ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 134/ मन्त्र 4
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - वायु:
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
तुभ्य॑मु॒षास॒: शुच॑यः परा॒वति॑ भ॒द्रा वस्त्रा॑ तन्वते॒ दंसु॑ र॒श्मिषु॑ चि॒त्रा नव्ये॑षु र॒श्मिषु॑। तुभ्यं॑ धे॒नुः स॑ब॒र्दुघा॒ विश्वा॒ वसू॑नि दोहते। अज॑नयो म॒रुतो॑ व॒क्षणा॑भ्यो दि॒व आ व॒क्षणा॑भ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑म् । उ॒षसः॑ । शुच॑यः । प॒रा॒वति॑ । भ॒द्रा । वस्त्रा॑ । त॒न्व॒ते॒ । दम्ऽसु॑ । र॒श्मिषु॑ । चि॒त्रा । नव्ये॑षु । र॒श्मिषु॑ । तुभ्य॑म् । धे॒नुः । स॒बः॒ऽदुघा॑ । विश्वा॑ । वसू॑नि । दो॒ह॒ते॒ । अज॑नयः । म॒रुतः॑ । व॒क्षणा॑भ्यः । दि॒वः । आ । व॒क्षणा॑भ्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्यमुषास: शुचयः परावति भद्रा वस्त्रा तन्वते दंसु रश्मिषु चित्रा नव्येषु रश्मिषु। तुभ्यं धेनुः सबर्दुघा विश्वा वसूनि दोहते। अजनयो मरुतो वक्षणाभ्यो दिव आ वक्षणाभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्यम्। उषसः। शुचयः। परावति। भद्रा। वस्त्रा। तन्वते। दम्ऽसु। रश्मिषु। चित्रा। नव्येषु। रश्मिषु। तुभ्यम्। धेनुः। सबःऽदुघा। विश्वा। वसूनि। दोहते। अजनयः। मरुतः। वक्षणाभ्यः। दिवः। आ। वक्षणाभ्यः ॥ १.१३४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 134; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के मनुष्याः कल्याणकरा भवन्तीत्याह ।
अन्वयः
हे मनुष्य यथा शुचय उषासः परावति दंसु रश्मिषु नव्येषु रश्मिष्विव तुभ्यं चित्रा भद्रा वस्त्रा तन्वते। यथा सबर्दुघा धेनुर्वाक् तुभ्यं विश्वा वसूनि दोहते यथाऽजनयो मरुतो वक्षणाभ्य इव दिवो वक्षणाभ्यो जलमातन्वते तथा त्वं भव ॥ ४ ॥
पदार्थः
(तुभ्यम्) (उषासः) प्रभातवाताः। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (शुचयः) पवित्राः (परावति) दूरदेशे (भद्रा) कल्याणकराणि (वस्त्रा) वस्त्राण्याच्छादनानि (तन्वते) विस्तृणन्ति (दंसु) दाम्यन्ति जना येषु (रश्मिषु) किरणेषु (चित्रा) चित्राण्यद्भुतानि (नव्येषु) नवीनेषु (रश्मिषु) किरणेषु (तुभ्यम्) (धेनुः) वाणीः (सबर्दुघा) सर्वान् कामान् पूरयन्ति (विश्वा) सर्वाणि (वसूनि) धनानि (दोहते) प्रपिपर्त्ति (अजनयः) अजायमानाः (मरुतः) वायवः (वक्षणाभ्यः) वोढ्रीभ्यो नदीभ्यः (दिवः) प्रकाशस्य मध्ये (आ) समन्तात् (वक्षणाभ्यः) वहमानाभ्यः ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या रश्मिवन्न्यायप्रकाशसुशिक्षितवाणीवद्वक्तृत्वं नदीवत् शुभगुणवहनं कुर्वन्ति तं समग्रं कल्याणमश्नुवते ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन मनुष्य कल्याण करनेवाले होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्य ! जैसे (शुचयः) शुद्ध (उषासः) प्रातः समय के पवन (परावति) दूर देश में (दंसु) जिनमें मनुष्य मन का दमन करते उन (रश्मिषु) किरणों में और (नव्येषु) नवीन (रश्मिषु) किरणों में वैसे (तुभ्यम्) तेरे लिये (चित्रा) चित्र-विचित्र अद्भुत (भद्रा) सुख करनेवाले (वस्त्रा) वस्त्र वा ढाँपने के अन्य पदार्थों का (तन्वते) विस्तार करते वा जैसे (सबर्दुघा) सब कामों को पूर्ण करती हुई (धेनुः) वाणी (तुभ्यम्) तेरे लिये (विश्वा) समस्त (वसूनि) धनों को (दोहते) पूरा करती वा जैसे (अजनयः) न उत्पन्न होनेवाले (मरुतः) पवन (वक्षणाभ्यः) जो जलादि पदार्थों को बहानेवाली नदियों में (दिवः) प्रकाश के बीच (वक्षणाभ्यः) बहानेवाली किरणों से जल का (आ) अच्छे प्रकार विस्तार करते, वैसा तू हो ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य किरणों के समान न्याय के प्रकाश और अच्छी शिक्षा युक्त वाणी के समान वक्तृता बोल-चाल और नदी के समान अच्छे गुणों की प्राप्ति करते, वे समग्र सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥
विषय
ध्यान व स्वाध्याय
पदार्थ
१. गतमन्त्र की समाप्ति पर कहा था कि हमारे लिए उषाकालों को अन्धकार को दूर करनेवाला कीजिए। उसी प्रसङ्ग में प्रभु जीव से कहते हैं कि (तुभ्यम्) = तेरे लिए (उषासः) = ये उषाकाल (शुचयः) = अत्यन्त पवित्र होते हैं तथा तेरे शरीर में रोगरूप मलों को नहीं आने देते और मन में रागरूप मल को प्रविष्ट नहीं होने देते। साथ ही परावति सुदूर देश में— विज्ञानमयकोश में अथवा मस्तिष्करूप द्युलोक में [अर्वावति पृथिवीलोक में, परावति द्युलोक में] (दंसु रश्मिषु) = दर्शनीय प्रकाश किरणों में (भद्रा वस्त्रा) = कल्याणकर ज्ञानवस्त्रों को (तन्वते) = विस्तृत करते हैं। प्रकाशरश्मियाँ ही ताना-बाना बुनती हैं और ज्ञान का वस्त्र बुना जाता है। इन नव्येषु रश्मिषु - अत्यन्त स्तुत्य [नु स्तुतौ] ज्ञानरश्मियों में चित्रा अद्भुत ही ज्ञानवस्त्रों को ये उषाकाल बुनते हैं, अर्थात् उषाकाल तेरी पवित्रता और ज्ञानदीप्ति का कारण बनते हैं। इन उषाकालों में तू ध्यान के द्वारा पवित्रता तथा स्वाध्याय के द्वारा ज्ञानदीप्ति प्राप्त करता है । २. (तुभ्यम्) = तेरे लिए (धेनुः) = वेदरूपी गौ सबर्दुघा ज्ञानामृत का दोहन करनेवाली होती है और (विश्वा वसूनि) = सम्पूर्ण धनों को (दोहते) = प्रपूरण करनेवाली बनती है। जीवन की उन्नति के लिए आवश्यक सब वसुओं को यह देनेवाली होती है । ३. हे जीव ! तू मरुतः प्राणों के द्वारा [मरुत् प्राण] प्राणसाधना के द्वारा वक्षणाभ्यः [वक्षणा नदी- नाड़ी] 'इडा, पिङ्गला व सुषुम्णा' नामक मेरुदण्ड-स्थित नाड़ियों को यथोचित क्रियाओं के द्वारा तथा दिवः-ज्ञान-प्रकाश के द्वारा और आ वक्षणाभ्यः- शरीर में सर्वत्र इन नाड़ियों की ठीक गति के द्वारा अजनयः- अपनी सब शक्तियों का प्रादुर्भाव करता है। जीवन में अध्यात्म-विकास का आरम्भ 'प्राणसाधना' से होता है ( मरुतः ) । प्राणसाधना से सम्पूर्ण नाड़ीचक्र की क्रियाएँ ठीक से होती हैं, विशेषतः 'इडा पिंगला व सुषुम्णा' का कार्य ठीक से होने से मूलाधारचक्र से सहस्रारचक्र तक सारा शरीर स्वस्थ बना रहता है (वक्षणाभ्यः) । ऋतम्भरा प्रज्ञा का विकास होकर प्रकाश-ही-प्रकाश हो जाता है (दिवः) । इस कामना पक्रिए से विकसित प्रान्तियोंवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम उषाकाल में स्वाध्याय, ध्यान व प्राणायामादि में प्रवृत्त हों। ये ही सब प्रकार की उन्नतियों के मूल हैं।
विषय
उषाओं के दृष्टान्त से शिष्यों का गुरु की कीर्त्ति प्रसारित करना, वायु के दृष्टान्त से उनको ऐश्वर्य प्राप्त करने का उपदेश ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुष ! ( शुचयः उषासः ) अति दीप्त प्रभात वेलाएं जिस प्रकार ( रश्मिषु ) किरणों के आधार पर ( परावति ) दूर २ देश में पहुंच कर ( भद्रा वस्त्रा तन्वते ) जगत् के सुखकारी आच्छादक प्रकाशों को फैलाती हैं और जिस प्रकार ( उषासः ) उषाओं के समान सुन्दर, कमनीय, प्रेम से युक्त ( शुचयः ) शुद्ध, पवित्र, उज्ज्वल वर्ण और आचार वाली स्त्रियें ( रश्मिषु ) तन्तुओं के आश्रय ( भद्रा ) सुन्दर सुखप्रद ( वस्त्रा ) वस्त्र ( तन्वते ) तनती और बुनती हैं उसी प्रकार हे विद्वन् ! (उषासः) तेजस्वी, एवं तेरे अधीन बसने वाले विद्वान् छात्रगण ( दंसु ) इन्द्रियों को दमन करने वाले ( रश्मिषु ) साधनों और ( नव्येषु ) नये से नये स्तुत्य ( रश्मिषु ) ज्ञानमय प्रकाशों और कार्यों के आधार पर ( परावति ) दूर २ के देश में भी ( भद्रा ) तेरे अति कल्याणकारी ( वस्त्रा ) दोषों के आच्छादक यशः पटों को ( तन्वते ) विस्तृत करें । और ( धेनुः ) गौ और उसके समान समस्त जगत् को धारण करने वाली यह पृथ्वी ( सवर्दुघा ) समस्त रसों को दोहन करने वाली कामदुधा होकर ( विश्वा वसूनि ) समस्त प्रकार के ऐश्वर्यों को प्रदान करती है । ( अजनयः मरुतः ) जिस प्रकार वेग से गमन करने वाले वायुगण ( दिवः वक्षणाभ्यः ) आकाश या पृथ्वी के पार्श्वों से ( आ ) नाना मेघों और जल वृष्टियों को लाते हैं उसी प्रकार ( अजनयः ) ‘अज’ बकरे आदि पशुओं या तीव्र वेग से जाने वाले रथों को चलाने वाले ( मरुतः ) विद्वान् या व्यापारी जन भी ( वक्षणाभ्यः ) नदियों द्वारा और ( दिवः वक्षणाभ्यः ) पृथिवी और आकाश के सब पार्श्वों से ( आ ) ऐश्वर्य प्राप्त करावें । [ २ ] गृहस्थ में—हे पुरुष ! ( अजनयः ) न जनी हुई, अखण्डित ब्रह्मचारिणियें ही गृहस्थ घर कर ( वृक्षणाभ्यः ) कोखों से ( दिवः ) कामनावान् तुझ पुरुष की कामनाओं को पूर्ण करने के लिये ( वसूनि दोहते ) गर्भ से पुत्ररत्नों और नाना ऐश्वर्यो को उत्पन्न करें और पूर्ण करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–६ परुच्छेप ऋषिः ॥ वायुर्देवता ॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः । २, ४ विराडत्यष्टिः । ५ अष्टिः । ६ विराडष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे किरणासारखा न्यायाचा प्रकाश व सुशिक्षित वाणीप्रमाणे वक्तृत्व व नदीप्रमाणे शुभगुणांचे वहन करतात. त्यांचे संपूर्ण कल्याण होते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
For you, O Vayu, Divine Energy, the purest and brightest blissful lights of the dawn in far off spaces wondrously weave the designs of world beauty in sunlight, in the newest colourful rays of light. For you the all generous cow produces all the milky wealths of food and energy, the divine voice of universal potency brings all the wealths of world knowledge. For you do the winds unborn drink up the vapours from the flowing streams of water and yajna fragrances, and then from heaven shower the rain of water, energy and bliss for the world.
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