ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 132/ मन्त्र 4
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदष्टिः
स्वरः - मध्यमः
नू इ॒त्था ते॑ पू॒र्वथा॑ च प्र॒वाच्यं॒ यदङ्गि॑रो॒भ्योऽवृ॑णो॒रप॑ व्र॒जमिन्द्र॒ शिक्ष॒न्नप॑ व्र॒जम्। ऐभ्य॑: समा॒न्या दि॒शास्मभ्यं॑ जेषि॒ योत्सि॑ च। सु॒न्वद्भ्यो॑ रन्धया॒ कं चि॑दव्र॒तं हृ॑णा॒यन्तं॑ चिदव्र॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठनु । इ॒त्था । ते॒ । पू॒र्वथा॑ । च॒ । प्र॒ऽवाच्य॑म् । यत् । अङ्गि॑रःऽभ्यः । अवृ॑णोः । अप॑ । व्र॒जम् । इन्द्र॑ । शिक्ष॑न् । अप॑ । व्र॒जम् । एभ्यः॑ । स॒मा॒न्या । दि॒शा । अ॒स्मभ्य॑म् । जे॒षि॒ । योत्सि॑ । च॒ । सु॒न्वत्ऽभ्यः॑ । र॒न्ध॒य॒ । कम् । चि॒त् । अ॒व्र॒तम् । हृ॒णा॒यन्त॑म् । चि॒त् । अ॒व्र॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू इत्था ते पूर्वथा च प्रवाच्यं यदङ्गिरोभ्योऽवृणोरप व्रजमिन्द्र शिक्षन्नप व्रजम्। ऐभ्य: समान्या दिशास्मभ्यं जेषि योत्सि च। सुन्वद्भ्यो रन्धया कं चिदव्रतं हृणायन्तं चिदव्रतम् ॥
स्वर रहित पद पाठनु। इत्था। ते। पूर्वथा। च। प्रऽवाच्यम्। यत्। अङ्गिरःऽभ्यः। अवृणोः। अप। व्रजम्। इन्द्र। शिक्षन्। अप। व्रजम्। एभ्यः। समान्या। दिशा। अस्मभ्यम्। जेषि। योत्सि। च। सुन्वत्ऽभ्यः। रन्धय। कम्। चित्। अव्रतम्। हृणायन्तम्। चित्। अव्रतम् ॥ १.१३२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 132; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के चक्रवर्त्तिराज्यं कर्त्तुमर्हन्तीत्याह ।
अन्वयः
हे इन्द्र त्वं शिक्षन्सन्नप व्रजं कुटिलगामिनमिव व्रजं जनमपावृणोः। अङ्गिरोभ्यो यत्पूर्वथा प्रवाच्यं तच्च नु गृहाण। यस्त्वमेभ्यः सुन्वद्भयोऽस्मभ्यं समान्या दिशा शत्रूनायोत्सि जेषि च हृणायन्तमवृतं चिदिव वर्त्तमानमव्रतं जनं रन्धय च तादृशं कञ्चिदपि दुष्टं दण्डदानेन विना मा त्यज। इत्था वर्त्तमानस्य ते तव इहामुत्रानन्दसिद्धिर्भविष्यतीति जानीहि ॥ ४ ॥
पदार्थः
(नु) शीघ्रम् (इत्था) अनेन प्रकारेण (ते) तव (पूर्वथा) पूर्वैः प्रकारैः (च) (प्रवाच्यम्) प्रवक्तुं योग्यम् (यत्) (अङ्गिरोभ्यः) प्राणेभ्य इव विद्वद्भ्यः (अवृणोः) वृणुयाः (अप) निषेधे (व्रजम्) ज्ञातव्यम् (इन्द्र) अध्यापनादविद्याच्छेत्तः (शिक्षन्) विद्यामुपादापयन् (अप) दूरीकरणे (व्रजम्) अधर्ममार्गम् (आ) (एभ्यः) विद्वद्भ्यः (समान्या) समं वर्त्तमानया (दिशा) समन्तात् (अस्मभ्यम्) (जेषि) जयसि। अत्राऽडभावः (योत्सि) युध्यसे। अत्र बहुलं छन्दसीति श्यनभावः। (च) (सुन्वद्भ्यः) अभिषवं कुर्वद्भ्यः (रन्धय) हिन्द्धि। अत्राऽन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (कम्) (चित्) (अव्रतम्) सत्यभाषणादिव्यवहाररहितम् (हृणायन्तम्) हरतीति हृणो हरिणस्तद्वदाचरन्तम् (चित्) इव (अव्रतम्) मिथ्याचारयुक्तम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
येषां राज्ये दुष्टवाचः स्तेना दुष्टवाचो व्यभिचारिणो न सन्ति ते साम्राज्यं कर्त्तुं प्रभवन्ति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन चक्रवर्त्ति राज्य करने को योग्य होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) पढ़ाने से अज्ञान का विनाश करनेवाले (शिक्षन्) विद्या का ग्रहण कराते हुए आप (अप, व्रजम्) न जानने योग्य कुटिलगामी के समान (व्रजम्) अधर्ममार्गी जन को (अपावृणोः) मत स्वीकार करो, (अङ्गिरोभ्यः) प्राणों के समान विद्वान् जनों ने (यत्) जो (पूर्वथा) प्राचीन ढङ्गों से (प्रवाच्यम्) अच्छे प्रकार कहने योग्य उसको (च) भी (नु) शीघ्र ग्रहण करो, जो आप (एभ्यः) इन विद्वान् और (सुन्वद्भ्यः) पदार्थों के सार को खींचते हुए (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (समान्या) एक सी वर्त्तमान (दिशा) दिशा से शत्रुओं को (आ, योत्सि) अच्छे प्रकार लड़ते लड़ते (च) और (जेषि) जीतते वा (हृणायन्तम्) हिरण के समान ऊलते-फाँदते हुए (अव्रतम्) सत्यभाषणादि व्यवहाररहित पुरुष के (चित्) समान (अव्रतम्) झूठे आचार से युक्त जन को (रन्धय) मारो (च) और वैसे (क, चित्) किसी दुष्ट को दण्ड देने के विना मत छोड़ो, (इत्था) ऐसे वर्त्तते हुए (ते) आपकी इस जन्म और परजन्म में आनन्द की सिद्धि होगी, इसको जानो ॥ ४ ॥
भावार्थ
जिनके राज्य में दुष्ट वचन कहनेवाले चोर और व्यभिचारी नहीं हैं, वे चक्रवर्त्ति राज्य करने को समर्थ होते हैं ॥ ४ ॥
विषय
आवरण - विनाश
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = शत्रु-संहारक प्रभो! (ते) = आपका (इत्था) = इस प्रकार का यह कार्य (नू) = अब (पूर्वथा च) = पहले की भाँति ही (प्रवाच्यम्) = प्रकर्षेण स्तुति के योग्य होता है (यत्) = कि (अङ्गिरोभ्यः) = अङ्ग अङ्ग में रसमय बननेवालों के लिए (व्रजम्) = इन्द्रियों के समूह को अप (अवृणोः) = अपावृत कर देते हैं- इन्द्रियों पर आ जानेवाले वासनारूप आवरण को आप दूर कर देते हैं । इस आवरण के दूर होने पर ही सब इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्य को ठीक प्रकार से करती हैं । इस प्रकार आप (शिक्षन्) = [शक्तं कुर्वनिच्छन्, शिक्षति दानकर्मा - नि०३ । २०] सब इन्द्रियों को शक्ति देते हुए (व्रजम्) = इस इन्द्रियसमूह को (अप) = अपावृत करते हो, इन्द्रियों पर पड़े हुए वासनारूप पर्दे को दूर करते हो । २. (एभ्यः) = इन इन्द्रियों के लिए (सम् आन्या) = सम्यक् प्राणित करनेवाली दिशा-दिशा से-इन इन्द्रियों को प्राणित करने के उद्देश्य से (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (आयोत्सि) = इन वासनाओं से चारों ओर से युद्ध करते हैं (च) = और (जेषि) = विजय प्राप्त कराते हैं । वासनाओं को पराजित करके, इन्हें नष्ट करके हमें शक्तिसम्पन्न बनाते हैं । ३. हे प्रभो! आप (सुन्वद्भ्यः) = सोम का अभिषव करनेवालों - शरीर में ही सोमशक्ति का सम्पादन करनेवालों के लिए तथा यज्ञशील पुरुषों के लिए अव्रतं के (चित्) = जिस किसी अव्रत पुरुष को (रन्धय) = नष्ट कीजिए । (हणायन्तम्) = क्रोध करनेवाले (अव्रतं चित्) = अव्रती पुरुष को भी आप नष्ट कीजिए । प्रभु यज्ञशील पुरुषों के रक्षण के लिए क्रोधी, अव्रती पुरुषों का संहार करते हैं । इसी प्रकार राजा का भी राष्ट्र में यह कर्तव्य होता है कि नियम भङ्ग करनेवाले व सदा क्रोधी पुरुषों का संहार करे तथा यज्ञशील पुरुषों का रक्षण करे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से वासनाओं का आवरण दूर होता है और इन्द्रियाँ शक्तिशाली बनती हैं । यज्ञशील पुरुषों के हित के लिए अवती, क्रोधी पुरुषों को प्रभु दूर करते हैं ।
विषय
सूर्यवत् विद्वान् गुरु का शिष्यों के प्रति ज्ञान-दान, अध्यापन और विनय की शिक्षा।
भावार्थ
सूर्य जिस प्रकार ( व्रजम् ) मेघ को दूर करके ज्ञान प्रकाश को प्रदान करता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) आचार्य ! अविद्यानाशक ! ( शिक्षन् ) शिक्षा देता हुआ तू ( अंगिरोभ्यः ) देह में स्थित प्राणों के समान चैतन्य बुद्धि वाले विद्वान् और तेजस्वी शिष्यों को ( व्रजम् अप अवृणोः ) ज्ञान करने योग्य तत्व को खोल । ( इत्था ) इस प्रकार नवीन रीति और (पूर्वथा च) और पूर्व प्रचलित रीति से भी ( यत् प्रवाच्यं ) जो प्रवचन करने योग्य है वह भी ( अप अवृणोः ) स्पष्ट करके बतला । ( एभ्यः अस्मभ्यम् ) इन हम शिष्य जनों के हित के लिए ही आप ( समान्या ) सबके प्रति समान भाव से रहने वाले ( दिशा ) उपदेश से ( जेषि ) तू सर्वोत्कृष्ट, एवं आदर करने योग्य हो और ( योत्सि च ) हमें दण्डित कर, ताड़ना दे । तू ( सुन्वद्भ्यः ) ज्ञान का सम्पादन करने वालों के हित के लिये हो । ( कंचित् अव्रतम् ) जिस किसी को भी व्रत, ब्रह्मचर्य सत्यभाषण, विनय आदि से रहित पाओ उसको और (हृणायन्तं अव्रतं चित्) हरिण या पशु के समान चञ्चलता दिखाने वाले अथवा गुरु के समक्ष क्रोध दिखाने वाले अविनयी, व्रत रहित शिष्य को भी ( रन्धय ) दण्डित कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, ६ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगतिशक्वरी । ४ निचृदष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांच्या राज्यात दुष्ट वचन बोलणारे, चोर, व्यभिचारी नसतात ते चक्रवर्ती राज्य करण्यास समर्थ असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, surely the word which you thus reveal as before for the scholars dear as the breath of life, and the way you open the doors of knowledge and treasures of the world, teaching us the wisdom of eternity is worth admiration and celebration. You fight for us and win the victories in the same constant way for these and for us who distil the essence of things. Heat up and season those indisciplined and lawless people who are funny, angry, violent or thievish, yes, subject them to the crucibles of law and education and cleanse them to purity from culturelessness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who deserve to rule empire is told further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! ( Destroyer of ignorance by good teaching ) giving good knowledge, thou removest the person who is treading upon the path of crookedness and un-righteousness. Take always what is praiseworthy for leaned persons who should be loved like one's own self. For the benefit of the performers of Yajnas and other good deeds, thou fightest with and conquerest enemies from all sides. Slay him who behaves like an animal and who is devoid of truthfulness and other vows, acting falsely. Don't leave any wicked person without giving proper punishment. Thou shouldst know that it is only doing like this that thou wouldst attain bliss here and hereafter.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( इन्द्र ) अध्यापनादविद्याच्छेतः = Destroyer of ignorance by teaching. (अङ्गिरोभ्यः ) प्राणेभ्य इव बिद्वद्भ्यः = For ( the benefit of ) the learned persons who are to be treated as one's own self.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is only such persons that deserve to rule over a vast and good Government in whose kingdom, there are no thieves uttering ignoble words and no debauchees, uttering bad words.
Translator's Notes
प्राणो वा अङ्गिराः ( शतपथ ६.१.२.२८ ) It is wrong on the part of Prof. Wilson, Griffith and others to take Angira as a proper noun, instead of taking it in the general sense, as the principle of Vedic terminology requires. In the mantra, only the word अव्रत has been used which simply means devoid of truthfulness and other -“The lawless vows, but Griffith adds this erroneous note " man is the non-Aryan inhabitant of the country, the natural enemy of the new settler Such as interpretation is quite wrong and un-wanted.
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