ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 132/ मन्त्र 2
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगतिशक्वरी
स्वरः - पञ्चमः
स्व॒र्जे॒षे भर॑ आ॒प्रस्य॒ वक्म॑न्युष॒र्बुध॒: स्वस्मि॒न्नञ्ज॑सि क्रा॒णस्य॒ स्वस्मि॒न्नञ्ज॑सि। अह॒न्निन्द्रो॒ यथा॑ वि॒दे शी॒र्ष्णाशी॑र्ष्णोप॒वाच्य॑:। अ॒स्म॒त्रा ते॑ स॒ध्र्य॑क्सन्तु रा॒तयो॑ भ॒द्रा भ॒द्रस्य॑ रा॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठस्वः॒ऽजे॒षे । भरे॑ । आ॒प्रस्य॑ । वक्म॑नि । उ॒षः॒ऽबुधः॑ । स्वस्मि॑न् । अञ्ज॑सि । क्रा॒णस्य॑ । स्वस्मि॑न् । अञ्ज॑सि । अह॑न् । इन्द्रः॑ । यथा॑ । वि॒दे । शी॒र्ष्णाऽशी॑र्ष्णा । उ॒प॒ऽवाच्यः॑ । अ॒स्म॒ऽत्रा । ते॒ । स॒ध्र्य॑क् । स॒न्तु॒ । रा॒तयः॑ । भ॒द्राः । भ॒द्रस्य॑ । रा॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वर्जेषे भर आप्रस्य वक्मन्युषर्बुध: स्वस्मिन्नञ्जसि क्राणस्य स्वस्मिन्नञ्जसि। अहन्निन्द्रो यथा विदे शीर्ष्णाशीर्ष्णोपवाच्य:। अस्मत्रा ते सध्र्यक्सन्तु रातयो भद्रा भद्रस्य रातय: ॥
स्वर रहित पद पाठस्वःऽजेषे। भरे। आप्रस्य। वक्मनि। उषःऽबुधः। स्वस्मिन्। अञ्जसि। क्राणस्य। स्वस्मिन्। अञ्जसि। अहन्। इन्द्रः। यथा। विदे। शीर्ष्णाऽशीर्ष्णा। उपऽवाच्यः। अस्मऽत्रा। ते। सध्र्यक्। सन्तु। रातयः। भद्राः। भद्रस्य। रातयः ॥ १.१३२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 132; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा सध्र्यगिन्द्रो स्वर्जेषे विदे शीर्ष्णाशीर्ष्णोपवाच्यस्तथा भरे आप्रस्य क्राणस्योषर्बुधो वक्मनि स्वस्मिन्नञ्जसीव स्वस्मिन्नञ्जसि मेघं सूर्योऽहन्निव शत्रून् घ्नन्तु या अस्मत्रा भद्रा रातयस्ते भद्रस्य रातय इव स्युस्तास्ते सन्तु ॥ २ ॥
पदार्थः
(स्वर्जेषे) सुखेन जयशीलाय (भरे) संग्रामे (आप्रस्य) पूर्णबलस्य (वक्मनि) उपदेशे (उषर्बुधः) रात्रिचतुर्थप्रहरे जागृताः (स्वस्मिन्) (अञ्जसि) प्रकटे (क्राणस्य) कुर्वाणस्य। अव वा छन्दसीति शपो लुक्। (स्वस्मिन्) (अञ्जसि) कामयमाने (अहन्) हन्ति (इन्द्रः) सूर्यः (यथा) (विदे) ज्ञानवते (शीर्ष्णा शीर्ष्णा) शिरसा शिरसा (उपवाच्यः) उपवक्तुं योग्यः (अस्मत्रा) अस्मासु (ते) तव (सध्र्यक्) सहाऽञ्चतीति (सन्तु) भवन्तु (रातयः) दानानि (भद्राः) कल्याणकराः (भद्रस्य) कल्याणकरस्य (रातयः) दानानि ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यस्सभेशः सर्वान् शूरवीरान् स्ववसत्सत्करोति स शत्रून् जित्वा सर्वेभ्यः सुखं दातुं शक्नोति संग्रामे स्वकीयाः पदार्था अन्यार्था अन्येषां च स्वार्थाः कर्त्तव्या एवं परस्परस्मिन् प्रीत्या विरोधं विहाय विजयः प्राप्तव्यः ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे (सध्र्यक्) साथ जानेवाला (इन्द्रः) सूर्य्यमण्डल (स्वर्जेषे) सुख से जीतनेवाले (विदे) ज्ञानवान् पुरुष के लिये (शीर्ष्णाशीर्ष्णा) शिर माथे (उपवाच्यः) समीप कहने योग्य है वैसे (भरे) संग्राम में (आप्रस्य) पूर्ण बल (क्राणस्य) करते हुए समय के विभाग (उषर्बुधः) उषःकाल अर्थात् रात्रि के चौथे प्रहर में जागे हुए तुम लोग (वक्मनि) उपदेश में जैसे (स्वस्मिन्) अपने (अञ्जसि) प्रसिद्ध व्यवहार के निमित्त वैसे (स्वस्मिन्) अपने (अञ्जसि) चाहे हुए व्यवहार में जैसे मेघ को सूर्य्य (अहन्) मारता वैसे शत्रुओं को मारो, जो (अस्मत्रा) हम लोगों के बीच (भद्राः) कल्याण करनेवाले (रातयः) दान आदि काम (ते) तुम (भद्रस्य) कल्याण करनेवाले के (रातयः) दोनों के समान हों वे (ते) तेरे (सन्तु) हों ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सभापति सब शूरवीरों का अपने समान सत्कार करता है, वह शत्रुओं को जीतकर सबके लिये सुख दे सकता है, संग्राम में अपने पदार्थ औरों के लिये और औरों के अपने लिये करने चाहिये। ऐसे एक दूसरे में प्रीति के साथ विरोध छोड़ उत्तम जय प्राप्त करना चाहिये ॥ २ ॥
विषय
स्वर्जेष भर
पदार्थ
१. (स्वर्जेषे) = स्वर्ग का विजय करनेवाले भरे-संग्राम में (आपस्य) = अपना पूरण करनेवाले के, (वक्मनि) = प्रभु के स्तोत्रों के उच्चारण में (उषर्बुधः) = प्रातः प्रबुद्ध होनेवाले के, (स्वस्मिन् अञ्जसि) = आत्मा [स्व] के व्यक्त करने में [अज - व्यक्ति] क्राणस्य - योग में पुरुषार्थ करनेवाले के और (स्वस्मिन् अञ्जसि) = आत्मा की अभिव्यक्ति में ही यत्नशील पुरुष के (यथा विदे) = यथार्थ ज्ञान के लिए, यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए (इन्द्रः) = शत्रुसंहारक प्रभु (अहन्) = काम-क्रोधादि शत्रुओं का विनाश कर देते हैं । इन शत्रुओं का विनाश होने पर ही ज्ञान का प्रकाश चमकता है । शत्रुओं को नष्ट करनेवाले ये प्रभु (शीर्ष्णाशीर्ष्णा) = प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा (उपवाच्यः) = स्तुति के योग्य होते हैं । २. हे प्रभो! (ते) = आपके (रातयः) = दान (अस्मत्रा) = हममें (सध्रयक्) = मिलकर चलनेवाले (सन्तु) = हों । (भद्रस्य) = कल्याणस्वरूप आपके (रातयः) = दान (भद्राः) = सदा कल्याणकर होते हैं । प्रभु से शरीर में 'शक्ति', मन में 'शान्ति' और बुद्धि में 'ज्ञान' - रूप धनों को प्राप्त करके हम भी प्रभु की भाँति ही ('भद्र') = सुखमय जीवनवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ - हमें संग्राम में वीर बनना है, प्रातः जागकर प्रभु - स्मरण करना है, आत्मा की अभिव्यक्ति के लिए यत्नशील होना है, तभी हमें प्रभु से दिये जानेवाले 'शक्ति, शान्ति व ज्ञान' रूप धन प्राप्त होंगे और हमारा जीवन भद्र हो जाएगा ।
विषय
सूर्यवत् विद्वान् गुरु का शिष्यों के प्रति ज्ञान-दान, अध्यापन और विनय की शिक्षा।
भावार्थ
( यथा इन्द्रः ) सूर्य जिस प्रकार ( विदे ) प्रत्यक्ष ज्ञान कराने के लिए ( अहन् ) अन्धकार का नाश करता है और ( शीर्ष्णा शीर्ष्णा ) प्रत्येक शिर अर्थात् मुख द्वारा ( उपवाच्यः ) स्तुति योग्य होता है उसी प्रकार (विदे) ज्ञानोपदेश करने के लिये ( इन्द्रः ) अज्ञान नाशक गुरु या विद्वान् आचार्य ( अहन् ) अज्ञान का नाश करता तथा ज्ञान का, उपदेश करता है और वह ( शीर्ष्णा शीर्ष्णा ) प्रत्येक शिर से, समीप बैठकर अनुकरण द्वारा वांचने योग्य होता है अर्थात् गुरु उपदेश करता और प्रत्येक विद्यार्थी उसके ज्ञान वाणी का तदनुसार स्वयं अभ्यास करता और अपने अन्य शिष्यों को भी प्रवचन द्वारा बढ़ाता है । इस लिये हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग भी ( स्वर्जेषे ) ज्ञान और सुख को प्राप्त करने के लिए ( स्वस्मिन् अञ्जसि क्राणस्य ) अपने तेज में स्वयं निष्पन्न सूर्य के समान अपने प्रकाशमान ज्ञान में ( क्राणस्य ) साधना करने वाले ( आप्रस्य ) पूर्ण ज्ञानी और अन्यों को ज्ञान से पूर्ण करने वाले विद्वान् पुरुष के ( स्वस्मिन् अञ्जसि ) स्वयं प्रकट होने वाले, और ( भरे ) आत्मा को पोषण करने, वा अज्ञान के नाश करने वाले (वक्मनि) प्रवचन उपदेश में रह कर ( उषर्बुधः ) उषा काल में उगनेवाले सूर्य के समान ही स्वयं अति उषाकाल और जीवन के प्रभात बाल्यकाल में प्रबुद्ध हो, ज्ञान सम्पादन कर अपना अज्ञान नाश करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, ६ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगतिशक्वरी । ४ निचृदष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जो सभापती सर्व शूरवीरांचा आपल्याप्रमाणे सत्कार करतो तो शत्रूंना जिंकून सर्वांना सुख देऊ शकतो. युद्धात एकमेकांच्या पदार्थांचे आदानप्रदान केले पाहिजे. अशा प्रकारे एकमेकांवर प्रेम करावे व विरोध नष्ट करून उत्तम विजय प्राप्त केला पाहिजे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In the yajnic battle for the winning of light and joy, in the chant of the Apri hymns for divine favour, in the holy performance of the person rising at dawn, in the instant action of the man of love and grace, Indra destroys the obstacles in the way of action and achievement for the man who knows the favours of the lord, and for these the lord is adorable for every one and for the best among us. Just as Indra is favourable thus, so we pray to the lord: With us and for us as you always are, may all your gifts be for our good. May your gracious favours be good to the noble humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the sun dispels darkness, in order that people may acquire knowledge of all visible objects and is therefore admired by all, in the same manner, Indra (the President of the Assembly) arranges in his State to eradicate the darkness of ignorance by diffusing knowledge and is therefore praised reverentially by all who conquer happiness, as reverence is by prostration to a holy sage. Following such a mighty President, who is most powerful in battles and acting upon his instructions, you should destroy wicked enemies as the sun destroys the clouds. Let thy gifts O Indra, be for our use O auspicious one and let our presents be for thy pleasure.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वक्मनि ) उपदेशे = In the sermon or teaching. (आप्रस्य ) पूर्णबलस्य = Of the mighty (अंजसि कामयमाने, प्रकटे = Desiring and manifest.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President of the Assembly who honors all brave persons as his own selves, can bestow happiness upon all by conquering all enemies. At the time of battle, let there be mutual exchange of articles with love among soldiers and their commanders, so that by giving up all animosity, victory may be achieved.
Translator's Notes
(सध्यक् ) सह अंचतीति सध्यक = He who goes together. सध्यक्-सह अंचु-गतिपूजनयोः अत्र गत्यर्थग्रहणम् = अंजु-व्यक्तिभक्षरणकान्तिगतिषु अत्र व्यक्ति कान्त्यर्थकृतंग्रहणं महर्षि दयानन्देन
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