ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 126/ मन्त्र 4
च॒त्वा॒रिं॒शद्दश॑रथस्य॒ शोणा॑: स॒हस्र॒स्याग्रे॒ श्रेणिं॑ नयन्ति। म॒द॒च्युत॑: कृश॒नाव॑तो॒ अत्या॑न्क॒क्षीव॑न्त॒ उद॑मृक्षन्त प॒ज्राः ॥
स्वर सहित पद पाठच॒त्वा॒रिं॒शत् । दश॑ऽरथस्य । शोणाः॑ । स॒हस्र॑स्य । अग्रे॑ । श्रेणि॑म् । न॒य॒न्ति॒ । म॒द॒ऽच्युतः॑ । कृ॒श॒नऽव॑तः । अत्या॑न् । क॒क्षीव॑न्तः । उत् । अ॒मृ॒क्ष॒न्त॒ । प॒ज्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
चत्वारिंशद्दशरथस्य शोणा: सहस्रस्याग्रे श्रेणिं नयन्ति। मदच्युत: कृशनावतो अत्यान्कक्षीवन्त उदमृक्षन्त पज्राः ॥
स्वर रहित पद पाठचत्वारिंशत्। दशऽरथस्य। शोणाः। सहस्रस्य। अग्रे। श्रेणिम्। नयन्ति। मदऽच्युतः। कृशनऽवतः। अत्यान्। कक्षीवन्तः। उत्। अमृक्षन्त। पज्राः ॥ १.१२६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 126; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
केऽत्र चक्रवर्त्तिराज्यं कर्त्तुमर्हन्तीत्याह।
अन्वयः
यस्य दशरथस्य चत्वारिंशच्छोणाः सहस्रस्याग्रे श्रेणिं नयन्ति। यस्य वा पज्राः कक्षीवन्तो भृत्या मदच्युतः कृशनावतोऽत्यानुदमृक्षन्त स शत्रून् जेतुमर्हति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(चत्वारिंशत्) (दशरथस्य) दश रथा यस्य सेनेशस्य (शोणाः) रक्तगुणविशिष्टा अश्वाः (सहस्रस्य) (अग्रे) पुरतः (श्रेणिम्) पङ्क्तिम् (नयन्ति) (मदच्युतः) ये मदान् च्यवन्ते ते (कृशनावतः) कृशनं बहु सुवर्णादिभूषणं विद्यते येषान्ते (अत्यान्) येऽतन्ति मार्गान् व्याप्नुवन्ति तान् (कक्षीवन्तः) प्रशस्ताः कक्षयो विद्यन्ते येषान्ते (अमृक्षन्त) मृषन्ति सहन्ते (पज्राः) पद्यते गच्छति मार्गान् यैस्ते। अत्र वर्णव्यत्ययेन दस्य जः ॥ ४ ॥
भावार्थः
येषां चतुरश्वयुक्ता दशसु दिक्षु रथाः सहस्राण्याश्विका लक्षाणि पदातयोऽक्षयः कोशाः पूर्णा विद्याविनयाः सन्ति त एव साम्राज्यं कर्त्तुमर्हन्ति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस संसार में कौन चक्रवर्त्ति राज्य करने को योग्य होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जिस (दशरथस्य) दशरथों से युक्त सेनापति के (चत्वारिंशत्) चालीस (शोणाः) लाल घोड़े (सहस्रस्य) सहस्र योद्धा वा सहस्र रथों के (अग्रे) आगे (श्रेणिम्) अपनी पाँति को (नयन्ति) पहुँचाते अर्थात् एक साथ होकर आगे चलते वा जिस सेनापति के भृत्य ऐसे हैं (पज्राः) कि जिनके साथ मार्गों को जाते और (कक्षीवन्तः) जिनकी प्रशंसित कक्षा विद्यमान अर्थात् जिन के साथी छटे हुए वीर लड़नेवाले हैं, वे (मदच्युतः) जो मद को चुआते उन (कृशनावतः) सुवर्ण आदि के गहने पहिने हुए तथा (अत्यान्) जिनसे मार्गों को रमते पहुँचते उन घोड़ा, हाथी, रथ आदि को (उदमृक्षन्त) उत्कर्षता से सहते हैं, वह शत्रुओं के जीतने को योग्य होता है ॥ ४ ॥
भावार्थ
जिनके चार घोड़ा, युक्त दशों दिशाओं में रथ, सहस्रों अश्ववार (असवार), लाखों पैदल जानेवाले, अत्यन्त पूर्ण कोश धन और पूर्ण विद्या, विनय, नम्रता आदि गुण हैं, वे ही चक्रवर्त्ति राज्य करने को योग्य हैं ॥ ४ ॥
विषय
पिछले चालीस वर्ष
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र में 'दस रथों' का उल्लेख हुआ है । इस (सहस्त्रस्य) = उल्लासमय जीवनवाले (दशरथस्य) = दस इन्द्रियरूप अश्वों से युक्त रथवाले दशरथ के (शोणाः) = तेजस्विता के कारण शोण [red] वर्णवाले इन्द्रियाश्व (चत्वारिंशत्) = जीवन के पिछले चालीस वर्षों में (अग्ने श्रेणिम्) = मानव-श्रेणी के अग्रभाग में-वानप्रस्थ व संन्यास में (नयन्ति) = प्राप्त कराते हैं । पहले साठ वर्षों में यह ब्रह्मचर्य व गृहस्थ को पूर्ण कर चुका है, अब ये चालीस वर्ष उसके वानप्रस्थ और संन्यास में व्यतीत होते हैं । २. (कक्षीवन्तः) = संयम रज्जु से अपने को बाँधनेवाले और अतएव (पज्राः) = शक्तिशाली [powerful] पुरुष (अत्यान्) = अपने इन्द्रियाश्वों को (उदमक्षन्त) = विषयपङ्क से ऊपर उठाकर शुद्ध कर डालते हैं । इनके इन्द्रियाश्व मदच्युतः मद का क्षरण करनेवाले, अर्थात् शक्तिशाली व निरभिमान होते हैं तथा (कृशनावतः) = ये स्वर्णवाले - स्वर्ण के समान दीप्तिवाले [कृशन - gold] अथवा उत्तम आकृतिवाले [कृशन - form] हैं । अपने इन्द्रियाश्वों को ऐसा बनाकर ये जीवन के इन पिछले चालीस वर्षों को संसार से निवृत्ति का ध्यान करते हुए बिताते हैं । एवं, पहले साठ वर्ष प्रवृत्ति के थे तो ये चालीस वर्ष निवृत्ति के हो जाते हैं । इस निवृत्ति के द्वारा ही ये शिखर पर पहुंचते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम जीवन की रात्रि के आने पर इन्द्रियाश्वों को शुद्ध बनाकर सब विषयों से निवृत्त होने का ध्यान करें ।
विषय
वीरों के दृष्टान्तों से जितेन्द्रियों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(दशरथस्य) दशों रथों के स्वामी, सेनापति के (चत्वारिंशत् ) चालीस ( शोणाः ) लाल वर्ण के, या तीव्र वेग से जाने वाले अश्व ( सहस्रस्य ) सहस्रों पदाति योद्धाओं के ( अग्रे ) आगे रह कर ( श्रेणिम् ) समस्त नियमित पंक्ति या सेना के दस्ते, या रेजिमेण्ट को ( नयन्ति ) ले जावें और ( पज्राः ) तीव्र वेग से जाने वाले ( कक्षीवन्तः ) उत्तम बगलबन्ध लगाने वाले, वीर पुरुष ( मदच्युतः ) शत्रुओं का मढ़ उतार देने वाले, ( कृशनावतः ) सुवर्णादि धातु के आभूषणों से सजे ( अत्यान् ) वेगवान् अश्व को ( उद् अमृक्षन्त ) उत्तम रीति से वश करें । (२) दशों रमण साधनों का स्वामी आत्मा दशरथ है । प्रत्येक से अन्तःकरण चतुष्टय मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार इन चारों का पृथक् भोग होने से ४० अश्व हैं । वे ही सहस्त्रों सुखों के अग्रगामी होते हैं । ( पज्राः कक्षीवन्तः ) विद्वान् जन ही ( मदच्युतः ) हर्ष वर्षण करने वाले ( कृशना वतः ) आत्म-चेतना वाले ( अत्यान् ) इन इन्द्रिय रूप अश्वों को ( अद् अमृक्षन्त ) उत्तम रीति से वश करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—५ कक्षीवान् । ६ भावयव्यः । ७ रोमशा ब्रह्मवादिनी चर्षिः विद्वांसो देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७ अनुष्टुप् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांचे दशदिशांना चार घोड्यांनी युक्त रथ असतात. सहस्रो अश्वारोही, लाखो पायदळ, पूर्ण कोश, धन, तसेच ज्यांच्याजवळ पूर्ण विद्या, विनय व नम्रता इत्यादी गुण असतात. तेच चक्रवर्ती राज्य करण्यायोग्य असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Forty fiery horses of the commander of ten chariots march in formation in advance of a thousand. Golden decorated are they, camouflaged, a pioneer force, they challenge and break through the defences, clear the routes for the advance, and the forces move forward in multiformation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who are able to rule over a vast dominion is told in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Forty horses of reddish colour harnessed to the chariots of the commander of the army lead the procession in front of a thousand followers. He alone is able to conquer his enemies whose active attendants and helpmates rub down the high-spirited steeds, decorated with golden trappings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कक्षीवन्तः) प्रशस्ता: कक्षयो विद्यन्ते येषां ते = Having good helpers or associates. (दशरथस्य) दश रथा यस्य सेनेशस्य = Of the Commander of the army who has ten chariots.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons only are able to rule over a vast dominion who have chariots harnessed by four horses in ten directions, hundreds of thousand of horse men, hundreds of thousands of footmen, inexhaustible treasures, perfect knowledge and humility.
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