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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 133/ मन्त्र 7
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडष्टिः स्वरः - मध्यमः

    व॒नोति॒ हि सु॒न्वन्क्षयं॒ परी॑णसः सुन्वा॒नो हि ष्मा॒ यज॒त्यव॒ द्विषो॑ दे॒वाना॒मव॒ द्विष॑:। सु॒न्वा॒न इत्सि॑षासति स॒हस्रा॑ वा॒ज्यवृ॑तः। सु॒न्वा॒नायेन्द्रो॑ ददात्या॒भुवं॑ र॒यिं द॑दात्या॒भुव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒नोति॑ । हि । सु॒न्वन् । क्षय॑म् । परी॑णसः । सु॒न्वा॒नः । हि । स्म॒ । यज॑ति । अव॑ । द्विषः॑ । दे॒वाना॑म् । अव॑ । द्विषः॑ । सु॒न्वा॒नः । इत् । सि॒सा॒स॒ति॒ । स॒हस्रा॑ । वा॒जी । अवृ॑तः । सु॒न्वा॒नाय॑ । इन्द्रः॑ । द॒दा॒ति॒ । आ॒ऽभुव॑म् । र॒यिम् । द॒दा॒ति॒ । आ॒ऽभुव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनोति हि सुन्वन्क्षयं परीणसः सुन्वानो हि ष्मा यजत्यव द्विषो देवानामव द्विष:। सुन्वान इत्सिषासति सहस्रा वाज्यवृतः। सुन्वानायेन्द्रो ददात्याभुवं रयिं ददात्याभुवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनोति। हि। सुन्वन्। क्षयम्। परीणसः। सुन्वानः। हि। स्म। यजति। अव। द्विषः। देवानाम्। अव। द्विषः। सुन्वानः। इत्। सिसासति। सहस्रा। वाजी। अवृतः। सुन्वानाय। इन्द्रः। ददाति। आऽभुवम्। रयिम्। ददाति। आऽभुवम् ॥ १.१३३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 133; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः किं कृत्वा किं निवार्य्य मनुष्याः समर्था जायन्त इत्याह ।

    अन्वयः

    य इन्द्रः सुन्वानायाभुवं रयिं ददाति स सुन्वानोऽवृतो वाजी सहस्रा देवानामवद्विष इत् सिषासति योऽवद्विषः सर्वस्मायाभुवं श्रियं ददाति यो हि सुन्वानो यजति स स्म परीणसः क्षयं सुन्वन् सन् हि सुखं वनोति ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (वनोति) याचते। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (हि) खलु (सुन्वन्) निष्पादयन् (क्षयम्) गृहम् (परीणसः) बहून् (सुन्वानः) निष्पादयन् (हि) यतः (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यजति) संगच्छते (अव) (द्विषः) द्वेष्ट्रीन् (देवानाम्) विदुषाम् (अव) (द्विषः) शत्रून् (सुन्वानः) अभिषवान् कुर्वन् (इत्) एव (सिषासति) सनितुं विभक्तुं मिच्छति (सहस्रा) सहस्राण्यसंख्यातानि (वाजी) प्रशस्तज्ञानवान् (अवृतः) अनावृतः (सुन्वानाय) अभिषवं कुर्वते (इन्द्रः) सुखप्रदाता (ददाति) (आभुवम्) यत्र समन्ताद्भवति सुखं तम्। अत्र घञर्थे कविधानमिति कः। (रयिम्) द्रव्यम् (ददाति) (आभुवम्) ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    ये सर्वेषु मैत्रीं भावयित्वा सर्वेषां शत्रून्निवर्त्तन्ति ते सर्वेषां श्रेयस्करा भूत्वा सर्वेभ्यो बहूनि सुखानि दातुं शक्नुवन्ति ॥ ७ ॥।अत्र श्रेष्ठपालनदुष्टनिवारणाभ्यां राज्यस्थिरतावर्णनमुक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति त्रयस्त्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं द्वाविंशो वर्ग एकोनविंशोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर क्या करके और किसकी निवृत्ति कर मनुष्य समर्थ होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (इन्द्रः) सुख देनेवाला (सुन्वानाय) पदार्थों का सार निकालते हुए पुरुष को (आभुवम्) जिसमें अच्छे प्रकार सुख होता उस (रयिम्) धन को (ददाति) देता है वह (सुन्वानः) पदार्थों के सारों को प्रकट हुआ (अवृतः) प्रकट (वाजी) प्रशस्त ज्ञानवान् पुरुष (सहस्रा) हजारों (देवानाम्) विद्वानों के (अव, द्विषः) अति शत्रुओं को (इत्) ही (सिषासति) अलग करने को चाहता है जो (अव, द्विषः) अत्यन्त वैर करनेवालों को अलग करना चाहता है वह सबके लिये (आभुवम्) जिसमें उत्तम सुख हो उस धन को (ददाति) देता है और जो (हि) निश्चय से (सुन्वानः) पदार्थों के सार को सिद्ध करता हुआ (यजति) सङ्ग करता है (स्म) वही (परीणसः) बहुत पदार्थों और (क्षयम्) घर को (सुन्वन्) सिद्ध करता हुआ (हि) ही सुख (वनोति) माँगता है ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    जो सब में मित्रता की भावना कराकर सबके शत्रुओं की निवृत्ति कराते हैं, वे सबके सुख करनेवाले होकर सबके लिये बहुत सुख दे सकते हैं ॥ ७ ॥इस सूक्त में श्रेष्ठों की पालना और दुष्टों की निवृत्ति से राज्य की स्थिरता का वर्णन है, इससे इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एक सौ तेंतीसवाँ सूक्त बाईसवाँ वर्ग और उन्नीसवाँ अनुवाक पूरा हुआ ॥

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    विषय

    'सुन्वन्' का सुन्दर जीवन

    पदार्थ

    १. (सुन्वन्) = अपने शरीर में सोमरस-वीर्य का अभिषव करनेवाला व्यक्ति हि निश्चय से (क्षयम्) = [क्षि निवासगत्योः] उत्तम निवास व गतिवाले शरीररूप गृह को वनोति प्राप्त करता है [wins]। इस सोमरक्षण से शरीर स्वस्थ बनता है, शरीर की शक्तियाँ बनी रहती हैं और क्रियाशीलता में कमी नहीं आती। २. (सुन्वानः )= यह सोम-अभिषव करनेवाला (हि स्म) = निश्चय से (परीणसः) = (परितो नद्धान् - सा० ) चारों ओर से बाँधनेवाले - हम पर आक्रमण करनेवाले (द्विषः) = द्वेषादि शत्रुओं को अवयजति दूर करता है, (देवानां द्विषः) = दिव्य भावनाओं के दुश्मनों को, दिव्य भावनाओं की विरोधी आसुर भावनाओं को (अव) = अपने से दूर करता है। सोमरक्षण से आसुरभावनाएँ दूर होकर मानस पवित्रता का लाभ होता है। (सुन्वानः इत्) = सोम का अभिषव करता हुआ ही (वाजी) = शक्तिशाली बनता है, (अवृतः) = द्वेषादि शत्रुओं से घेरा नहीं जाता और (सहस्त्रा) = शतशः धनों को (सिषासति) = संभक्त करना चाहता है, अर्थात् सुन्वान ही धनों को प्राप्त करनेवाला होता है । ४. इस (सुन्वानाय) = सोमाभिषव करनेवाले पुरुष के लिए ही (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (आभुवम्) = सर्वतो व्याप्त, अर्थात् अत्यन्त प्रवृद्ध (रयिम्) = धन को (ददाति) = देता है, उस धन को (ददाति) = देता है जो कि (आभुवम्) = समन्तात् भवनशील होता है अर्थात् सब आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सोम वीर्य के रक्षण से (क) हमारा शरीररूप गृह उत्तम बनता है, (ख) हम मन से आसुरभावों को दूर कर पाते हैं, (ग) शक्तिशाली बनकर शतशः धनों को प्राप्त करते हैं, (घ) उन धनों को प्राप्त करते हैं जो हमारी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाले होते हैं।

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    विषय

    पिशङ्गभृष्टि पिशाचि का रहस्य

    भावार्थ

    ( हि ) निश्चय से ( सुन्वन् ) अभिषेक करने वाला प्रजाजन ही ( क्षयं वनोति ) निवास योग्य आश्रय प्राप्त करता है । और ( सुन्वन् ) अभिषेक करता हुआ प्रजाजन या सैन्य गण ( देवानां ) उत्तम पुरुषों, विद्वानों और विजयशील पुरुषों के ( द्विषः ) अप्रीतिकर ( द्विषः ) द्वेषी शत्रुओं को भी ( अवयजति ) विनाश करने में समर्थ होता है । ( सुन्वानः इत् ) अभिषेक करने हारा ही ( अवृतः ) अधिक पुरुषों से सुरक्षित न रह कर भी ( वाजी ) बलवान् होकर ( सहस्रा ) सहस्रों ऐश्वर्य सुखों को ( सिषासति ) प्राप्त करता है । ( सुन्वानाय ) अभिषेक करने वाले प्रजा गण को ही ( इन्द्रः ) वह ऐश्वर्यवान् राजा ( आभुवं आभुवं रातिम् ) पुनः २ प्राप्त होने वाले, और सर्वत्र सुख उत्पादन करने हारे, प्रचुर ऐश्वर्य या समस्त पृथ्वी में व्याप्त ऐश्वर्य का ( ददाति ) प्रदान करता है । इति द्वाविंशो वर्गः ॥ इति प्रथमे मण्डले एकोनविंशोऽनुवाकः समाप्तः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ३ निचृद्रनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ५ आर्षी गायत्री । ६ स्वराड् ब्राह्मी जगती । ७ विराडष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सर्वांमध्ये मित्रत्वाची भावना ठेवून सर्वांच्या शत्रूंचे निवारण करवितात ते श्रेयस्कर असून सर्वांना सुख देऊ शकतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The yajamana who performs yajna and distils the soma prays for a home and gets one. Organising the yajna and the distillation of the soma of joy and prosperity, he drives away many envious enemies by yajna, drives the enemies of noble people away. The organiser of yajna, fast, intelligent and wise, open, free and fearless wants to create a hundred things, and Indra, lord of creation, power and generosity creates and gives blissful wealth for the yajnic people, yes, the lord blesses with the gift of wealth, peace and joy.

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