ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 134/ मन्त्र 2
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - वायु:
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
मन्द॑न्तु त्वा म॒न्दिनो॑ वाय॒विन्द॑वो॒ऽस्मत्क्रा॒णास॒: सुकृ॑ता अ॒भिद्य॑वो॒ गोभि॑: क्रा॒णा अ॒भिद्य॑वः। यद्ध॑ क्रा॒णा इ॒रध्यै॒ दक्षं॒ सच॑न्त ऊ॒तय॑:। स॒ध्री॒ची॒ना नि॒युतो॑ दा॒वने॒ धिय॒ उप॑ ब्रुवत ईं॒ धिय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठमन्द॑न्तु । त्वा॒ । म॒न्दिनः॑ । वायो॒ इति॑ । इन्द॑वः । अ॒स्मत् । क्रा॒णासः॑ । सुऽकृ॑ताः । अ॒भिऽद्य॑वः । गोऽभिः॑ । क्रा॒णाः । अ॒भिऽद्य॑वः । यत् । ह॒ । क्रा॒णाः । इ॒रध्यै॑ । दक्ष॑म् । सच॑न्ते । ऊ॒तयः॑ । स॒ध्री॒ची॒नाः । नि॒ऽयुतः॑ । दा॒वने॑ । धियः॑ । उप॑ । ब्रु॒व॒ते॒ । ई॒म् । धियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्दन्तु त्वा मन्दिनो वायविन्दवोऽस्मत्क्राणास: सुकृता अभिद्यवो गोभि: क्राणा अभिद्यवः। यद्ध क्राणा इरध्यै दक्षं सचन्त ऊतय:। सध्रीचीना नियुतो दावने धिय उप ब्रुवत ईं धिय: ॥
स्वर रहित पद पाठमन्दन्तु। त्वा। मन्दिनः। वायो इति। इन्दवः। अस्मत्। क्राणासः। सुऽकृताः। अभिऽद्यवः। गोऽभिः। क्राणाः। अभिऽद्यवः। यत्। ह। क्राणाः। इरध्यै। दक्षम्। सचन्ते। ऊतयः। सध्रीचीनाः। निऽयुतः। दावने। धियः। उप। ब्रुवते। ईम्। धियः ॥ १.१३४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 134; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं संसेव्य किं प्राप्तव्यमित्याह ।
अन्वयः
हे वायो विद्वन्यद्येऽस्मत् क्राणासोऽभिद्यवः सुकृता अभिद्यव इवेन्दवः क्राणा इव मन्दिनस्त्वा मन्दन्तु ते ह ऊतयः क्राणा दक्षं गोभिरिरध्यै सचन्ते ये दावने सध्रीचीना नियुतो धिय उप ब्रुवते त ईं धियः प्राप्नुवन्ति ॥ २ ॥
पदार्थः
(मन्दन्तु) कामयन्तु (त्वा) त्वाम् (मन्दिनः) सुखं कायमानाः (वायो) वायुरिव कमनीय (इन्दवः) आर्द्रीभूताः (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (क्राणासः) उत्तमानि कर्माणि कुर्वन्तः (सुकृताः) सुष्ठु कर्म येषां ते (अभिद्यवः) अभितो द्यवो विद्याप्रकाशा येषान्ते (गोभिः) पृथिवीभिस्सह (क्राणाः) पुरुषार्थं कुर्वाणाः (अभिद्यवः) अभितो द्यवः सूर्यकिरणा इव देदीप्यमानाः (यत्) ये (ह) (क्राणाः) कर्त्तुं शीलाः (इरध्यै) ईरितुं प्राप्तुम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन ईकारस्थान इः। (दक्षम्) बलम् (सचन्ते) समवयन्ति (ऊतयः) रक्षादिक्रियावन्तः (सध्रीचीनाः) सहाञ्चन्तः (नियुतः) नियुक्ताः (दावने) दानाय (धियः) प्रज्ञाः (उप) (ब्रुवते) उपदिशन्ति (ईम्) सर्वतः (धियः) कर्माणि ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विदुषः सेवन्ते सत्यमुपदिशन्ति च ते शरीरात्मबलं कथन्नाप्नुयुः ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को किसका सेवन कर क्या प्राप्त करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वायो) पवन के समान मनोहर विद्वान् ! (यत्) जो (अस्मत्) हम लोगों से (क्राणासः) उत्तम कर्म करते हुए (अभिद्यवः) जिनके चारों ओर से प्रकाश विद्यमान (सुकृताः) जो सुन्दर उत्तम कर्मवाले (अभिद्यवः) और सब ओर से सूर्य की किरणों के समान अत्यन्त प्रकाशमान (इन्दवः) आर्द्रचित्त (क्राणाः) पुरुषार्थ करते हुए सज्जनों के समान (मन्दिनः) और सुख की कामना करते हुए (त्वा) आपको (मन्दन्तु) चाहें, वे (ह) ही (ऊतयः) रक्षा आदि क्रियावान् (क्राणाः) कर्म करनेवाले (दक्षम्) बल को (गोभिः) भूमियों के साथ (इरध्यै) प्राप्त होने को (सचन्त) युक्त होते अर्थात् सम्बन्ध करते हैं। जो (दावने) दान के लिये (सध्रीचीनाः) साथ सत्कार पाने वा जाने आनेवाले (नियुतः) नियुक्त की अर्थात् किसी विषय में लगाई ही (धियः) बुद्धियों का (उप, ब्रुवते) उपदेश करते हैं, वे (ईम्) सब ओर से (धियः) कर्मों को प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्वानों का सेवन करते और सत्य का उपदेश करते हैं, वे शरीर और आत्मा के बल को कैसे न प्राप्त हों ॥ २ ॥
विषय
उल्लास, शुभकर्म व ज्ञान
पदार्थ
१. हे (वायो) = गतिशील जीव ! (मन्दिनः) = आनन्द देनेवाले (इन्दवः) = सोमकण त्वा मदन्तु तुझे आनन्दित करें, सुरक्षित होकर ये तेरे उल्लास का कारण बनें। ये सोमकण (अस्मत्) = हमसे (क्राणासः) = उत्पन्न किये गये हैं। प्रभु ने शरीर में रस-रुधिर आदि के क्रम से इनके उत्पादन की व्यवस्था की है। (सुकृताः) = इनके सुरक्षित होने पर शरीर से शोभन कार्य ही होते हैं (शोभनं कृतं यै: ), (अभिद्यवः) = ये ज्ञानज्योति की ओर ले चलनेवाले हैं, (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों के हेतु से उन वाणियों के अध्ययन के लिए (क्राणाः) = ये सोमकण उत्पन्न किये गये हैं और ये (अभिद्यवः) = हमें ज्ञान की ओर ले चलते हैं। ये भी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हैं, बुद्धि को तीव्र करके हमारे ज्ञान को बढ़ाते हैं । २. (यत्) = जब (ह) = निश्चय से (इरध्यैः) = गतिशीलता के लिए (क्राणाः) = उत्पन्न किये गये ये सोमकण (दक्षम्) = उत्साहसम्पन्न पुरुष के साथ (सचन्ते) = समवेत होते हैं - उसे प्राप्त होते हैं तब ऊतयः ये उसका रक्षण करनेवाले होते. हैं, उसे रोगादि से बचाते हैं । ३. इस प्रकार सोमपान से शरीर के स्वस्थ होने पर (नियुतः) = इन्द्रियाश्व (सध्रीचीना:) = [सह अञ्चन्ति] आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले होते हैं-ये बाहरी विषयों में भटकनेवाले नहीं होते । (धियः) = बुद्धियाँ दावने दानादि कर्मों में होती हैं, अर्थात् त्याग में आनन्द का अनुभव होता है। ईम् निश्चय से (धियः) = बुद्धियाँ उपब्रुवते दानादि उत्तम कर्मों का ही उपदेश करती हैं, अर्थात् इस सोमी पुरुष की बुद्धि इस प्रकार सात्त्विक बन जाती है कि यह दानादि उत्तम कर्मों का ही समर्थन करती है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम सोमी पुरुष को उल्लासमय, शुभकर्मकृत, ज्ञानप्रवृत्त, दानादि कर्मों की ओर झुकाववाला बनाता है।
विषय
आचार्य का कर्मों और ज्ञानों का उपदेश ।
भावार्थ
( अभिद्यवः इन्दवः गोभिः मन्दिनः ) सब प्रकार से देदीप्यमान चन्द्र कलाएं जिस प्रकार किरणों से सबको प्रसन्न करती और सबके चाहने योग्य होती हैं और जिस प्रकार आर्द्र, सरस सोमरस गो रसों से मिल कर हर्षोत्पादक होते हैं वे ( मन्दन्ति ) सबको प्रसन्न करते हैं, उसी प्रकार हे ( वायो ) ज्ञानवन् विद्वन् ! राजन् ! ( मन्दिनः ) सुख की कामना करने वाले, तेरे प्रिय, ( अस्मत् ) हममें से जो ( क्राणासः ) क्रियाशील, ( सुकृताः ) उत्तम पुण्यवान्, सदाचारवान् ( इन्दवः ) चन्द्र के समान सबके आल्हादकर, सोम रसों के समान राष्ट्र के पोषक, दयार्द्र चित्त वाले, ( गोभिः क्राणाः ) गौओं और बैलों से ऐश्वर्य, अन्न आदि उत्पन्न करते हुए, भूमियों से ऐश्वर्य और गमन योग्य उत्तम स्त्रियों सहित गृहस्थोचित यज्ञसम्पादन करते हुए और वाणियों द्वारा ज्ञान सम्पादन करते हुए (अभिद्यवः) अतितेजस्वी, और व्यवहारज्ञ होकर ( त्वा मन्दन्तु ) तुझे प्रसन्न करें, तुझे चाहें ( यत् ) जो ( क्राणाः ) कर्मशील, पुरुषार्थी ( ऊतयः ) ज्ञानवान् व्रतपालक, लोग ( दक्षं ) ज्ञान और बल अपने आत्मा के ( इरध्यै ) प्राप्त करने के लिये ( सचन्ते ) उद्योग करते हैं उसी में लगे रहते हैं वे सदा ( सध्रीचीनाः ) एक साथ सहोद्योगी होकर ( नियुतः ) एक ही रथ में लगे अश्वों के समान एक कार्य में लग कर ( दावने ) उत्तम मनोयोग देने, आत्म समर्पण करने वाले शिष्य जिज्ञासु को ( धियः ) धारण करने योग्य व्रतादि कर्मों और ( धियः ) नाना ज्ञानयुक्त प्रशाओं और कर्मों का ( उप ब्रुवत ईम्) सब प्रकार से उपदेश करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–६ परुच्छेप ऋषिः ॥ वायुर्देवता ॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः । २, ४ विराडत्यष्टिः । ५ अष्टिः । ६ विराडष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्वानांचा अंगीकार करून सत्याचा उपदेश करतात त्यांना शरीर व आत्म्याचे बल कसे प्राप्त होणार नाही? ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And O Vayu, cyclic energy of nature divine, may the exhilarating vapours of our yajna, well-created and activated by our libations into the fire, brilliant as light, radiating with the waves of the earth energy and rising with the rays of the sun join and vitalise you. The dynamic people exerting for advancement achieve divine protection and success. Only the intelligent ones working together in unison with yajna and divine energy receive and reveal the power and wisdom for the generous yajamana.
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