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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 140 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 10
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्माक॑मग्ने म॒घव॑त्सु दीदि॒ह्यध॒ श्वसी॑वान्वृष॒भो दमू॑नाः। अ॒वास्या॒ शिशु॑मतीरदीदे॒र्वर्मे॑व यु॒त्सु प॑रि॒जर्भु॑राणः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्माक॑म् । अ॒ग्ने॒ । म॒घव॑त्ऽसु । दी॒दि॒हि॒ । अध॑ । श्वसी॑वान् । वृ॒ष॒भः । दमू॑नाः । अ॒व॒ऽअस्य॑ । शिशु॑ऽमतीः । अ॒दी॒देः॒ । वर्म॑ऽइव । यु॒त्ऽसु । प॒रि॒ऽजर्भु॑राणः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकमग्ने मघवत्सु दीदिह्यध श्वसीवान्वृषभो दमूनाः। अवास्या शिशुमतीरदीदेर्वर्मेव युत्सु परिजर्भुराणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकम्। अग्ने। मघवत्ऽसु। दीदिहि। अध। श्वसीवान्। वृषभः। दमूनाः। अवऽअस्य। शिशुऽमतीः। अदीदेः। वर्मऽइव। युत्ऽसु। परिऽजर्भुराणः ॥ १.१४०.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अग्ने वृषभो दमूना श्वसीवान् परजर्भुराणस्त्वमस्माकं युत्सु मघवत्सु वर्मेव शिशुमतीर्दीदिहि। अधे दुःखान्यवास्यसुखान्यदीदेः ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (अस्माकम्) (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (मघवत्सु) बहुधनेषु (दीदिहि) प्रकाशय (अध) अनन्तरम् (श्वसीवान्) प्राणवान् (वृषभः) श्रेष्ठः (दमूनाः) दान्तः (अवास्य) विरुद्धतया प्रक्षिप्य। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (शिशुमतीः) प्रशस्ताः शिशवो बालका विद्यन्ते यासां ताः (अदीदेः) प्रकाशयेः (वर्मेव) कवचमिव (युत्सु) संग्रामेषु (परिजर्भुराणः) परितः सर्वतोऽतिशयेन पुष्यन् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वन् संग्रामे यथा वर्म्मणा शरीरं रक्ष्यते तथा न्यायेन प्रजा रक्षेः संग्रामे स्त्रियो न हन्याः। यथा धनाढ्यानां स्त्रियो नित्यं मोदन्ते तथैव प्रजा मोदयेः ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) पावक के समान वर्त्तमान विद्वान् ! (वृषभः) श्रेष्ठ (दमूनाः) इन्द्रियों का दमन करनेवाले (श्वसीवान्) प्राणवान् और (परिजर्भुराणः) सब ओर से पुष्ट होते हुए आप (अस्माकम्) हमारे (युत्सु) संग्राम और (मघवत्सु) बहुत हैं धन जिनमें उन घरों वा मित्रवर्गों में (वर्मेव) कवच के समान (शिशुमतीः) प्रशंसित बालकोंवाली स्त्री वा प्रजाओं को (दीदिहि) प्रकाशित करो (अध) इसके अनन्तर दुःखों को (अवास्य) विरुद्धता से दूर पहुँचा सुखों को (अदीदेः) प्रकाशित करो ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वान् ! संग्राम में जैसे कवच से शरीर संरक्षित किया जाता है, वैसे न्याय से प्रजाजनों की रक्षा कीजिये और युद्ध में स्त्रियों को न मारिये, जैसे धनी पुरुषों की स्त्रियाँ नित्य आनन्द भोगती हैं, वैसे ही प्रजाजनों को आनन्दित कीजिये ॥ १० ॥

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    विषय

    'श्वसीवान्, वृषभो दमूना'

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (अस्माकम्) = हममें से (मघवत्सु) = [मघ- ऐश्वर्य, यज्ञ] ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग करनेवाले व्यक्तियों में आप (दीदिहि) = चमको दीप्त होओ। जब आप किसी व्यक्ति के हृदय में दीप्त होते हैं, तब वह (श्वसीवान्) = प्रशस्त जीवनवाला, (वृषभ:) = शक्तिशाली व (दमूना:) = दान्त मनवाला होता है। प्रभु के साथ होनेपर जीवन में किसी प्रकार की मलिनता का प्रश्न ही नहीं उठता। उस समय यह उपासक प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न बनता है, मन को भी वश में करनेवाला होता है। २. हे प्रभो! आप (अवास्य) = [अस् क्षेपणे] इनकी सब वासनाओं को सुदूर फेंककर (शिशुमती:) = प्रशस्त सन्तानोंवाली इन प्रजाओं को (अदीदे:) = दीप्त जीवनवाला बनाइए। माता-पिता के जीवन-वासना शून्य होंगे तो सन्तानों के जीवन भी वासनाशून्य बनेंगे। हे प्रभो! आप (युत्सु) = इन वासना संग्रामों में वर्म इव इनके लिए कवच के समान होते हैं। कवच से जैसे शस्त्रास्त्रों के आक्रमण से बचाव होता है, उसी प्रकार प्रभुरूप कवच को धारण करके ये वासनाओं के प्रहारों से सुरक्षित रहते हैं। (परिजर्भुराण:) = प्रभु इनके शत्रुओं को खूब ही परिहृत करते हैं, शत्रु इन तक पहुँच ही नहीं पाते।

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञशील पुरुषों के हृदयों में प्रभु का प्रकाश होता है, इससे उनका जीवन उत्कृष्ट बनता है। प्रभु इनके लिए कवच होते हैं, इनकी वासनाओं को परे फेंककर वे इन्हें उत्तम सन्तानोंवाला बनाते हैं।

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    विषय

    यज्ञाग्नि, मेघस्थ विद्युत् के दृष्टान्त से विद्वान् नायक वा राजा के प्रति प्रजा का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार अग्नि ( मघवत्सु = मखवत्सु ) यज्ञशील पुरुषों के बीच प्रज्वलित होता ( श्वसीमान् ) और वायु के साथ युक्त होकर प्रकाशित होता है उसी प्रकार हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! नायक ! ज्ञानवन् ! तू ( अस्माकम् ) हमारे ( मधवत्सु ) ऐश्वर्यवान्, सम्पन्न और (मा-अघवत्सु ) निष्पाप पुरुषों के बीच में प्रकाशित हो, यशस्वी वन, ( अध ) और जिस प्रकार ( वृषभः ) वर्षणशील मेघस्थ ( दमूनाः ) विद्युत् रूप अग्नि ( श्वसीवान् ) समस्त प्राणियों को प्राण देने वाले पवन से युक्त होकर और ( शिशुमतीः अवास्य ) पृथ्वी पर पड़ने वाले जल से भरी धाराओं को गिराकर स्वयं चमकता है और जिस प्रकार ( वृषभः ) बड़ा सांड ( श्वसीवान् ) महाप्राण से युक्त होकर ( वृषभः ) वीर्य सेचन में समर्थ होकर ( अवास्य शिशुमतीः ) गौओं पर पड़ कर उनको प्रजावती करता है और उनके बीच सुशोभित होता है। उसी प्रकार तू भी ( दमूनाः ) स्वयं दान्तचित्त, जितेन्द्रिय होकर प्रजा के और शत्रुओं के दमन करने में भी दत्त चित्त होकर शत्रु सेनाओं को ( अवास्य ) अपने नीचे करके ( शिशुमतीः ) बालकों से युक्त उत्तम प्रजाओं, या अश्वों से युक्त सेनाओं को ( अदीदेः ) प्रकाशित कर । और ( युत्सु ) संग्रामों में ( परिजर्भुराणः ) शत्रुओं को पुनः पुनः दूर करता हुआ ( वर्म इव ) कवच के समान ( शिशुमतीः ) प्रजावती स्त्रियों के समान प्रजाओं की रक्षा कर ।

    टिप्पणी

    शिशुरित्यश्वनाम । यजु० अ० २२ । १९ ॥ इति षष्ठो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! लढाईत जसे कवच घालून शरीराचे रक्षण केले जाते तसे न्यायाने प्रजेचे रक्षण करा व युद्धात स्त्रियांना मारू नका. जशा धनवान पुरुषांच्या स्त्रिया नित्य आनंद भोगतात तसेच प्रजाजनांना आनंदित करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, shine among our great and powerful people, and then, breathing, panting, blowing and bellowing like a bull, overflowing with energy, commanding and restraining, dear to the families but blazing in the battles, protect women, children and the homes like an armour, throw out the enemy and shine and brighten up life all around.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The call to fight injustice is further toned up.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned leader! being showerer of blessings, you are a man of self-control, vivifying and nourishing. O learned person! you strengthen all nice persons from all sides, visit our opulent abodes and protect mothers with their infants. As an armour protects the body in fighting, O learned man! you ward off all miseries and give us joy and delight. You shower blessings on good persons and observe necessary restraints.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A learned ruling person should protect the people with justice as the armour protects the body during fight. Females should not be killed in the battles.

    Foot Notes

    (अग्ने) पावक इव वर्तमानः = Learned person shining and purifying like fire. (अवास्य) विरुदूगत्या प्रक्षिप = Throw away. ( परिजर्भुराण:) परितः सर्वतः अतिशयेन पुष्यन् = Nourishing and strengthening from all sides.

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