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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 133/ मन्त्र 5
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    पि॒शङ्ग॑भृष्टिमम्भृ॒णं पि॒शाचि॑मिन्द्र॒ सं मृ॑ण। सर्वं॒ रक्षो॒ नि ब॑र्हय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒शङ्ग॑ऽभृष्टिम् । अ॒म्भृ॒णम् । पि॒शाचि॑म् । इ॒न्द्र॒ । सम् । मृ॒ण॒ । सर्व॑म् । रक्षः॑ । नि । ब॒र्ह॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिशङ्गभृष्टिमम्भृणं पिशाचिमिन्द्र सं मृण। सर्वं रक्षो नि बर्हय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पिशङ्गऽभृष्टिम्। अम्भृणम्। पिशाचिम्। इन्द्र। सम्। मृण। सर्वम्। रक्षः। नि। बर्हय ॥ १.१३३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 133; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजजनैः कि कृत्वा किं वर्द्धनीयमित्याह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र त्वं पिशङ्गभृष्टिमम्भृणं पिशाचिं संमृण सर्वं रक्षो निबर्हय ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (पिशङ्गभृष्टिम्) पीतवर्णेन भृष्टिः पाको यस्य तम् (अम्भृणम्) शत्रुभ्यो भयंकरम् (पिशाचिम्) यः पिशति तम् (इन्द्र) दुष्टविदारक (सम्) (मृण) हिन्धि (सर्वम्) (रक्षः) दुष्टम् (नि) (बर्हय) निस्सारय ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    राजपुरुषैर्दुष्टान् निर्मूलीकृत्य सर्वे सज्जनाः सततं वर्द्धनीयाः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजजनों को क्या करके क्या बढ़ाना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्रः) दुष्टों को विदीर्ण करनेहारे राजजन ! आप (पिशङ्गभृष्टिम्) अच्छे प्रकार पीला वर्ण होने से जिसका पाक होता (अम्भृणम्) उस निरन्तर भयङ्कर (पिशाचिम्) पीसने दुःख देनेहारे जन को (सम्मृण) अच्छे प्रकार मारो और (सर्वम्) समस्त (रक्षः) दुष्टजन को (निबर्हय) निकालो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों को चाहिये कि दुष्ट शत्रुओं को निर्मूल कर सब सज्जनों को निरन्तर बढ़ावें ॥ ५ ॥

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    विषय

    क्रोध का मर्दन

    पदार्थ

    १. वासनाओं में क्रोध का भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस क्रोध को एक राक्षस के रूप में चित्रित करते हुए कहते हैं कि (पिशङ्गभृष्टिम्) = लाल-लाल (reddish) भून डालनेवाले, (अम्भृणम्) = अत्यन्त ऊँचा शब्द करनेवाले (पिशाचिम्) = मांस खानेवाले क्रोध को हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (सं मृण) = कुचल डाल। क्रोध में मनुष्य का चेहरा तमतमा उठता है, क्रोध से मनुष्य अन्दर ही अन्दर जलता रहता है, क्रोध में आकर मनुष्य तेजी से ऊटपटाँग बोलता है। इस क्रोधवृत्ति को इन्द्र को समाप्त करना है। २. क्रोध को समाप्त करते हुए तू (सर्वं रक्षः) = सब राक्षसी वृत्तियों को (निबर्हय) = पूर्णरूप से नष्ट करनेवाला हो। इन राक्षसी वृत्तियों के विध्वंस पर ही उन्नति निर्भर होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ-हम क्रोध को दूर करने क प्रयत्न करें। क्रोध को समाप्त करके अन्य राक्षसी वृत्तियों का भी विध्वंस करनेवाले हों।

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    विषय

    पिशङ्गभृष्टि पिशाचि का रहस्य

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुनाशक ! सूर्य के समान तेजस्विन् ! (पिशङ्गभृष्टिम्) पीले वर्ण के प्रकाश से भुन जाने वाले (अम्भृणं) पीड़ा को देने वाले ( पिशाचिम् ) देह के अवयव अवयव में व्याप्त, या रक्त को चूसने वाले रोगकारी कारण को सूर्य के प्रखर ताप से नष्ट किया जाता है उसी प्रकार ( पिशङ्गभृष्टिम् ) पीतवर्ण के, तेजस्वी पुरुषों द्वारा पीड़ित होने वाले ( अम्भृणं ) भयंकर, पीड़ादायी, या बड़े भारी ( पिशाचिम् ) खण्ड खण्ड होने वाले शत्रुसैन्य को ( सम्मृण ) अच्छी प्रकार नष्ट कर डाल । और ( सर्वं ) समस्त ( रक्षः ) बाधक कारणों और शत्रु बल को ( नि बर्हय ) विनाश कर, दूर कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ३ निचृद्रनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ५ आर्षी गायत्री । ६ स्वराड् ब्राह्मी जगती । ७ विराडष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी दुष्ट शत्रूंना निर्मूल करून सर्व सज्जनांना निरंतर वाढवावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, destroy the fierce ogres of the lance of red blood and root out the demons all over.

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