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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 133/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒भि॒व्लग्या॑ चिदद्रिवः शी॒र्षा या॑तु॒मती॑नाम्। छि॒न्धि व॑टू॒रिणा॑ प॒दा म॒हाव॑टूरिणा प॒दा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि॒ऽव्लग्य॑ । चि॒त् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । शी॒र्षा । या॒तु॒ऽमती॑नाम् । छि॒न्धि । व॒टू॒रिणा॑ । प॒दा । म॒हाऽव॑टूरिणा । प॒दा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम्। छिन्धि वटूरिणा पदा महावटूरिणा पदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽव्लग्य। चित्। अद्रिऽवः। शीर्षा। यातुऽमतीनाम्। छिन्धि। वटूरिणा। पदा। महाऽवटूरिणा। पदा ॥ १.१३३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 133; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः शत्रवः कथं हन्तव्या इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे अद्रिवः शूर त्वं प्रशस्तं बलमभिव्लग्य यातुमतीनां महावटूरिणा पदा चिद्वटूरिणा पदा शीर्षा छिन्धि ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (अभिव्लग्य) अभितः सर्वतः प्राप्य। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (चित्) इव (अद्रिवः) अद्रिवन्मेघ इव वर्त्तमान (शीर्षा) शीर्षाणि (यातुमतीनाम्) बहवो यातवो हिंसका विद्यन्ते यासु सेनासु तासाम् (छिन्धि) (वटूरिणा) वेष्टितेन। अत्र वट वेष्टन इति धातोर्बाहुलकादौणादिक ऊरिः प्रत्ययः। (महावटूरिणा) महावर्णयुक्तेन (पदा) पादेन ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः स्वबलमुन्नीय शत्रुबलानि छित्वाऽरीन् पादाक्रान्तान् करोति स राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर शत्रुजन कैसे मारने चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अद्रिवः) मेघ के समान वर्त्तमान शूरवीर तूँ प्रशंसित बल को (अभिव्लग्य) सब ओर से पाकर (यातुमतीनाम्) जिनमें बहुत हिंसक मार-धार करनेहारे विद्यमान हैं उन सेनाओं के (महावटूरिणा) बड़े-बड़े रङ्ग से युक्त (पदा) चौथे भाग से जैसे (चित्) वैसे (वटूरिणा) लपेटे हुए (पदा) शस्त्रों के चौथे भाग से वा अपने पैर से दबा के (शीर्षा) शत्रुओं के शिरों को (छिन्धि) छिन्न-भिन्न कर ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अपने बल की उन्नति कर शत्रुओं के बलों को छिन्न-भिन्न कर उनको पैर से दबाता है, वह राज्य करने को योग्य होता है ॥ २ ॥

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    विषय

    वासना-शिरश्छेदन

    पदार्थ

    १. हे (अद्रिवः) = वज्रवन् ! क्रियाशीलतारूपी वज्र को हाथ में लिये हुए पुरुष ! (अभिव्लग्या) = चारों ओर से आक्रमण करके (यातुमतीनाम्) = पीड़ा का आधान करनेवाली इन आसुरवृत्तियों के (शीर्षा चित्) = सिर को ही (छिन्धि) = काट डाल । क्रियाशीलता के द्वारा आसुर वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। २. (वटूरिणा) = वेष्टनशील, व्याप्त होनेवाली (पदा) = [पद गतौ] गति से, व्याप्त ही क्या होनेवाली (महावटूरिणा पदा) = अत्यधिक व्याप्त होनेवाली क्रिया से इन पीड़ाप्रद आसुर वृत्तियों को हम नष्ट कर डालें। वासना-विनाश का सर्वोत्तम उपाय क्रियाशीलता ही है। क्रियाशील बनकर ही हम वासना संहार में समर्थ हो पाते हैं। व्यापक क्रिया से अभिप्राय यह है कि हम सदा शरीर की स्वास्थ्य सम्बन्धी क्रियाओं को, मन की नैर्मल्य सम्बन्धी क्रियाओं को तथा मस्तिष्क की ज्ञानप्रसादसाधक क्रियाओं को करनेवाले बनें। इन तीनों क्रियाओं को करनेवाला 'विष्णु' त्रिविक्रम है । त्रिविक्रम ही अपने कर्मरूप सुदर्शन चक्र से इन वासनारूप शत्रुओं का नाश करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम व्यापक क्रियाओंवाले बनकर वासनारूप शत्रुओं का विनाश कर दें।

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    विषय

    राज्य का कण्टकशोधन द्वारा पवित्रीकरण ।

    भावार्थ

    हे ( अद्रिवः ) वज्रधर ! हे मेघ के समान शरवर्षी वीरों के स्वामिन् ! ( चित् ) जिस प्रकार ( वटूरिणा पदा ) लपेट लेने वाले पैर से या शूण्ड से हाथी या पहलवान् अपने शत्रु को लपेट कर नीचे गिराता और सिरों को ( अभिव्लग्य ) कुचल डालता है उसी प्रकार तू ( अभिव्लग्य ) शत्रुओं को प्राप्त होकर और उनको पकड़ कर ( यातुमतीनां ) पीड़ा देने वाले शस्त्रास्त्रों से सजी शत्रु सेनाओं के ( शीर्पा ) शिर भागों अर्थात् प्रमुख सेना नायकों, और मुख्य बलवान् दलों को ( वटूरिणा पदा ) लपेट लेने वाले हाथी के पैर या शूण्ड के समान ( महा वट् रिणा पदा ) उससे भी कहीं बड़ी शक्ति से चारों तरफ से घेर लेने वाले वेगवान् अपने सेना बल से ( अभिब्लग्य) चारों ओर से घेर कर उनको खूब काबू करके उसको ( छिन्धि ) काट, उनको छिन्न भिन्न कर । इसी प्रकार ( अभिब्लग्य यातुमतीनां शीर्षा छिन्धि ) अन्यों को पीड़ा देने वाले उपायों को करने वाले दुष्ट व्यक्तियों के शिरों को पैर के नीचे धर कर काट, उनको दबा कर मार । ‘शत्रुओं के शिर पर पैर रख कर काटना’ यह मुहावरा, उपलक्षण मात्र है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ३ निचृद्रनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ५ आर्षी गायत्री । ६ स्वराड् ब्राह्मी जगती । ७ विराडष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो आपले बल वाढवितो व शत्रूंच्या बलाचा नाश करून त्यांना पादाक्रांत करतो तो राज्य करण्यायोग्य असतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of yajna, power and law, firm as rock and generous as cloud, having caught the lawless and the violent by the head of the evil-minded, crush them under the wide wide foot, crush them by the rising forces of the youth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should enemies be killed is taught in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O hero benefactor like the cloud! having acquired good strength, trample on the head of the malignant hosts, crush them with thy wide-spreading foot, thy vast wide-spreading foot.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अद्रिवः) अद्रिवत-मेघ व वर्तमान = Being a benefactor like the cloud. (अभिव्लग्या) अभितः सर्वतः प्राप्य अत्र अन्येषामपीति दीर्घः । ( यातुमतीनाम् ) वहवः यातवः हिंसका: विद्यन्ते यासु तासु सेनासु | = Armies containing many violent persons. ( वटूरिणा) वेष्टितेन वट वेष्टने इति धातो: बाहुलकात् औणादिक: ऊरि: प्रत्ययः । = Wide spreading.

    Translator's Notes

    अद्रिरिति मेघनाम ( निघ० १.१० ) वल्गु-गतौ भ्वा० | यातयति-वधकर्मा (निघ० २.१९ )

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