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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 134 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 134/ मन्त्र 5
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः

    तुभ्यं॑ शु॒क्रास॒: शुच॑यस्तुर॒ण्यवो॒ मदे॑षू॒ग्रा इ॑षणन्त भु॒र्वण्य॒पामि॑षन्त भु॒र्वणि॑। त्वां त्सा॒री दस॑मानो॒ भग॑मीट्टे तक्व॒वीये॑। त्वं विश्व॑स्मा॒द्भुव॑नात्पासि॒ धर्म॑णासु॒र्या॑त्पासि॒ धर्म॑णा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तु॒भ्य॑म् । शु॒क्रास॑ । शुच॑यः । तु॒र॒ण्यवः॑ । मदे॑षु । उ॒ग्राः । इ॒ष॒ण॒न्त॒ । भु॒र्वणि॑ । अ॒पाम् । इ॒ष॒न्त॒ । भु॒र्वणि॑ । त्वाम् । त्सा॒री । दस॑मानः । भग॑म् । ई॒ट्टे॒ । त॒क्व॒ऽवीये॑ । त्वम् । विश्व॑स्मात् । भुव॑नात् । पा॒सि॒ । धर्म॑णा । अ॒सु॒र्या॑त् । पा॒सि॒ । धर्म॑णा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यं शुक्रास: शुचयस्तुरण्यवो मदेषूग्रा इषणन्त भुर्वण्यपामिषन्त भुर्वणि। त्वां त्सारी दसमानो भगमीट्टे तक्ववीये। त्वं विश्वस्माद्भुवनात्पासि धर्मणासुर्यात्पासि धर्मणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम्। शुक्रास। शुचयः। तुरण्यवः। मदेषु। उग्राः। इषणन्त। भुर्वणि। अपाम्। इषन्त। भुर्वणि। त्वाम्। त्सारी। दसमानः। भगम्। ईट्टे। तक्वऽवीये। त्वम्। विश्वस्मात्। भुवनात्। पासि। धर्मणा। असुर्यात्। पासि। धर्मणा ॥ १.१३४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 134; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यस्त्वं धर्मणाऽसुर्यात्पासि धर्मणा विश्वस्माद्भुवनात्पासि त्सारी दसमानो भवान् तक्ववीये भगमीट्टे त्वं त्वां येऽपां भुर्वणीषन्त। तुरण्यवः शुचयः शुक्रास उग्रा मदेषु भुर्वणि तुभ्यमिषणन्त ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (तुभ्यम्) (शुक्रासः) शुद्धवीर्य्याः (शुचयः) पवित्रकारकाः (तुरण्यवः) पालकाः (मदेषु) हर्षेषु (उग्राः) तीव्राः (इषणन्त) इच्छन्तु (भुर्वणि) धारणवति (अपाम्) (इषन्त) प्राप्नुवन्तु (भुर्वणि) पोषणवति (त्वाम्) (त्सारी) कुटिलगामी (दसमानः) शत्रूनुपक्षयन् (भगम्) ऐश्वर्य्यम् (ईट्टे) स्तौति (तक्ववीये) तक्वनां स्तेनानामसम्बन्धे मार्गे (त्वम्) (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (भुवनात्) संसारात् (पासि) रक्षसि (धर्मणा) (असुर्यात्) असुराणां दुष्टानां निजव्यवहारात् (पासि) (धर्मणा) धर्मेण ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    मनुष्याणां योग्यताऽस्ति ये यान् रक्षेयुस्तांस्तेऽपि रक्षेयुर्दुष्टानां निवारणेनैश्वर्यमिच्छन्तु न कदाचिद्दुष्टेषु विश्वासं कुर्य्युः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्ते, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! जो (त्वम्) आप (धर्मणा) धर्म से (असुर्यात्) दुष्टों के निज व्यवहार से (पासि) रक्षा करते हो वा (धर्मणा) धर्म के साथ (विश्वस्मात्) समग्र (भुवनात्) संसार से (पासि) रक्षा करते हो तथा (त्सारी) तिरछे-बाँके चलते और (दसमानः) शत्रुओं का संहार करते हुए आप (तक्ववीये) जिसमें चोरों का सम्बन्ध नहीं उस मार्ग में (भगम्) ऐश्वर्य्य की (ईट्टे) प्रशंसा करते उन (त्वाम्) आपको जो (अपाम्) जल वा कर्मों की (भुर्वणि) धारणावाले व्यवहार में (इषन्त) चाहते हैं, वे (तुरण्यवः) पालना और (शुचयः) पवित्रता करनेवाले (शुक्रासः) शुद्ध वीर्य (उग्राः) तीव्र जन (मदेषु) आनन्दों में (भुर्वणि) और पालन-पोषण करनेवाले व्यवहार में (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (इषणन्त) इच्छा करें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों की योग्यता है कि जो जिनकी रक्षा करें, उनकी वे भी रक्षा करें। दुष्टों की निवृत्ति से ऐश्वर्य्य को चाहें और कभी दुष्टों में विश्वास न करें ॥ ५ ॥

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    विषय

    पवित्रता व शक्ति

    पदार्थ

    १. (तुभ्यम्) = तेरे लिए (शुक्रासः) = ये वीर्यकण (शुचयः) = पवित्रता का साधन बनें, (तुरण्यवः) = ये तुझे तुरा से युक्त करें तथा (मदेषु उग्राः) = उल्लासों के निमित्त अत्यन्त तेजस्वी हों। सोम के रक्षण से मन में अपवित्र विचार नहीं आते, शरीर में आलस्य घर नहीं करता तथा मानस उल्लास में कमी नहीं आती। २. ये सोमकण (भुर्वणि) = भरण के निमित्त (इषणन्त) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में गतिवाले होते हैं, (अपां भुर्वणि) = प्रजाओं के भरण के निमित्त (इषणन्त) = ये शरीर में प्रेरित होते हैं। उस-उस अङ्ग में पहुँचकर यह सोम ही उनको शक्तिशाली बनाता है, उन अङ्गों में किसी प्रकार की कमी नहीं आने देता। ३. (त्सारी) = शक्ति की कमी के कारण कुछ टेढ़ी-मेढ़ी चालवाला, (दसमानः) = उपक्षीण-सा हुआ हुआ पुरुष हे सोम ! (त्वाम्) = तुझे ही तक्ववीये [तक्वन् - Darting] तीव्रगति के लिए, शक्तिपूर्वक शीघ्रता से चल सकने के लिए (भगम्) = वीर्य को ईट्टे भोगता है। सोम के रक्षण से वह शक्ति प्राप्त होती है, जिससे कि क्षीण पुरुष भी (दसमान), सीधा न चल सकनेवाला पुरुष भी (त्सारी) फिर से शक्तिपूर्वक शीघ्रता से चलने में समर्थ होता है। ४. हे सोम! (त्वम्) = तू (धर्मणा) = अपनी धारक शक्ति से (विश्वस्मात् भुवनात्) = सारे संसार से (पासि) = हमारा रक्षण करता है। सोम को शरीर में धारण करने पर कोई भी शक्ति हमें हानि नहीं पहुँचा सकती। (धर्मणा) = अपनी धारक शक्ति से तू (आसुर्यात्) = आसुरवृत्तियों के आक्रमण से (पासि) = हमें बचाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित होने पर सोम हमें शक्तिशाली बनाता है और अशुभ वृत्तियों से बचाता है। सूचना - यहाँ मन्त्र के पूर्वार्द्ध में प्रभु ने जीव से शुक्र का महत्त्व कथन किया है और उत्तरार्द्ध में जीव सोम का आराधन करता है।

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    विषय

    राजा के अधीनस्थ अधिकारियों के कर्त्तव्य । राजा को दुष्टों के नाश का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे बलवन् ! राजन् ! ( शुक्रासः ) शुद्ध कान्तिमान् वीर्यवान् ( शुचयः ) शुद्ध आचरण वाले, ( तुरण्यवः ) अति शीघ्रता से कार्य सम्पादन करने में कुशल, ( उग्राः ) उग्र, भयंकर बलवान् पुरुष ( मदेषु ) हर्ष के अवसरों में और ( अपाम् भुर्वणि ) जलों के धारण और आहरण के कार्य में वायु के समान ( अपां भुर्वणि ) प्रजाओं के भरण पोषण के कार्य में लगें । वे ( तुभ्यम् ) तुझे ही ( इषणन्त ) चाहें और ( भुर्वणि ) पालन पोषण के कार्य में ( त्वा ) तुझे ही ( इषणन्त ) सदा प्रेरणा करते रहें । हे राजन् ! ( त्सारी ) छद्मगति से चलने वाला, कुटिलाचारी पुरुष भी ( दसमानः ) शत्रुओं का नाश करता हुआ ( त्वां भगं ) तुझ ऐश्वर्यवान् पुरुष की ( तक्ववीये ) और प्रजापीड़क पुरुषों के दूर करने के उत्तम काम के निमित्त ( ईद्दे ) स्तुति करता है। तू ( विश्वस्मात् ) सब प्रकार के ( भुवनात् ) उत्पन्न हुए सांसारिक भय से या प्राणी से ( पासि ) रक्षा करता है और तू ही ( धर्मणा ) धर्म से अर्थात् अपने धारण सामर्थ्य से ( असुर्यात् ) असुर अर्थात् दुष्ट पुरुषों के व्यवहार से ) भी प्रजा को ( पासि ) रक्षा करने में समर्थ है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–६ परुच्छेप ऋषिः ॥ वायुर्देवता ॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः । २, ४ विराडत्यष्टिः । ५ अष्टिः । ६ विराडष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी हे जाणावे की, जे त्यांचे रक्षण करतात. त्यांचे त्यांनीही रक्षण करावे. दुष्टांचा नाश करून ऐश्वर्याची इच्छा बाळगावी. तसेच दुष्टांवर कधीही विश्वास ठेवू नये. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The brilliant, pure and radiant, fast and zealous, and the blazing geniuses in the ecstasy of meditation, in the rapid flow of their karmas have desire only for you, have love but only for you in the intensity of their karma and devotion. The man of strength and generosity going by safest high ways worships you, lord giver of wealth and power of the world. You alone, by Dharma save from all the evils of the world, you alone help us cross through the world through Dharma.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men behave is told further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, as thou protectest us with thy upholding power from the fear of evil-doers and protectest us from the world by thy Dharma or righteousness, thou going about everywhere and destroying internal as well as external enemies, praisest wealth in a safe thief-less (where there is no fear of the thieves and robbers) path, therefore those, who desire thee in the performance of good actions, being pure, virile and purifiers, protectors of all and mighty may attain thee on the occasion of all joy in doing acts that uphold and support all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( तुरण्यवः) पालकाः = Protectors or defenders. (तक्ववीये) तक्वनां स्तेनानाम् असम्बन्धे मार्गे = On the safe pathes free from the fear of thieves. (इषणन्त) १ इच्छन्तु प्राप्नुवन्तु

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is proper to protect those persons (when necessary) who guard and defend them and desire to acquire wealth by the removal of all evils and wicked persons. They should never trust such ignoble wicked persons.

    Translator's Notes

    तक्वा इति स्तेन नाम ( ३.२४ ) इषु-इच्छायाम् इष-गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थग्रहणम्

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