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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 126/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - विद्वाँसः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पूर्वा॒मनु॒ प्रय॑ति॒मा द॑दे व॒स्त्रीन्यु॒क्ताँ अ॒ष्टाव॒रिधा॑यसो॒ गाः। सु॒बन्ध॑वो॒ ये वि॒श्या॑ इव॒ व्रा अन॑स्वन्त॒: श्रव॒ ऐष॑न्त प॒ज्राः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पूर्वा॑म् । अनु॑ । प्रऽय॑तिम् । आ । द॒दे॒ । वः॒ । त्रीन् । यु॒क्तान् । अ॒ष्टौ । अ॒रिऽधा॑यसः । गाः । सु॒ऽबन्ध॑वः । ये । वि॒श्याः॑ऽइव । व्राः । अन॑स्वन्तः । श्रवः॑ । ऐष॑न्त । प॒ज्राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन्युक्ताँ अष्टावरिधायसो गाः। सुबन्धवो ये विश्या इव व्रा अनस्वन्त: श्रव ऐषन्त पज्राः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्वाम्। अनु। प्रऽयतिम्। आ। ददे। वः। त्रीन्। युक्तान्। अष्टौ। अरिऽधायसः। गाः। सुऽबन्धवः। ये। विश्याःऽइव। व्राः। अनस्वन्तः। श्रवः। ऐषन्त। पज्राः ॥ १.१२६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 126; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    केऽत्रोत्तमा भवन्तीत्याह ।

    अन्वयः

    ये सुबन्धवोऽनस्वन्तो व्राः पज्रा विश्याइव श्रव ऐषन्त तान् वस्त्रीन् युक्तानध्यक्षान् अष्टौ सभ्यानरिधायसो वीरान् गाश्चैषां पूर्वाम्प्रयतिमहमन्वाददे ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (पूर्वाम्) आदिमाम् (अनु) आनुकूल्ये (प्रयतिम्) प्रयतन्ते यया ताम् (आ) (ददे) गृह्णामि (वः) युष्माकम् (त्रीन्) (युक्तान्) नियुक्तान् (अष्टौ) (अरिधायसः) अरीन् शत्रून् दधति यैस्ते (गा) वृषभान् (सुबन्धवः) शोभना बन्धवो येषान्ते (ये) (विश्याइव) यथा विक्षु प्रजासु साधवो वणिग्जनाः (व्राः) ये व्रजन्ति ते। अत्र व्रजधातोर्बाहुलकादौणादिको डः प्रत्ययः। व्रा इति पदना०। निघं० ४। २। (अनस्वन्तः) बहून्यनांसि शकटानि विद्यन्ते येषान्ते (श्रवः) अन्नम् (ऐषन्त) इच्छेयुः (पज्राः) प्रपन्नाः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    ये जनाः सभासेनाशालाऽध्यक्षान् कुशलानष्टौ सभासदः शत्रुविनाशकान् वीरान् गवादीन् पशून् मित्राणि धनाढ्यान् वणिग्जनान् कृषीवलाँश्च संरक्ष्यान्नाद्यैश्वर्य्यमुन्नयन्ति ते मनुष्यशिरोमणयः सन्ति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कौन मनुष्य इस जगत् में उत्तम होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (ये) जो ऐसे हैं कि (सुबन्धवः) जिनके उत्तम बन्धुजन (अनस्वन्तः) और बहुत लढ़ा छकड़ा विद्यमान (व्राः) तथा जो गमन करनेवाले और (पज्राः) दूसरों को प्राप्त वे (विश्याइव) प्रजाजनों में उत्तम वणिक् जनों के समान (श्रवः) अन्न को (ऐषन्त) चाहें उन (वः) तुम्हारे (त्रीन्) तीन (युक्तान्) आज्ञा दिये और अधिकार पाये भृत्यों (अष्टौ) आठ सभासदों (अरिधायसः) जिनसे शत्रुओं को धारण करते समझते उन वीरों और (गाः) बैल आदि पशुओं को तथा इन सभों की (पूर्वाम्) पहिली (प्रयतिम्) उत्तम यत्न की रीति को मैं (अनु, आ, ददे) अनुकूलता से ग्रहण करता हूँ ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जो जन सभा, सेना और शाला के अधिकारी, कुशल चतुर आठ सभासदों, शत्रुओं का विनाश करनेवाले वीरों, गौ बैल आदि पशुओं, मित्र, धनी, वणिक्जनों और खेती करनेवालों की अच्छे प्रकार रक्षा करके अन्न आदि ऐश्वर्य्य की उन्नति करते हैं, वे मनुष्यों में शिरोमणि अर्थात् अत्यन्त उत्तम होते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    प्रथमाश्रम की तपस्या

    पदार्थ

    १. वेद की वाणियौं 'गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतीपङ्किस्विष्टुब्जगत्यै' [अथर्व०१९ । २१ । १] इस मन्त्र के अनुसार गायत्र्यादि सात छन्दों में हैं । इनमें गायत्री प्रमुख है । इनके तीन चरण हैं, प्रत्येक चरण आठ - आठ अक्षरों से युक्त है । इस प्रकार यह गायत्री चौबीस अक्षरोंवाली है । इन गायत्री आदि छन्दों को हम प्रथम आश्रम में ही ग्रहण करते हैं । ये सब छन्द गति देनेवाले प्रभु का धारण करते हैं । हे प्रभो! मैं (वः) = आपकी इन (गाः) = वाणियों को पूर्वा (प्रयतिम् अनु) = प्रथमाश्रम में होनेवाले प्रयत्न के अनुसार (आददे) = ग्रहण करता हूँ । जो वाणियाँ (त्रीन्) = तीन चरणों में हैं और आष्टी (युक्तान्) = प्रत्येक चरण में आठ अक्षरों से युक्त हैं अथवा जो (त्रीन्) = प्रकृति, जीव, परमात्मा तीनों का प्रतिपादन करती हैं और (अष्टौ युक्तान्) = 'पञ्च महाभूत, मन, बुद्धि व अहंकार' इन आठों से युक्त हैं, इनका ज्ञान कराती हैं । इनका ज्ञान देती हुई ये वाणियाँ (अरिधायसः) = उस प्रथम गति देनेवाले प्रभु का धारण करती हैं । इन वाणियों को ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यपूर्वक तपस्वी जीवन से ही प्राप्त करता है । २. (ये) = जो (सुबन्धवः) = उत्तम बन्धुत्ववाले होते हैं, जिन्हें उत्तम माता, पिता व आचार्य प्राप्त होते हैं, (विश्याः इव) = जो प्रजाओं का हित करनेवाले-से हैं, जिनकी सब क्रियाएँ लोकहित के लिए होती हैं, (व्राः) = जो प्रभु का वरण करनेवाले हैं और इसलिए (अनस्वन्तः) = उसम शरीर - शकटवाले हैं, (पज्राः) शक्तिशाली हैं, वे (श्रवः एषन्त) = ज्ञान की कामना करते हैं । ज्ञान की कामनावालों को 'सुबन्धु, विश्या, वा, अनस्वान् व पन' बनना चाहिए । ऐसा बनना ही ज्ञान - प्राप्ति का अधिकारी होना है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रथमाश्रम में हम जितना श्रम करेंगे [studious होंगे] उतना ही वेदज्ञान को प्राप्त कर पाएंगे । यह ज्ञान ही हमें प्रभु के समीप ले - जाएगा ।

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    विषय

    वीरों के दृष्टान्तों से जितेन्द्रियों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (सुबन्धवः) उत्तम सम्बन्धों से सम्बद्ध, परस्पर प्रेम और विद्यासम्बन्ध, और योनिसम्बधों से बंधे हुए (पज्राः) ज्ञानवान्, विद्वान् पुरुषो ! ( विश्याः व्राः इव अनस्वन्तः श्रवः ऐषन्त ) प्रजा जन में उत्तम धनवान्, वैश्य पुरुष, गाड़ियों के स्वामी, होकर जिस प्रकार वरण करने योग्य उत्तम स्त्रियों, प्रजाओं, तथा ( श्रवः ) अन्न, यश, धन को चाहते हैं उसी प्रकार आप लोग भी ( पज्राः ) ज्ञानवान् और साधन सम्पन्न ( अनस्वन्तः ) यज्ञ, उत्तम प्राण तथा यान शकट के स्वामी होकर (व्राः) वरण करने योग्य ऐश्वर्यों, जन समूहों और दूर जाने हारे वीरों और रथों को तथा ( श्रवः ) यश, अन्न और धन, ज्ञान को ( ऐषन्त ) प्राप्त करने की इच्छा करो। मैं अध्यक्ष पुरुष ( वः ) आप में से ( युक्तान् ) उत्तम रीति से कार्य करने योग्य, कुशल ( त्रीन् ) तीन मुख्य पुरुषों को और ( अष्टौ ) आठ प्रमुख सभासदों को ( अरिधायसः ) ऐश्वर्यवान् स्वामी के धारण पोषण करने, उसे बलवान् बनाये रखने में समर्थ या विपक्ष के शत्रु को थाम लेने वाले जानकर ( गाः ) कार्य राष्ट्र के संचालक रूप से, शकट में लगे बैलों के समान प्रमुख उत्तम पुरुषों और ( पूर्वाम् प्रयतिम् ) आप लोगों के सर्वोत्कृष्ट उत्तम प्रयत्नों को भी ( अनु आददे ) अपने अनुकूल करके धारण करता हूं । ( २ ) यह शरीर जीवन से युक्त ‘अनस्’ है । उसको धारण करने वाले गति, चेतना युक्त ‘पज्र’ प्राण हैं । वे एकत्र सुबद्ध होने से ‘सुबन्धु’ हैं । वे अन्न चाहते हैं । आत्मरूप स्वामी को धारण करने वाले होने से वे ‘अरिधायस्’ हैं । इस देह में गति उत्पन्न करने से इसमें लगे बैलों के समान होने से वे ‘गो’ हैं । सात शीर्षण्य प्राण आठवीं वाक् इनको और तीन, प्रमुख आत्मा, बुद्धि, मन इन सब को और इनके उत्तम व्यापार या चेष्टा सामर्थ्यों को मैं ( अनु आददे ) पहले भी धरता था, पुनः देह के भीतर आकर भी धारण करता, वश करता हूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—५ कक्षीवान् । ६ भावयव्यः । ७ रोमशा ब्रह्मवादिनी चर्षिः विद्वांसो देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७ अनुष्टुप् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक, सभा, सेना व संस्थेचे अधिकारी, कुशल, चतुर, आठ सभासद, शत्रूंचा विनाश करणारे वीर, गाय, बैल इत्यादींचे मित्र, धनवान, वैश्यांचे व शेतीचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करून अन्न इत्यादी ऐश्वर्याची वाढ करतात ते माणसांमध्ये शिरोमणी अर्थात अत्यंत उत्तम असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Noble brethren, I accept and promote the tradition laid down earlier, and I accept and apply the three tier system of education, defence and economic organisation and the eightfold policy of defence, justice and administration, development, production and distribution, health and nourishment symbolized by the generous and fertile cows. I exhort you all who, strong and bold, united together like the inmates of a home, as one body, equipped with chariots, march forward for the sake of honour and glory.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who are good people on earth is told in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I follow the former attempt of those three appointed presidents of the Assembly, army and educational institutions and eight members of the council of Ministers, who are subduers of their enemies and brave, who have good kins men, harnessed chariots, are active desirous of food like traders, associating themselves with noble persons. I also protect the cows and bulls.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (व्रा:) ये व्रजन्ति ते । अत्र व्रजधातोर्बाहुलकादौणादिको ढः प्रत्ययः । व्रा इति पदनाम निघ० ४.२ । = Active who go from place to place. (श्रवः) अनम् = Food. (पज्त्रा:) प्रपन्नाः = Approaching good and learned persons.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men become good leaders of society, who protect the three presidents of the Assembly, army and educational institutions (Gurukul) eight expert members of the council of Ministers, brave persons who are destroyers of their foes, cows and other animals, friends, wealthy traders and peasants and increase the growth of grain and other kind of wealth.

    Translator's Notes

    श्रव इत्यन्ननाम श्रूयत इतिसतः (निरुक्ते १०.३) कै: काऽत्र राज्येऽवश्यं प्राप्तव्येत्याह

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