of rays of the sun in the sky.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कक्षीवान) बह्व यः कक्षयः विद्याप्रदेशा विदिताः सन्ति यस्य सः = A great scholar well-versed in various sciences. (श्रवः) श्रूयमाणंयश: = Renown or reputation.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons become distinguished who receive honor from a just and learned King, on account of their noble virtues.
Translator's Notes
(असुरस्य) मेघस्य | Rishi Dayananda Sarasvati has given the following note on कक्षीवान् in his commentary on Rig. 1. 18. 1.. या: कक्षासु करांगुलिक्रियासु भवा: शिल्पविद्यास्ताः प्रशस्ता विद्यन्ते यस्य सः ( कक्षा इत्यंगुलिनामसु पठितम् निघ० २.५) अत्र कक्षा शब्दाद् भवे छन्दसीति यत् ततः प्रशंसायां मतुप् कक्षायाः संज्ञायां मतौ संप्रसारणं कर्तव्यम् । अष्टा० ६. १. ३७ अनेन वार्तिकेन सम्प्रसारणम् । आसन्दीवद० अष्टा० ७. २. १२ इति निपातनादयकारस्य वकारादेशः || It is therefore wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take कक्षीवान् to be a proper noun or the name of a particular Rishi, instead of taking it as a derivative word denoting a great scholar well-versed in various sciences and arts. श्रवः - श्रवणीयं यश: इति निरुक्ते ११.९ श्रवः - प्रशंसाम् इति निरुक्ते ४.२४ असुर इति मेघनाम ( निघ० १.१० )
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