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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 133/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यासां॑ ति॒स्रः प॑ञ्चा॒शतो॑ऽभिव्ल॒ङ्गैर॒पाव॑पः। तत्सु ते॑ मनायति त॒कत्सु ते॑ मनायति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यासा॑म् । ति॒स्रः । प॒ञ्चा॒शतः॑ । अ॒भि॒ऽव्ल॒ङ्गैः । अ॒प॒ऽअव॑पः । तत् । सु । ते॒ । म॒ना॒य॒ति॒ । त॒कत् । सु । ते॒ । म॒ना॒य॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यासां तिस्रः पञ्चाशतोऽभिव्लङ्गैरपावपः। तत्सु ते मनायति तकत्सु ते मनायति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यासाम्। तिस्रः। पञ्चाशतः। अभिऽव्लङ्गैः। अपऽअवपः। तत्। सु। ते। मनायति। तकत्। सु। ते। मनायति ॥ १.१३३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 133; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मघवन् यासां तिस्राः पञ्चाशतः सेना अभिव्लङ्गैरपावपस्तासां तत् ते सुमनायति तकत् ते सु मनायति ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (यासाम्) (तिस्रः) त्रित्वसंख्याताः (पञ्चाशतः) एतत्संख्याताः (अभिव्लङ्गैः) अभितो गमनागमनैः (अपावपः) दूरे प्रक्षिप (तत्) (सु) (ते) तुभ्यम् (मनायति) आत्मनो मन इवाचरति (तकत्) (सु) (ते) तुभ्यम् (मनायति) ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरीदृशं बलं वर्द्धनीयं येनैकोऽपि दुष्टानां सार्धशतस्य विजयं कुर्यात् स्वकीयं बलं रक्षेत् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे परम उत्तम धनयुक्त राजन् ! (यासाम्) जिन शत्रुसेनाओं के बीच (तिस्रः) तीन वा (पञ्चाशतः) पचास सेनाओं को (अभिव्लङ्गैः) चारों ओर से जाने-आने आदि व्यवहारों से (अपावपः) दूर पहुँचाओ, उन सेनाओं का (तत्) वह पहुँचाना (ते) तेरे लिये (सुमनायति) अच्छे अपने मन के समान आचरण करता फिर भी (तकत्) वह (ते) तेरे लिये (सुमनायति) अच्छे अपने मन के समान आचरण करता है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि ऐसा बल बढ़ावें जिससे एक ही वीर पचास दुष्ट शत्रुओं को जीते और अपने बल की रक्षा करे ॥ ४ ॥

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    विषय

    तीन गुणा पचास ( वासनाएँ )

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में पीड़ा का आधान करनेवाली वासनाओं का उल्लेख था । ये वासनाएँ प्रस्तुत मन्त्र में 'तिस्रः' कही गई हैं, क्योंकि इन्द्रियों, मन व बुद्धि में इनकी स्थिति होती है। इन्हें 'पञ्चाशत्' कहा गया है, क्योंकि सामान्यतः ये पचास वर्ष की अवस्था तक प्रबल रहती हैं, उसके पश्चात् तो प्रायः ये शान्त ही हो जाती हैं। (यासाम्) = जिन वासनाओं के (तिस्रः पञ्चाशतः) = त्रिगुणित पचास, अर्थात् डेढ़ सौ को (अभिव्लङ्गैः) = चतुर्दिक् आक्रमण से (अपावपः) = तू दूर करता है, (ते) = तेरे, (तत्) = उस वासना-विक्षेपणरूप कर्म को (सुमनायति) = सब कोई मान देता है, आदर से देखता है। (ते) = तेरे उस कर्म को (तकत्) = [अल्पे कन्] अत्यल्प-तुझसे आसानी से होने के कारण छोटा ही (सुमनायति) = मानता है। तुझे तो इससे भी महान् कार्यों को करना है। २. निरन्तर कार्यों में लगे रहना ही वह उपाय है, जिससे कि तीन पंक्तियों में पचास-पचास की संख्या में स्थित होनेवाली वासनाओं की सेना का विनाश किया जा सकता है। जो भी यह कार्य करता है, उसका यह कार्य प्रशंसनीय तो होता ही है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रायः पचास वर्ष के आयुष्य तक प्रबलता से इन्द्रियों, मन व बुद्धि को आक्रान्त करनेवाली वासनाओं को क्रियाशीलता के द्वारा दूर करनेवाले बनें।

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    विषय

    शत्रुओं और दुष्टों का दमन । वैल-स्थान, वटूर, महावटूर आदि का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे सेनापते ! तू (यासां ) जिन सेनाओं के ( तिस्रः पञ्चाशतः ) तीन पचासों को अर्थात तीन तीन कतारों की पचास पचास की सेनाओं को भी ( अभिव्लंङ्गै ) सब तरफ के पैतरों से या सब तरफ चलने वाले चौमुखा मारने वाले शस्त्रों और अस्त्रों से तू ( अप अवपः ) काट गिरावे, या मार भगावे ( तत् ) वही ( ते ) तेरा ( सुमनायति ) उत्तम मनः-संकल्प हो, ( तकत् ते सु मनायति ) वह ही तेरा उत्तम आदर योग्य विचार रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ३ निचृद्रनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ५ आर्षी गायत्री । ६ स्वराड् ब्राह्मी जगती । ७ विराडष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी असे बल वाढवावे की, ज्यामुळे एकच वीर पन्नास दुष्ट शत्रूंना जिंकू शकेल व स्वतःच्या बलाचे रक्षण करील. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, now that you have routed the three times fifty forces of those agents of hate and violence by your tactics of seizure and attack, that act excites holy admiration and celebration, hearty admiration and reverence.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of the army, thou destroyest by thy assaults with weapons thrice fifty of such hosts, is a deed that well becomes thee. That well becomes thee.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अभिव्लंगै:) अभितो गमनागमनैः = By going and coming or assaulting from all sides with sharp weapons. (अपावयः) दूरे प्रक्षिप = Throw away.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should increase their strength to such an extent that even one should be able to conquer one hundred fifty persons of the opposite army. He should protect his force and the strength of the army.

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