ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 126/ मन्त्र 7
ऋषिः - रोमशा ब्रह्मवादिनी
देवता - विद्वाँसः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
उपो॑प मे॒ परा॑ मृश॒ मा मे॑ द॒भ्राणि॑ मन्यथाः। सर्वा॒हम॑स्मि रोम॒शा ग॒न्धारी॑णामिवावि॒का ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ऽउप । मे॒ । परा॑ । मृ॒श॒ । मा । मे॒ । द॒भ्राणि॑ । म॒न्य॒थाः॒ । सर्वा॑ । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । रो॒म॒शा । ग॒न्धारी॑णाम्ऽइव । अ॒वि॒का ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः। सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽउप। मे। परा। मृश। मा। मे। दभ्राणि। मन्यथाः। सर्वा। अहम्। अस्मि। रोमशा। गन्धारीणाम्ऽइव। अविका ॥ १.१२६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 126; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राज्ञी किं कुर्यादित्याह ।
अन्वयः
हे पते राजन् याऽहं गन्धारीणामिवाविका रोमशा सर्वास्मि तस्या मे गुणान् परा मृश मे दभ्राणि कर्माणि मोपोप मन्यथाः ॥ ७ ॥
पदार्थः
(उपोप) अतिसमीपत्वे (मे) मम (परा) (मृश) विचारय (मा) निषेधे (मे) मम (दभ्राणि) अल्पानि कर्माणि (मन्यथाः) जानीयाः (सर्वा) (अहम्) (अस्मि) (रोमशा) प्रशस्तलोमा (गन्धारीणामिव) यथा पृथिवीराज्यधर्त्रीणां मध्ये (अविका) रक्षिका ॥ ७ ॥
भावार्थः
राज्ञी राजानं प्रति ब्रूयादहं भवतो न्यूना नास्मि, यथा भवान् पुरुषाणां न्यायाधीशोऽस्ति तथाऽहं स्त्रीणां न्यायकारिणी भवामि, यथा पूर्वा राजपत्न्यः प्रजास्थानां स्त्रीणां न्यायकारिण्योऽभूवन् तथाहमपि स्याम् ॥ ७ ॥अत्र राजधर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥इति षड्विंशत्युत्तरं शततमं सूक्तमेकादशो वर्गोऽष्टादशोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर रानी क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे पति राजन् ! जो (अहम्) मैं (गन्धारीणाम् इव) पृथिवी के राज्यधारण करनेवालियों में जैसे (अविका) रक्षा करनेवाली होती वैसे (रोमशा) प्रशंसित रोमोंवाली (सर्वा) सब प्रकार की (अस्मि) हूँ उस (मे) मेरे गुणों को (परा, मृश) विचारो (मे) मेरे (दभ्राणि) कामों को छोटे (मा, उपोप) अपने पास में मत (मन्यथाः) मानो ॥ ७ ॥
भावार्थ
रानी राजा के प्रति कहे कि मैं आप से न्यून नहीं हूँ, जैसे आप पुरुषों के न्यायाधीश हो, वैसे मैं स्त्रियों का न्याय करनेवाली होती हूँ, और जैसे पहिले राजा-महाराजाओं की स्त्री प्रजास्थ स्त्रियों की न्याय करनेवाली हुई, वैसे मैं भी होऊँ ॥ ७ ॥इस सूक्त में राजाओं के धर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ छब्बीसवाँ सूक्त, ग्यारहवाँ वर्ग और अठारहवाँ अनुवाक समाप्त हुआ ॥
विषय
सर्वा रोमशा
पदार्थ
१. गतमन्त्र का ऋषि 'स्वनय भावयव्य' था जो अपना प्रणयन स्वयं करता है । वह इन्द्रियों व मन से सञ्चालित नहीं होता तथा भाव व चिन्तन को अपने साथ मिलानेवालों में [यु] उत्तम है[य] । उसने वेदवाणी का महत्त्व समझकर उसका ग्रहण करने का निश्चय किया । प्रस्तुत मन्त्र में वेदवाणी कहती है कि हे स्वनय भावयव्य | (उप उप मे परामश) = तू समीपता से मेरा आलिङ्गन कर । सूक्ष्मता से विचार करना ही इसका आलिङ्गन है [परामर्श - विचार] । जितनी सूक्ष्मता से इसका विचार किया जाए उतना ही उत्तम है । वेदवाणी कहती है (मा) = मत (मे) = मेरी (दभ्राणि) = अल्पता को (मन्यथाः) = मान और समझ । यह मत समझ कि मेरे शब्द कम अर्थवाले हैं । इनका अर्थ-गाम्भीर्य तो सूक्ष्म विचार से ही ज्ञात हो पाएगा । २. (अहम्) = मैं (सर्वा अस्मि) = पूर्ण हूँ, सब सत्यविद्याओं की प्रकाशिका हूँ । मुझमें (रोमशा) = ज्ञानजल का निवास है [रोम - water] .२ और (गन्धारीणाम्) = वेदवाणी का धारण करनेवालों की मैं अविका (इव) = रक्षिका के समान हूँ । मुझसे रक्षित होकर व्यक्ति वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता । ज्ञान का व्यसन अन्य सब व्यसनों से बचाने का साधन हो जाता है । ३. इस रोमशा वेदवाणी का अध्ययन करनेवाली ब्रह्मवादिनी का नाम भी रोमशा हो गया है । यही इस मन्त्र की ऋषिका है ।
भावार्थ
भावार्थ - जितनी सूक्ष्मता से हम विचार करेंगे, उतना ही वेदार्थ की गूढ़ता को समझ पाएँगे । यह वेदवाणी सब सत्यविद्याओं की प्रकाशिका है ।
विषय
‘भावयव्य’ और ‘रोमशा’ का रहस्य ।
भावार्थ
हे राजन् ! ( मे ) मुझ राजसभा से सम्बन्ध रखने वाले समस्त विषयों पर ( उप उप ) समीप २ बैठ कर ( परामृश ) अत्यन्त सूक्ष्मता से विचार कर और ( मे ) मेरे कार्यों को ( दभ्राणि ) स्वल्प या राष्ट्र के लिये हानिकारक, तुच्छ ( मा मन्यथाः ) मत समझ । ( गन्धारीणां अविका ) पृथ्वी को धारण करने वाले, पर्वत प्रदेशों में रहने वाली भेड़ जिस प्रकार ( रोमशा ) रोम अर्थात् काट लेने योग्य ऊनरूप लोमों से आच्छादित होने से रोमशा है। उसी प्रकार मैं भी ( गन्धारीणाम् ) पृथिवी को धारण, पालन पोषण करने वाली समस्त नीतियों की ( अविका ) रक्षा करने वाली होकर ( रोमशा ) काटने और उखाड़ फेंकने योग्य शत्रुओं का अन्त कर देने वाली, और ( सर्वा ) सब कुछ, सर्वस्व (अस्मि) हूं, अथवा ( सर्वा रोमशा अस्मि ) सब प्रकार से और पूर्णरूप से अजेय शत्रु का अन्त कर देनेवाली हूं । [ २ ] पति के प्रति पत्नी के पक्ष में—( मे उपउप परामृश ) हे प्रियतम ! तू मेरे समस्त अंगों का स्पर्श तथा मेरे प्रत्येक गुण अवगुण पर विचार कर । ( मे दभ्राणि मा मन्यथाः) मेरे अंगों तथा गुणों और गृह कार्यों को भी स्वल्प तथा हानिकारक मत जान । ( गन्धारीणाम् अविका इव ) पर्वतप्रदेशीय भेड़ जिस प्रकार लोमों से रोमशा होती है, उसी प्रकार मैं गोपालन करनेवाली स्त्रियों के बीच सबसे उत्तम रक्षिका होकर ( सर्वा ) सब प्रकार से ( रोमशा ) उच्छेद्य दुःखों का अन्त कर देने वाली हूं । ( ३ ) ब्रह्मविद्या के पक्ष में—हे योगिन् ! मुमुक्षो ! तू अति सूक्ष्मता से विचार कर। मुझ ब्रह्म विद्या के छोटे से छोटे हृदयाकाश में उत्पन्न अनुभवों को स्वल्प मत जान । (गन्धारीणां ) वाणी को धारण करने वाली समस्त चेतना शक्तियों को मैं पालन करने वाली, सर्व भूतात्मस्वरूप होकर ( रोमशा ) लोम लोम में व्यापक,अथवा सब दुखों का अन्त कर देने वाली हूं ।
टिप्पणी
‘लोमशा’ लूयन्ते इति लोमानि तानि स्यति इति लोमशा । रत्वशत्वे छान्दसे । इत्येकादशो वर्गः ॥ इत्यष्टादशोऽनुवाकः ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—५ कक्षीवान् । ६ भावयव्यः । ७ रोमशा ब्रह्मवादिनी चर्षिः विद्वांसो देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७ अनुष्टुप् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
राणीने राजाला म्हणावे की, मी तुमच्यापेक्षा कमी नाही. जसे तुम्ही पुरुषांचे न्यायाधीश आहात. तशी मी स्त्रियांचा न्याय करणारी आहे व जसे पूर्वीचे राजे महाराजे व राण्या प्रजेचा न्याय करणारे होते, तशीच मी होईन. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Come close and closer to me and consult with me. Do not think that the little nameless things I say, advise and do are insignificant. One of the vigilant guards among the protective supporters of the nation, I am all over warm and protective like a golden fleece in winter cold.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a queen do is taught in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O my dear husband, O king, I am a protector among the Upholders of the kingdom and I possess beautiful hair. Please seriously take into consideration my virtues and do not look down upon my actions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(गन्धारीणाम् ) = Among the Upholders of the State. (अविका) रक्षिका = Protector
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The queen addressing the King says, I am not inferior to you. As you are dispenser of justice among men, in the same manner, I am dispenser of justice among women. Let me be the dispenser of justice among the women, as have been the queens before.
Translator's Notes
This last Mantra of the hymn is supposed to be the saying of Bhavya's wife, who is said to be minor. She assures her husband that she is a fully grown up woman, fit for sexual intercourse as Prof. Wilson's Translation runs- "Approach me (husband) deem me not in mature. I am covered with down like a eue of the Gandhari's. As a matter of fact, the Mantra clearly points out that there should be no idea of superiority or inferiority among the couple and they are complementary to each other. None is to be looked down upon. This is what some great thinkers of the West also have given expression to. For instance, John Ruskin's following passage in "Sesame and Lilies" are only paraphrase of Rishi Dayananda Sarasvati's. "We are foolish and without excuse foolish, in speaking of the superiority of the one sex to the other. Each completes the other and is completed by the other. The happiness and perfection of both depends on each asking and receiving from the other what the other can give." John Ruskin in "Sesame and Lilies." (P. 73). This hymn is connected with the previous hymn, as there is mention of the duties of a King in this hymn. Here ends the commentary on the 126th hymn of the Rigveda.
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