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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 126/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भावयव्यः देवता - विद्वाँसः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आग॑धिता॒ परि॑गधिता॒ या क॑शी॒केव॒ जङ्ग॑हे। ददा॑ति॒ मह्यं॒ यादु॑री॒ याशू॑नां भो॒ज्या॑ श॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आऽग॑धिता । परि॑ऽगधिता । या । क॒शी॒काऽइ॑व । जङ्ग॑हे । ददा॑ति । मह्य॑म् । यादु॑री । याशू॑नाम् । भो॒ज्या॑ । श॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आगधिता परिगधिता या कशीकेव जङ्गहे। ददाति मह्यं यादुरी याशूनां भोज्या शता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽगधिता। परिऽगधिता। या। कशीकाऽइव। जङ्गहे। ददाति। मह्यम्। यादुरी। याशूनाम्। भोज्या। शता ॥ १.१२६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 126; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    कैः काऽत्र राज्येऽवश्यं प्राप्तव्येत्याह ।

    अन्वयः

    या आगधिता परिगधिता जङ्गहे कशीकेव याशूनां यादुरी शता भोज्या मह्यं ददाति सा सर्वैः स्वीकार्य्या ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (आगधिता) समन्ताद्गृहीता। गध्यं गृह्णातेः। निरु० ५। १५। (परिगधिता) परितः सर्वतो गधिता शुभैर्गुणैर्युक्ता नीतिः। गध्यतिर्मिश्रीभावकर्मा। निरु० ५। १५। (या) (कशीकेव) यथा ताडनार्था कशीका (जङ्गहे) अत्यन्तं ग्रहीतव्ये (ददाति) (मह्यम्) (यादुरी) प्रयत्नशीला। अत्र यतधातोर्बाहुलकादौणादिक उरी प्रत्ययः तस्य दः। (याशूनाम्) प्रयतमानानाम्। अत्र यसु प्रयत्ने धातोर्बाहुलकादुण्प्रत्ययः सस्य शश्च। (भोज्या) भोक्तुं योग्यानि (शता) शतानि असंख्यातानि वस्तूनि ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यया नीत्याऽसंख्यातानि (सुखानि) स्युः सा सर्वैः संपादनीया ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    किनसे इस राज्य में क्या अवश्य पानी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (या) जो (आगधिता) अच्छे प्रकार ग्रहण की हुई (परिगधिता) सब ओर से उत्तम-उत्तम गुणों से युक्त (जङ्गहे) अत्यन्त ग्रहण करने योग्य व्यवहार में (कशीकेव) पशुओं के ताड़ना देनेके लिये जो औगी होती है, उसके समान (याशूनाम्) अच्छा यत्न करनेवालों की (यादुरी) उत्तम यत्नवाली नीति (भोज्या) भोगने योग्य (शता) सैकड़ों वस्तु (मह्यम्) मुझे (ददाति) देती है, वह सबको स्वीकार करने योग्य है ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिस नीति अर्थात् धर्म की चाल (से) अगणित सुख हों, वह सबको सिद्ध करनी चाहिये ॥ ६ ॥

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    विषय

    वेदवाणीरूप पत्नी पास

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित वेदवाणी (आगधिता) = सब प्रकार से ग्रहण की हुई, जहाँ से भी सम्भव हो वहाँ से ग्रहण की गई (परिगधिता) = सब ओर से ग्रहण की गई-आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक भावनाओं से अध्ययन की हुई (जंगहे) = हमारा ग्रहण करती है, (इव) = उसी प्रकार जैसे कि या (कशीका) = जो गोह होती है [सतवत्सा नकली - सा०] गोह एक स्थान को इतनी दृढ़ता से पकड़ लेती है कि तस्कर लोग दीवार आदि पर चढ़ने में इनका सहारा लेते हैं । हम वेदवाणी का ग्रहण करते हैं तो वेदवाणी हमारा ग्रहण करती है, पति पत्नी का तो पत्नी पति का । यह (यादुरी) = [बहु रेतोयुक्ता - सा०] हमें अत्यन्त तेजस्वी बनानेवाली, (भोज्या) = पालन करनेवालों में उत्तम (या) = जो वेदवाणी है वह (याशूनाम्) = [अश - भोजने] भोज्य वस्तुओं के (शता) = सैकड़ों को (मह्यं ददाति) = मुझे देती है । वेदवाणी से तेजस्विता प्राप्त होती है और जीवन के लिए आवश्यक सब वस्तुओं की प्राप्ति की योग्यता मिलती है । ज्ञान तो होता ही वह है जोकि 'सह नौ भुनक्तु हमें आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त कराके हमारा पालन करता है तथा 'तेजस्विनावधीतमस्तु' हमें तेजस्वी बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम वेदवाणी को अपनाते हैं तो वेदवाणी हमें अपनाती है । वह हमें तेजस्वी बनाती है और शतशः भोज्य वस्तुओं को देती है ।

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    विषय

    राजा, राजनीति, राजसत्ता का वर्णन, पक्षान्तर में चेतना, अध्यात्म शक्तियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( या ) जो नीति या राजसभा ( जंगहे ) राष्ट्र को वश करने के कार्य में ( कशीका इव ) ताड़ना देने वाली चाबुक के समान ( आगधिता ) सब प्रकार स्वीकार की जाने योग्य और ( परिगधिता ) सब ओर से सुरक्षित होकर ( मह्यं ) मुझ राष्ट्रभोक्ता को, गृहस्थ में स्त्री के समान ( यादुरी ) अति प्रयत्नशील होकर ( याशूनां ) अन्नपोषित, नाना प्रयत्नशील भृत्यों के भी ऊपर ( भोज्या ) सर्वश्रेष्ठ पालनकारिणी, स्वामिनी होकर ( मह्यं ) मुझे ( शता ) सैकड़ों सुख और शक्तियां ( ददाति ) प्रदान करती है, अथवा ( याशूनां यादुरी ) प्रयत्नशील भृत्यादि के बीच में सब से अधिक यत्न करने वाली होकर मुझे ( शता भोज्या ददाति ) सैकड़ों भोग्य, ऐश्वर्य और रक्षा करने के सामर्थ्य प्रदान करती है । ( २ ) ‘चेतना’ देह पर शासन करने से विकाशवती होने से कशीका है । शरीर में सर्वत्र वश करने से ‘आगधिता’ और सर्वत्र मिश्रित होने से ‘परिगधिता’ है। वह ( याशूनां ) अन्नभोक्ता, या यत्नशील प्राणों में सब से अधिक यत्नशील, बलवती होने से ‘यादुरी’ है वह सैकड़ों शक्तियों और भोग्य सुखों को देती है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—५ कक्षीवान् । ६ भावयव्यः । ७ रोमशा ब्रह्मवादिनी चर्षिः विद्वांसो देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७ अनुष्टुप् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या नीतीने अर्थात धर्माच्या चालीने अगणित सुख प्राप्त होते ते सर्वांनी सिद्ध केले पाहिजे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The most valuable policy of the state worthy of acceptance which is approved and followed and which is an inspirer of the people of action and advancement in important matters of the nation, like a goad, spurs me on to action and helps me get the sweetest delicacies of life, hundreds of them.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Which must be attained in the State is told in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That policy should be observed by all, which when acted upon well from all sides and endowed with good attributes, gives to all industrious persons infinite delight in all admirable dealings. It is like a whip used to goad animals.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (परिगधिता) परितः सर्वतः गधिता शुभैः गुणैः युक्ता नीतिः । गध्यतिर्मिश्री भावकर्मा (निरु० ५.१५) = Acted up on well from all sides and endowed with good attributes. (जंगहे) अत्यन्तं ग्रहीतव्ये = Most acceptable dealing. (यादुरी) प्रयत्नशीला । अत्र यतधातोर्बाहुलकादौणादिक उरी प्रत्ययः तस्य दः = Full of exertion or labor. (याशूनाम्) प्रयतमानानाम् = Of the Industrious. अत्र यसुप्रयत्ने धतोबार्हुलकादुण प्रत्ययः सस्य शश्च ।।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That policy should be observed by all which is the source of incalculable happiness.

    Translator's Notes

    It is worth while to make a comparative study of this Mantra as Sayanacharya has given such an obscene and absurd interpretation that Griffith thought it proper not to translate it into English but to render it only in Latin, so that many may not understand it. According to Sayana, this is a dialogue between husband named Bhavayavya and his minor wife-Lomasha who approaches him for sexual act and he scoffs at her saying, "She, when her desires are assented to clings as tenaciously as a female weasel, and who is ripe for enjoyment, yields me infinite delight. (Wilson's translation). Both Prof. Wilson and Griffith have felt the incoherence of this absurd dialogue between a husband and his minor wife and have remarked in their foot-notes similarly. Prof. Wilson remarks 126. 6. This is supposed to be said by Bhavayavya to his wife Lomasha. 126. 7. This is Limasha's reply; but the verse, as well as the preceding, is brought in very abruptly, and has no connection with what precedes, it is also in a different meter, and is probably a fragment of some old popular song. (Prof. Wilson's Rigveda Translation Vol. II. Notes 217). Griffith also remarks - they (6th & 7th Verses) have no apparent connection with what precedes. They seem to be a fragment of a popular song.' (Griffith's Hymns of the Rigveda P. 175 ) When we compare with it Rishi Dayananda's interpretation as translated above regarding the policy to be accepted, there is no incoherence of any kind but it gives such a useful teaching. How regrettable it is that the Vedas have been so misinterpreted by medieval commentators and Western Scholars.

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