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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 134 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 134/ मन्त्र 3
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    वा॒युर्यु॑ङ्क्ते॒ रोहि॑ता वा॒युर॑रु॒णा वा॒यू रथे॑ अजि॒रा धु॒रि वोळ्ह॑वे॒ वहि॑ष्ठा धु॒रि वोळ्ह॑वे। प्र बो॑धया॒ पुरं॑धिं जा॒र आ स॑स॒तीमि॑व। प्र च॑क्षय॒ रोद॑सी वासयो॒षस॒: श्रव॑से वासयो॒षस॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒युः । यु॒ङ्क्ते॒ । रोहि॑ता । वा॒युः । अ॒रु॒णा । वा॒युः । रथे॑ । अ॒जि॒रा । धु॒रि । वोळ्ह॑वे । वहि॑ष्ठा । धु॒रि । वोळ्ह॑वे । प्र । बो॒ध॒य॒ । पुर॑म्ऽधिम् । जा॒रः । आ । स॒स॒तीम्ऽइ॑व । प्र । च॒क्ष॒य॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । वा॒स॒य॒ । उ॒षसः॒ । श्रव॑से । वा॒स॒य॒ । उ॒षसः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायुर्युङ्क्ते रोहिता वायुररुणा वायू रथे अजिरा धुरि वोळ्हवे वहिष्ठा धुरि वोळ्हवे। प्र बोधया पुरंधिं जार आ ससतीमिव। प्र चक्षय रोदसी वासयोषस: श्रवसे वासयोषस: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वायुः। युङ्क्ते। रोहिता। वायुः। अरुणा। वायुः। रथे। अजिरा। धुरि। वोळ्हवे। वहिष्ठा। धुरि। वोळ्हवे। प्र। बोधय। पुरम्ऽधिम्। जारः। आ। ससतीम्ऽइव। प्र। चक्षय। रोदसी इति। वासय। उषसः। श्रवसे। वासय। उषसः ॥ १.१३४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 134; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे विद्वन् धुरि वोढवे वहिष्ठा वायुर्वोढवे धुरि रोहिता वायुररुणा वायुरजिरा रथे युङ्क्त इति त्वं जारः ससतीमिव पुरन्धिं प्राबोधय रोदसी प्रचक्षय तद्गुणानाख्यापयोषसो वासय श्रवसे चोषसो वासय ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (वायुः) पवन इव (युङ्क्ते) कलाकौशलेन प्रेरितः संपर्चयति (रोहिता) रोहितानि रक्तगुणविशिष्टान्यग्न्यादीनि द्रव्याणि (वायुः) सूक्ष्मः (अरुणा) पदार्थप्रापणसमर्थानि (वायु) स्थूलः पवनः (रथे) रमणीये याने (अजिरा) अजिराणि क्षेप्तुं गमयितुमनर्हाणि (धुरि) सर्वाधारे (वोढवे) वोढुम् अत्र। तुमर्थे तवेन्प्रत्ययः। (वहिष्ठा) अतिशयेन वोढा। अत्राकारादेशः। (धुरि) (वोढवे) वोढुं देशान्तरे वहनाय (प्र, बोधय) (पुरन्धिम्) बहुप्रज्ञम् (जारः) (आ) समन्तात् (ससतीमिव) यथा (सुप्ताम्) (प्र) (चक्षय) प्रख्यापय (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वासय) कलायन्त्रादिषु स्थापय (उषसः) दाहादिकर्तॄन् पदार्थान् (श्रवसे) संदेशादि श्रवणाय (वासय) विद्युद्विद्यया स्थापय (उषसः) दिनानि ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये वायुवत्प्रयतन्त आप्तवज्जनान् प्रबोधयन्ति ते सूर्यवत्पृथिवीवच्च प्रकाशिता सोढारो जायन्ते ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् (धुरि) सबके आधारभूत जगत् में (वोढवे) पदार्थों के पहुँचाने को (वहिष्ठा) अतीव पहुँचानेवाला (वायुः) पवन (वोढवे) देशान्तर में पहुँचाने के लिये (धुरि) चलाने के मुख्य भाग में (रोहिता) लाल-लाल रङ्ग के अग्नि आदि पदार्थों को वा (वायुः) पवन (अरुणा) पदार्थों को पहुँचाने में समर्थ जल, धूआँ आदि पदार्थों को (वायुः) पवन (अजिराः) फेंकने योग्य पदार्थों को (रथे) रथ में (युङ्क्ते) जोड़ता है अर्थात् कलाकौशल से प्रेरणा को प्राप्त हुआ उन पदार्थों का सम्बन्ध करता है इससे आप (जारः) जाल्म पुरुष जैसे (ससतीमिव) सोती हुई स्त्री को जगावे वैसे (पुरन्धिम्) बहुत उत्तम बुद्धिमती स्त्री को (प्राबोधय) भली भाँति बोध कराओ, (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी का (प्र, चक्षय) उत्तम व्याख्यान करो अर्थात् उनके गुणों को कहो, (उषसः) दाह आदि के करनेवाले पदार्थों अर्थात् अग्नि आदि को कलायन्त्रादिकों में (वासय) वसाओ स्थापन करो और (श्रवसे) सन्देशादि सुनने के लिये (उषसः) दिनों को (वासय) तार बिजुली की विद्या से स्थिर करो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो पवन के समान अच्छा यत्न करते और उत्तम धर्मात्मा के समान मनुष्यों को बोध कराते हैं, वे सूर्य्य और पृथिवी के समान प्रकाश और सहनशीलता से युक्त होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    'रोहित, अरुण, अजिर व वहिष्ठ ' अश्व

    पदार्थ

    १. (वायुः) = गतिशील पुरुष रथे इस शरीर रथ में रोहिता प्रादुर्भूत शक्तियोंवाले – ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (युङ्क्ते) = जोतता है। (वायुः) = यह गतिशील पुरुष (अरुणा) = तेजस्वी अश्वों को जोतता है। (वायुः) = यह गतिशील पुरुष अजिरा खूब क्रियाशील (agile) अश्वों को (धुरि) = जुए में जोतता है ताकि वोळ्हवे वे इस रथ को उद्दिष्ट स्थल की ओर वहन करनेवाले हों । वहिष्ठा वहन करने में सर्वोत्तम अश्वों को (धुरि) = जुए में जोतता है, ताकि वो (वोळ्हवे) = वे रथ का उत्तमता से वहन करनेवाले हों। यदि हम 'वायु' गतिशील बनेंगे तो हमारे इन्द्रियाश्व ‘विकसित शक्तिवाले, तेजस्वी, 'स्फूर्तिसम्पन्न व वहिष्ठ' होंगे । २. लक्ष्य स्थल की ओर चलता हुआ यह वायु प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! (पुरन्धिम्) = चालक बुद्धि को प्रबोधय हममें जागरित कीजिए, उसी प्रकार (इव) = जैसे कि (जारः) = अन्धकार को जीर्ण करनेवाला सूर्य (आ ससतीम्) = कुछ-कुछ अलसाई हुई स्त्री को प्रबुद्ध कर देता है। हे प्रभो! आप रोदसी हमारे (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर को प्रचक्षय प्रकृष्ट प्रकाशवाला कीजिए। शरीर तेज से दीप्त हो और मस्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से चमक उठे। हे प्रभो! आप (उषसः वासय) = उषाओं को अन्धकार को दूर करनेवाला कीजिए, इसलिए कि हम श्रवसे ज्ञान का श्रवण करनेवाले बनें। हमें (क) बुद्धि प्राप्त हो, (ख) हमारे शरीर व मस्तिष्क दीत हों, (ग) हम उषाकालों में ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे इन्द्रियाश्व 'रोहित, अरुण, अजिर व वहिष्ठ' हों। हमारी बुद्धि दीप्त हो, शरीर व मस्तिष्क प्रकाशमय हों, हम उषाकाल से ही ज्ञान में प्रवृत्त हों।

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    विषय

    वायु, सूर्य, सारथि, आदि के दृष्टान्त से गुरु का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( वायुः रथे रोहिता युङ्क्ते ) अश्वों को प्रेरणा करने वाला सारथि जिस प्रकार अश्वों को रथ में और ( वायुः ) वायु, या सूर्य (अरुणान्) लाल वर्ण के किरणों को जिस प्रकार प्रेरित करता है, और जिस प्रकार ( वहिष्ठा ) दूर देश तक हांक कर ले जाने वाला गाड़ीवान् ( वायुः ) अश्वों का प्रेरक होकर ( वोढ़वे ) शकट को उठाकर दूर देश में ले जाने के लिए ( अजिरा ) गति देने वाले, और गमन करने वाले यन्त्रों और पशुओं को ( धुरि ) रथ के धुरा में लगाता है उसी प्रकार ( वायुः ) विद्वान् ज्ञानवान्, पुरुष शिष्यों को ज्ञान मार्ग में परिचालन करने वाला, ( रोहिता ) वृद्धिशील, ( अरुणा ) आगे बढ़ने वाले एवं किरणों के समान अरुण वर्ण, तेजस्वी, ( अजिरा ) अजीर्ण, बालक एवं नवयुवक तथा अक्षतवीर्य, अखण्ड व्रतपालक शिष्यों को ( वोढवे ) संसार के कार्यभार को उठाने में समर्थ होने के लिये ( धुरि ) ज्ञान शक्ति के धारण करने के कार्य में, धुरा में बैलों के समान अपने अधीन उनको वश करता हुआ ( युङ्क्ते ) सन्मार्ग में नियुक्त करता है । हे विद्वान् ! ( जारः ससतीम् इव पुरन्धिम् ) प्रिय पुरुष जिस प्रकार सोती हुई या सह-शयन करती हुई स्त्री को ( आ बोधयति ) जगा देता हैं हे विद्वन् गुरो ! तू भी ( जारः ) विद्या के उपदेश करने में कुशल हो कर ( ससतीम् इव पुरन्धिम् ) शिष्य की सोती हुई बुद्धि और देहरूप पुर को धारण करने वाली धारणा शक्ति को ( आ प्रबोधय ) अपने अभिमुख करके अच्छी प्रकार जगा, उसे प्रबुद्ध कर, उसे ज्ञानवती बना दे । और ( रोदसी ) पृथ्वी और आकाश अर्थात् समस्त जगत् के ज्ञान का ( प्र चक्षय ) उत्तम रीति से उपदेश कर । ( श्रवसे ) ज्ञानोपदेश श्रवण कराने के लिये ( उषसः ) तू उन जिज्ञासु शिष्यों को ( वासय ) अपने अधीन बसा, उन्हें रख और फिर विद्या पढ़ लेने के अनन्तर (उषसः) गृहस्थ की कामना करनेहारे उन युवकों को गृहस्थ में और विद्याभिलाषी पुरुषों को अपने ही पास ( वासय ) बसा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–६ परुच्छेप ऋषिः ॥ वायुर्देवता ॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः । २, ४ विराडत्यष्टिः । ५ अष्टिः । ६ विराडष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे वायूसारखा चांगला प्रयत्न करतात. उत्तम धर्मात्म्याप्रमाणे माणसांना बोध करवितात ते सूर्य व पृथ्वीसारखे प्रकाश व सहनशीलता यांनी युक्त होतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vayu yokes the red and the orange red of nature’s powers such as fire and light, and it inspires the dawn and the sun. It uses all the dynamic sources of energy and power such as air and wind, fire and sunlight, the mind and senses, and the flow of water, all strongest and most impetuous for transport and communication. It awakens them and yokes them to the chariot of cosmic movement. O Vayu, come and wake up and energise life like a lover who wakes up and impassions a sleeping beauty. Light up the heaven and earth, light up the dawns. Light up the dawn of new life and let it rise to the top of glory.

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